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Showing posts from 2019

एक

और कितने दिन चलेगा दौर उन्निस-बीस का, है इशारा ट्वेंटी-ट्वेंटी होने के दिन पास हैं। @कुमार

सहज-स्फूर्त विश्वविद्यालय-कुलगीत : छिंदवाड़ा विश्वविद्यालय, सतपुड़ा घाटी, मध्यप्रदेश.

छिंदवाड़ा मेरे बचपन की क्रीड़ा-भूमि है, युवावस्था की स्वप्न नगरी है। रेलवे मिश्रित विद्यालय और डेनिएलशन उपाधि महाविद्यालय आज भी मेरे दिल और दिमाग में धड़कते हैं। माननीय मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश कमलनाथ जी ने छिंदवाड़ा को विश्वविद्यालय की सौगात देकर एक तरह से मेरे सपनों को पंख दिए हैं। इस उत्साहित ऊर्जा से अनायास यह गीत प्रवाहित हो गया जिसे मैं कन्हान, कुलबेहरा और वैनगंगा की पावनता से सिंचित छिंदवाड़ा विश्वविद्यालय को समर्पित करता हूँ। इस सहजस्फूर्त गीत को जन जन का प्यार मिले बस यही आकांक्षा है, इसे किसी अनुमोदन या स्वीकृति की आवश्यकता ही नहीं। *** सहज-स्फूर्त विश्वविद्यालय-कुलगीत (छिंदवाड़ा विश्वविद्यालय, सतपुड़ा घाटी, मध्यप्रदेश). * अर्थ का, विज्ञान का, तकनीक का आधार है। विश्वविद्यालय हमारा, ज्ञान का आगार है। सतपुड़ा के धूपगढ़-सी श्रेष्ठता का यह निलय। मन पठारों-सा सरल पाकर अहं होता विलय। प्राण, पीकर बैनगंगा का सुधारस ठाठ से- लोक-दुर्गम घाट-पर्वत पर लिखे नित जय-विजय। मोगली-मानव-तनय को पाल लेता प्रेम से, वन्य-प्राणी-जगत जीवित-संस्कृति का सार है। विश्वविद्यालय हमारा..... विविध अ

ओ रतौंधी के अंधेरे

*** स्वत्व की मावस-निशा में, दीप लेकर आ गया मैं, ओ रतौंधी के अंधेरे! क्या तुम्हारे द्वार धर दूं? 0 कमल-कीचड़ का कला-चित, जम चुका अवचेतनों में। मूल्य-विमुखित लाभ-लोलुप, धन जुड़ा अब वेतनों में। 'जैसे तैसे कट रही'~पर, (~पर = ऊपर) 'जैसे भी हो' का प्रशासन, तुम अगर मन से कहो तो, इस पतन से तुम्हें वर दूं! ओ रतौंधी के अंधेरे! 0 फूल से फौलाद जीता, धूल पर कंक्रीट हावी। अब बहुत आसान जाना चैन्नई से जम्मु-तावी। हिन्द-सागर से हिमालय, एक ही वातावरण है, आ करूँ श्रृंगार तेरा, एक-रस, इक रंग कर दूं। ओ रतौंधी के अंधेरे! 0 झूठ का इतिहास रचते जा रहे हैं शब्द लंपट। सत्य से सीधे निपटना हो अगर तो, बड़ी झंझट। पी सुरा स्वच्छंदता की झूमती पागल हवाएं, अब किसे मैं भाव सौंपू, सृजन-स्वर, पावन-प्रखर दूं! ओ रतौंधी के अंधेरे! 0 आ चलें वर्चस्व की इस बाउली से मुक्ति पाएं। सर्वजन हित गीत रचकर,  सब के सब समवेत गाएं। राजनीतिक कूट-कलुषित वंचना से रिक्त होकर, तुम मुझे अनुराग दे दो, मैं तुम्हें जीवन से भर दूं! ओ रतौंधी के अंधेरे! ००० @कुमार, ४ सितम्बर,

अस्तित्व की लड़ाई

मैं तुम्हारे द्वार आया हूँ तुम्हें देने बधाई, तुम कृपा की टोकरी नौकर के हाथों मत भिजाना! मैं तुम्हारे दुर्दिनों के कठिन श्रम का साक्षी हूं, गंध हूं माथे से टपके हर पसीने की तुम्हारी। मैं लगन की, साधना की अनवरत गतिमान लागत, लाभ में तुमको मिलें शुभकामना सारी हमारी। तुम सफलता के चरम पर पांव अपना धर चुके हो, आत्म-मोहन मेनका के रूप में मन मत रिझाना।              तुम कृपा की टोकरी नौकर के हाथों मत भिजाना! स्मरण है? भूमि छप्पर तानने को, मिली कैसे? एक तुलसी, एक गेंदा, एक  मिर्ची रोपने को। एक मुट्ठी धूप खाकर, पेट भर आंसू पिलाकर, सूर्य प्रतिदिन तुमको ले जाता मिलों को सौंपने को। तेज धारों की दराती से दिनों को भूलना मत, स्वप्न से रूठी हुई रातों को अब फिर मत खिजाना।              तुम कृपा की टोकरी नौकर के हाथों मत भिजाना! सफलता होती नहीं अस्तित्व की अंतिम लड़ाई, फिर नया संघर्ष रचता है नया रण-व्यूह अपना। फिर नए त्रय-शूल की तलवार लेकर प्रण-तुरग पर, प्राण के अंधे-समर में सबको होता टूट पड़ना। अहिर्निश, प्रतिक्षण, सतत-संग्राम के दिन सामने हैं, हाथ से संकल्प-ध्वज को मरते दम तक मत गि

"मित्रता दिवस" का गीत

मित्रता के हमें पर्व पर गर्व है, हम सुदामा हैं, कान्हा से मिल आएंगे। यह धरा उर्वरा है, उगाओ अगर, प्रेम के पुष्प, पतझर में खिल जाएंगे। त्रास के ग्रास पर दिन गुजारे, सही, इन अभावों से भावों का अर्जन किया। हम व्यथित थे, व्यवस्थित हुए दिन ब दिन, कष्ट के पृष्ठ पर सुख का सर्जन किया। हमने बंजर की छाती पे सावन लिखे, एक दिन इनमें आशा के फल आएंगे। यह धरा उर्वरा है, उगाओ अगर, प्रेम के फूल, पतझर में खिल जाएंगे। भर के भावों की कांवड़ चली आस्था, वेदना के मरुस्थल का दिल सींचने। सूखकर सारे सागर कुएं हो गए, उनके अंदर से विस्तार फिर खींचने। हैं विषमता के पर्वत खड़े मार्ग में, हम जो मिलकर चलेंगे, वो हिल जाएंगे। यह धरा उर्वरा है, उगाओ अगर, प्रेम के फूल, पतझर में खिल जाएंगे। भाइयों और बहनों! ज़रा सोचिए, आज भी व्याख्यानों का प्रारंभ तुम। श्रावणी पूर्णिमा का हो विश्वास तुम, हर सुरक्षा के ग्रंथों का आरम्भ तुम। तुमको छूकर बहारें महक जाएंगी, तुमसे टकराके दुर्दिन ही छिल जाएंगे। यह धरा उर्वरा है, उगाओ अगर, प्रेम के फूल, पतझर में खिल जाएंगे। आओ, सद्भावना पर किताबें लिखें, एक अक्षर न

समाचार आजकल : समांतर सेनाएं

मैं समाचार देख, सुन और पढ़ रहा हूं। जो बात मेरी तुच्छ बुद्धि को समझ में आ रही है वो यह है कि इस्लामाबाद जिस देश की राजधानी है वहां की दो समांतर राजकीय सेनाएं हैं। पाक की #शासकीय_सेना राज करती है और उन देशों से लड़ती है जो आतंकवादियों को आतंक करने पर ठोंकती है। दूसरी राजकीय सेना है #मुहम्मदी_सेना जिसे उर्दू ( अरबी/ फ़ारसी) में #जैशेमुहम्मद ( जैश = सेना, मुहम्मद = इस्लामी पैगम्बर) कहते हैं। जिस तरह के समाचार आ रहे हैं और पाकिस्तान सरकार जिस तरह से जैशेमुहम्मद के सदरेखास की रक्षा में मुस्तैद है, उससे मेरी मंद-बुद्धि को ऐसा क्यों लगता है कि सदरेखासेजैशेमुहम्मद हजरत मसूद अज़हर ही वास्तव में पड़ोसी देश की #पाकीज़ा_सरकार हैं। #यह_दुनियाकी पहली अद्भुत समानांतर सेना है जो किसी देश की सैन्य खर्चे पर चर्चे में रहती है। अन्य शब्दों में इसे "खुजली_सेना" भी कह सकते हैं जो शक्तिशाली राष्ट्रों को खुजाकर अपने "वतन, पाक वतन" को संतुष्टि पहुंचाती है। यह खुजली सेना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कार्य कर रही है, इस दृष्टि से यह भी समानांतर सेना नहीं है भी यह "देशी-सेना" से ज्यादा विशाल

जुलाहा

जुलाहा को याद करो तो कबीर याद आते हैं। विश्वभारती विश्वविद्यालय के संस्थापक कविगुरु रवींद्र, विश्वभारती के आचार्य क्षितिमोहन सेन और विश्वभारती के ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'कबीर' को याद करते हुए कितने ही मानदंड स्थापित किये। 'कबीर ' का अर्थ अद्भुत, आला और महान सिर्फ शब्दों तक सीमित नहीं है। 'कबीर' ने उसे सार्थक भी किया है। आलोचना के शिखर-पुरुष नामवर सिंह के गुरु हजारी प्रसाद की कृति 'कबीर' पढ़ने से पता चलता है कि कबीर की व्युत्पत्ति के मूल में *कवि:* भी बैठा हुआ है। संस्कृतविद 'कवि:' से कबीर तक की यात्रा सरलता से कर सकेंगे। कुलमिलाकर, *कवि-समूह* को यह नवगीत सौंप रहा हूं, जुलाहा की जगह अपने को रखकर पढ़ें। और हां, यह सिर्फ *छूने भर की चेष्टा* है, *असल गहराई तक जाना* तो मैं ही निश्चित रूप से नहीं कर पाया। *जुलाहा* धागा-धागा बुने जुलाहा ताना, बाना, भरणी। रेशा-रेशा कुल कपास का आपस में मिलजुलकर। गाढ़ा गढ़े गूढ़ गुंथन में गठ-बंधन, शुभ, हितकर। परिमित कूलों के भीतर ही अगम अपरिमित धारा, अनगढ़ ऊबड़-खाबड़ गड्ढे ढांप रही सरि हंसकर। शोभनीय

मोहरे

जो लोग शतरंज के खिलाड़ी हैं उन्हें मोहरों की औकात पता है। मोहरा बेचारा ही अपनी कीमत नहीं जानता। अभी तीन दिन पहले मैं मोहरा बनाया गया और उस समय तक मेरे बड़े भाव थे जब तक मैं पिट नहीं गया। मुझे मोहरा बनाकर चलनेवाले चालबाज़ ने जानबूझकर मुझे दूसरी पार्टी के घर में धकेलकर ऐसे स्थान पर खड़ा किया था जहां मेरे पिट जाने में आसानी हो। नाइट के सामने पैदल कैसे टिकेगा? मुझे वजीर कहकर इस खिलंदड़े चालबाज़ ने उठाया था लेकिन जब मैं घोड़े से पिट गया तो मुझे अपनी चाल में लगानेवाला चालबाज़ खिलाड़ी हंसकर बोला, "गया पिद्दी मोहरा। मुझे पता था यह जाएगा इसीलिए इसे आगे बढ़ाया। पर चूंकि यह ज़िंदा इंसान है इसलिए इस पिद्दी (पैदल) को भाव देते हुए इसे मैंने झूठमूठ वजीर कह दिया ताकि यह खुशी खुशी मोहरा बन सके और मैं इसे चल सकूं।' मैं पिटा हुआ पैदल लुइस रुआंसा होकर उस चालबाज़ शतरंजिये का मुंह टुकुर टुकुर देख रहा था। एडिनबर्ग स्कॉटलैंड के तमाशाई देखते रहे कि झल्लाई हुई रानी विक्टोरिया किंग लुइस मार्टिन को नहीं, वार्डर लुइस चैस को पीटने लगी। किंग मार्टिन हंसने लगा। क्वीन विक्टोरिया रॉयल-गेम छोड़कर गली-छाप लड़ाई पर उतर आ

संवादों के फूल

पितृ दिवस के अवसर पर एक पैतृक गीत : *** अनबोली दुनिया में खुशबू भरने को, संवादों के फूल खिलाने आया हूं। मैं, मेरे, अपने, परिजन खुश रहें, खिलें, सुमन सुमन भावी भावन भर लाया हूं। बनावटों की बाट-बाट बगवानी थी। स्वार्थ सनी हर ललक, खुशी,अगवानी थी। नहीं सिकोड़ी नाक न माथे सिकन पड़ी, मेरे लिए खेल उनकी नादानी थी। संबंधों की मुझे लगन, उनको क्रीड़ा। तोड़ी नहीं, सदा जोड़ी है मन-वीणा। खिंचे तार पर कटी किन्तु उंगली फेरी, झंकारों पर झूमा, नाचा, गाया हूं। बदल नहीं सकते जब दुनियावालों को। दिखा नहीं सकते अंदरूनी छालों को। मगरमच्छ हैं जहां, हमे भी रहना है, छोड़ नहीं सकते हम चलचर, तालों को। पीकर विष, हंसकर अस्तित्व बचाना है। जान बूझकर चोट-चोट मुस्काना है। 'तुम तुम हो, मैं मैं हूं' ऐसा सोच सदा, इस कांटों से भरे सफर में आया हूँ। नीड़ है मेरा, चूजे मेरे, मैं उनका। उनकी खातिर जोड़ा है तिनका-तिनका। बाजों से, गिद्धों से बचा-बचा लाया, कभी न अंतर किया रात का या दिन का। उनको इस जंगल में जीना सिखलाऊं। कैसे लड़ें भेड़ियों से गुर बतलाऊं। सिर, पर, पैर मिले हैं मुझको इसीलिए, धरती नापी ह

हर मन भूखा

हरमन भूखा रह जाता है, खाता नहीं दलाली। जनसंख्या का गणित संगठित लूट-मार में भागी। एक दूसरे के पहुंचे से, पहुंचे घर-घर दागी। बिना-मोल बिक गयी जवानी बिना तुले निष्ठाएं, द्वेष, झूठ, मद, घृणा पागती राजनीति बड़भागी। सुप्त-कोश बन गए युवाओं ने शक्तियां उछाली। (किन्तु ....) हरमन भूखा रह जाता है, खाता नहीं दलाली। सारे न्यायशास्त्र के मानक पिछलग्गू हैं उनके। कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं, तन गेंहू, मन घुन के। उनका 'कृत्रिम' भी 'सच्चा' है उनका 'छल' भी 'सद' है, 'सरल-सत्य शुभ' के पीछे रखते वे गुहचर चुनके। बाट-बाट बटमार उन्हीं के, कदम कदम कुतवाली (किन्तु ....) हरमन भूखा रह जाता है, खाता नहीं दलाली। यह उनका विज्ञान, एक को दाबें, सौ दब जाएं। उनका मंत्र, 'प्रणाम लाख के, मात्र एक को जाएं।' उनकी रेखा वक्र रहे, पर सुगम-सरल कहलाये, प्रकृति उनके साथ है, उनके पत्थर भी तिर जाएं। उनको अमृत-सिंधु मिला है, यद्यपि रेत खंगाली! (किन्तु ....) हरमन भूखा रह जाता है, खाता नहीं दलाली। हरमन अब भी भूखी-बस्ती में मुरझाया रहता। म

आओ मित्रों! घर-घर खेलें

पका रहा है खिचड़ी क्या क्या, मन मस्ताना, बन बावरची। यतन-यतन की रतन रसोई, सपनों के अपने चटखारे। मंत्र मुग्ध मन दुख-सुख धोकर, ताज़ा मक्खन मार बघारे। धीरे-धीरे मिलें मसाले, यादें प्याजी, मां के घर की। जहां-जहां से बाड़ी दरके, फिर-फिर जोड़े भोला धुनकी। धनिया-पोदीने में खटपट, मिर्च-भटे से तुरई तुनकी। चटनी से उलझा सिलबट्टा, चैन नहीं उसको पल भर की। फूले कल्ले खौफ़ चबाकर, पान उठ गए, बंटी सुपारी। टेढ़ी मुस्कानों में झलके, घृणा-द्वेष की धुन हत्यारी। बन्धुत्वों के बंधन बिखरे, सींग मारती है मन-मरज़ी। आओ मित्रों घर-घर खेलें, छाओ आम-जमुन के पत्ते। चौपालों में पीपल-बरगद, आँगन में चम्पे के छत्ते। हाट-हाट से हंसी जुटाओ, खट्टी मीठी, खारी चरपी। ** डॉ. रा. रामकुमार, १४.५.१९, (६ बजे, १ बजे)

ब्रैड, मलाई और फ्रीज़

(भारत, २१ मई २०१९) गर्मी के दिनों में फ्रीज़ से बड़ा कोई भी देश और संविधान नहीं हो सकता। उसी फ्रीज़ रूपी देश के भीतर चुनाव के लिए भिंडी-टिंडा से लेकर मलाई, बटर और ठंडे पानी की बोतलें साधारण परिस्थितियों में पड़ी ही होती हैं। आइसक्रीम और दूसरी चीजों के लिए शाम को अपनी ए-सी-कार में बैठकर रेस्तरां रेस्तरां घूमकर आप अपनी तैसी कराकर इत्मीनान से वापस आ सकते है। चुनाव आपका है। फ्रीज़ के पास जाने पहले मैं अपने कन्फ़रटेबल क्षेत्रीय-कार्यालय यानी सौफे पर बैठा आज का घोषणापत्र तैयार कर रहा था। अपने पर्सनल देश में खाने लायक क्या-क्या है, इस पर विचार कर रहा था। वैसे भी इस खाना प्रधान देश में रोज़ सुबह उठकर 99 प्रतिशत घरों में सिर्फ खाने की ही चिंता होती है। उधर एकमात्र प्रधानमंत्री है जो कहते हैं कि न खाऊंगा, न खाने दूंगा। क्योंकि देश की हालत प्रधानमंत्री जानते हैं। गरीबी-प्रधान देश है। सभी को खाने की आज़ादी नहीं दी जा सकती। कुछ विशेष जाति, विशेष वर्ग, विशेष संगठनों को ही यह सुविधा संभव है। कुछ *निराला* के अनुसार *योग्यतम* सिद्ध हो जाएं और नौ हजार करोड़ या अन्य घपले कर विदेश भाग जाएं, वह उनकी कामयाबी ह

सूप बोले तो बोले छलनी भी..

सूप बुहारे, तौले, झाड़े चलनी झर-झर बोले। साहूकारों में आये तो चोर बहुत मुंह खोले। एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।' ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण। काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे। चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी नि

कुछ सोते, कुछ जागते

देश को एक कश्चित योगदान.. १५.५.१९,१०.३५.रात्रि 👇 दिलों से तो गुजरता हूं कहीं रहता नहीं हूं। सभी को चाहता तो हूं मगर कहता नहीं हूं। नदी होता अगर, बंजर बियाबां में बदलते? समंदर हूं , उबलता हूं, मगर बहता नहीं हूं। किनारों पर कई रस्मोरवायत बांध लेतीं, कहूं कैसे कि क्या-क्या मार मैं सहता नहीं हूं। १६.५.१९ बादलों को चूमती ये वादियां अच्छी लगीं। कुदरती तहज़ीब की उरयानियां अच्छी लगीं। हम नहीं डरते कि हम जांबाज़ हैं, दिलदार हैं, इसलिये इस दौर की ये आंधियां अच्छी लगीं। उस सदी से इस सदी तक, बोले' बिन पढ़ती रहीं, ये मुझे इस शहर की खामोशियां अच्छी लगीं। मालकिन है हर लहर की, जलजले की जान है, यार! तूफ़ां की हवा से यारियां अच्छी लगीं। एक मुफ़लिस के लिए फ़ाक़ा ओ रोज़ा एक है, दर्दो ग़म लानत भरी, इफ़तारियां अच्छी लगीं। आसतीं में सांप हैं या हैं बग़ल में छूरियां, ये नज़र मोटी, पढ़े बारीकियां अच्छी लगीं। ये इधर टूटी क़यामत, वो उधर बरपा कहर, साजिशों की लापता सरगोशियां अच्छी लगीं। सांप ने डसना न छोड़ा, दूध देना आपने, आप दोनों की मुझे खुद्दारियां अच्छी लगीं। लड़ रहीं ख़ुदबीं अक

अस्तित्व का एक प्रेरक गीत : कर हर मैदान फतह

कर हर मैदान फतह मेहबूब की *मदर इंडिया* में नरगिस नायिका की प्रमुख भूमिका में थीं और उनके बिगड़ैल बेटे बिरजू की भूमिका निभाई थी सुनील दत्त ने। फ़िल्म के दौरान ही कुछ ऐसा घटा कि नरगिस और सुनील (बलराज दत्त) दाम्पत्य में बंध गए। उन दोनों के भ्रांत-पुत्र 'खलनायक के नायक' संजय दत्त की पारिवारिक कथा किसी 'महाकाव्य' से कम नहीं है। घटना चक्र, मोह व्यामोह, संघर्ष, दिग्भ्रांति, सज्जनता, प्रेम, समर्पण, धोखा, गंभीर बीमारियों, मुसलसल मृत्यु, आसन्न राजनीति, अय्यासी, षड्यंत्र, आरोप, अपराध, कानूनी सज़ाओं, उच्चतम राजनीतिक पहुंच और केंद्रीय राजनीतिक व्यक्तित्वों का एक विराट वास्तविक कथा-चित्र है। नरगिस के पुत्र और फ़िल्म उद्योग के "भव्य स्वर्णिम सपनों के व्यापारी" कपूर परिवार के सफल प्रपौत्र अर्थात चौथी पीढ़ी के सर्वाधिक साक्षर सुपुत्र के बीच बने तानेेबानेे का अद्भुत चित्रण है "संजू"। इस महाकाव्यात्मक फ़िल्म के केंद्रीय चरित्र संजय दत्त का अंधेरे में जाने, डूबने और निकलकर बाहर आने का समकालीन फिल्मी कला तत्वों के आधार पर बेहतर चित्रण है। फिल्मी पटकथा में गीतों की भूमिका

कबीर का जीवन दर्शन Kabir's philosophy of life.

#अमर_नइहा_काया_रे... मैंने बचपन में #मां के सौजन्य से, एक अनुयायी मण्डल से ढिबरी की लौ और गुरसी की आंच में यह #कबीरपंथी_भजन सुना था। गरीब लोग थे और शीत की रात को झांझ, मंजीरा, टिमकी, ढोलक और सारंगी में कबीर के पदों और भजनों को रात-भर गाकर, रजाई और कंबलों के अभाव को, गाते बजाते पछाड़  दिया करते थे। #स्मृति_दीवानी के खजाने से निकला #संत_कबीरदास  का यह भजन प्रस्तुत है। निवेदन है, इसका और कोई भी पाठ हो सकता है क्योंकि अनपढ़ कबीर के भजन कई पाठों में प्राप्त होते हैं। अमर नइहा काया रे अमर नइहा काया। सुनो #नर_ग्यानी अमर नइहा काया। काहे की जिबहा तो काहे की बानी? सोने की जिबहा सुधारस बानी। झूठी बाकी माया है रे, झूठी सारी माया... ..........सुनो #नर_ग्यानी अमर नइहा काया। काहे की नारी तो काहे को पूता? लोभ की नारी तो मोह को पूता। काहे भरमाया है तू काहे भरमाया.. ..........सुनो #नर_ग्यानी अमर नइहा काया।. काहे को मान तो काहे की बड़ाई? ज्ञान को मान तो गुन की बड़ाई। यही सरमाया है यही सरमाया.. .................सुनो #नर_ग्यानी अमर नइहा काया। @#सदगुरु_कबीर_साहब [Translation : The body

1 मई पर विशेष

मेहनतकशों की 'पूजा' : मंजूरानी सिंह @ आज अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस है। मेहनतकशों का दिन। आज अनेक राजनैतिक दलों के मजदूर संगठन अपने अपने तरीके से मजदूरों को लुभाने के लिए इस दिन को मनाएंगे। कुछ राजनीतिक दल मनुष्यों को बांटने का काम करते हैं । जातियों में, भाषा में, प्रान्त में, धार्मिक उन्माद में। कोई कोई दल अपनी स्तरहीन सोच से बनाये हुए एजेंडों से आज देश को दिशाहीन,पथभ्रष्ट, शक्तिहीन और संगठन-विहीन कर दिया है। दुर्भाग्य से कुछ वर्षों से हिन्दू मुस्लिम, दलित पिछड़ों और सवर्णों के बीच खाइयां बढ़ा देनेवाली मानसिकता को अवसर भी मिला है और उन्मत्त बुद्धिहीन नौजवानों, नवयुवतियों, बुजुर्गों का उन्हें समर्थन हासिल करने में सफलता भी मिली है। यह अंदर ही अंदर देश को विभाजित कर कुछ वर्गों को परंपरागत ढंग से सुदीर्घकालीन सुविधाएं, अभयदान और बैठे ठाले मजदूर वर्ग के शोषण का चक्र चलाये रखने की कोशिशों को मिलनेवाला प्रतिसाद ही है। मेरे हाथों में इन दिनों एक पुस्तक है। डॉ. आरके सिंह कुलपति सरदार पटेल विश्वविद्यालय, बालाघाट द्वारा अध्ययन हेतु प्राप्त इस संस्मरणात्मक पुस्तक का नाम है "शां

डील

उप-कुलपति महोदय ने बुलाया था। कहा- "आप आ जाएं, डील फाइनल कर लेते हैं। दिल तो मिल ही गए हैं, कुछ मुद्रा विषयक बीजगणित हल कर लेते हैं। असल में मैं आपको कुलपति जी से मिलवाना चाहता हूं।" शहर से शिक्षानगर लगभग दसेक किलोमीटर पर है। बहुचर्चित कायदाये इस्लाम मुस्लिम मदरसा दायीं ओर है। बायीं ओर सारे स्कूल कॉलेज, बिज़नेस ले आउट और बिज़नेस प्लॉट्स हैं। चंद्रा का माउंट लिट्रेसी और विश्वपटल तकनीकी महाविद्यालय समूह एक बड़े क्षेत्र में खड़ी भव्य भवन श्रृंखलाओं में स्थित है। इसी के प्रबंधन में एक अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय का सपना अंकुरित हो रहा है। स्वयं एक स्वप्नदृष्टा अभियंता दिव्यंकर इस सपने को अपने भीतर पालने की सफलतम चेष्टा कर रहे हैं। सफलतम सपनों को साकार करने की उनकी पिछले दस वर्षों की कोशिशों ने कई गुल खिलाया हैं। एक तकनीकी और सम्पूर्ण विश्वविद्यालय को साकार करने की उनकी इस कोशिश में एक और उद्भट स्वप्न दृष्टा अर्थशास्त्री डॉ. रणधीर सेन भी उनसे जुड़ गए हैं। यह कंचन-माणिक्य संयोग कैसे बना नहीं मालूम मगर सुना है, तभी से धरती हेम-प्रसवा हो गयी है और सोने से सुगंध आने लगी है। गर्मी

टोपी : एक राजनैतिक मुहावरा

टोपी: राजनीति का मुहावरा या मुहावरे की राजनीति?  बनारस में भगवा टोपी पहननेवालों से पत्रकार ने ये पूछकर कि क्या ‘आपके’ सबसे प्रबल शत्रु की टोपी की नकल करते हुए अपनी टोपी पहनी है?’ टोपी को पुनः चर्चित कर दिया है।।  भगवा कार्यकत्र्ताओं ने जो उत्तर दिया वह बड़ा अटपटा था। उन्होंने अपने वर्तमान शत्रु या प्रतिद्वंद्वी का श्रेय खारिज करते हुए अपने दूसरे ‘ऐतिहासिक शत्रुया प्रतिद्वंद्वी की देन उसे बताया। ‘राष्ट्रपिता’ के रूप में ख्यात गांधी के नाम से ‘एक टोपी’ सत्तर अस्सी के दशक में लोकप्रिय थी, जो  उनके पुरानी विचारधारा वाले प्रायः वयोवृद्ध अनुयायियों ने याद रखा किन्तु नयी लहर के अनुयायियों ने उपेक्षित कर दिया।  आप और बाप के बीच का यह द्वंद्व एक को अस्वीकार करने और दूसरे की लोकप्रियता का लाभ लेने का उपक्रम लगता है। मगर यह भी लगता है कि कार्यकर्ताओं को टोपी के इतिहास का पता नहीं है। उनके प्रायोजित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को भी इतिहास का कहां पता है? बिहार में विश्वविद्यापीठ आदि अनेक विषयों में इतिहासविषयक भूलें की हैं, अज्ञानता जाहिर की है।  उनके समर्थित दलों और संगठनों में टोपियां ‘दि

गीत : बिसहुआ

मुठ भर मुर्रा चना चबैना, हरी मिर्च दंतियाता, हीरा लेने चला बिसहुआ, तन जर्जर, मन मंगना! बिना पंख के उड़े देखकर शांति निकेतन आये! पुनर्नवा का अर्क निकाले, कुटज कूटकर खाये! दो कौड़ी में बने हजारी, सुत अनमोल कहाये! जो बोले वह सच हो जाये, ज्योतिष-मत हो जाये! वह कबीर की बानी साधे, कल्पलता सा फैले, हर-सिंगार के फूल बिखेरे, इस अंगना, उस अंगना!! जग को गीतांजली पिलाकर, सुध बुध सब बिसराये! कृषि की कला काव्य-कुंज की कलियों सी महकाये! क्षिति में भरी अकूत संपदा, मृत्य-अमृत्य, अजानी! बंजर को करती उर्वर, मरुथल को पानी पानी! जहां भिखारिन भी सोने-से, सुत तक लौटा देती, चलो वहां जाकर देखेंगे, लाल झारता झंगना!! मन की धूल धूसरित गलियां, सौंधेपन से भर दे! कुछ मनभाती बूंदाबांदी सूखा तन तर कर दे! मुड़े-तुड़े कुछ बिसरे सपने आंखों में फैलाकर- बुने घौंसला फिर से चिड़िया, तिनका-तिनका लाकर! गीतों की फिर लगे चौकड़ी, कृति-कस्तूरी महके, फिर कविता-कामिनी चिहुंककर, हंस खनकाये कंगना! *** डॉ. रामकुमार रामरिया, मंगलवार, दि. 23.04.2019, (5 बजे शाम, रात्रि 10. 20 से 11, प्रातः 7.30)

प्रधान मंत्री पद

#प्रधानमंत्री_पद इन दिनों प्रतिष्ठित नाम, पदनाम और विशेषण कलंकित किये जा रहे हैं...योगी, साधु, साध्वी, चौकीदार, ... अगर इस सब से प्रेरित होकर कोई अपराधी थाने के सामने या जेल के भीतर खुद को थानेदार बताए तो दोषी कौन? राजनीतिक लोगों को सांवैधनिक पद के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिये। सुप्रीम कोर्ट को अपने निर्देशों की अवहेलना को गंभीरता से लेना चाहिए। महामहिम राष्ट्रपति सर्वोच्च सांवैधानिक पद है... किसी दल के राजनैतिक दवाब के चलते उसे अन्य किसी पद के साथ स्थानापन्न करना संविधान और राष्ट्रपति पद का अपमान है। इसी प्रकार  प्रधानमंत्री भी गरिमामय सांवैधनिक पद है। किसी भी प्रधानमंत्री को यह अधिकार नही है कि उस पद को किसी अन्य पद से स्थानापन्न करे। ऐसा करना विधान द्रोह है। अगर पदनाम परिवर्तित ही करना है तो संसद में वैसा बिल ले आएं कि कोई भी व्यक्ति प्रधानमंत्री बनते ही राष्ट्रीय पदों के साथ खिलवाड़ करने का अधिकारी हो जाता है। सुप्रीम कोर्ट को राष्ट्रहित में यह अवश्य देखना चाहिए। चुनाव आयोग को निर्देश दिए जाने चाहिए कि पदों को लांछित करनेवाला व्यक्ति विधिश: दंडनीय हो। कलेक्टर, शिक्षक, भृत्

महावीर जयंती

आज महावीर जयंति है,  महावीर जयंति पर विशेष * इक्ष्वाकु-रणधीर प्रणाम!! महावीर, अतिवीर प्रणाम!! वैभव, भोग, विलास त्यागकर वह जितेन्द्र कहलाया! विश्व-जनक सिद्धार्थ, जननि त्रिशला का ताप मिटाया! जाति-पांति से दूर किया, केवल कैवल्य कराया! वैशाली का पुत्र मोक्ष हित, नालंदा पधराया!  कुण्डलपुर-प्राचीर प्रणाम!!  महावीर, अतिवीर प्रणाम!! जीवन में अस्तेय, अहिन्सा, संयम, सत्य, अपरिग्रह! पंचशील के पुण्यमार्ग का है अनुदान, अनुग्रह! सीमित दृष्टि लिए चलते जो, सत्य ‘एक’ बतलाते! अपने दर्शन में तीर्थन्कर, अनेकांत दिखलाते!  स्याद्वाद-तूणीर प्रणाम!!  महावीर, अतिवीर प्रणाम!! ‘सर्वजीव की रक्षा जीवन, सबका सुख हो सपना! वचन, कर्म, मन से भी होती है हिंसा, सब बचना!’ संग्रह जो करते हैं उनको, मुक्तकाम सिखलाया! कुटिल, कलुष, कापुरुषजनों को, मोक्षधाम दिखलाया!  सत्य-जैन जिनवीर प्रणाम!!  महावीर, अतिवीर प्रणाम!! ‘जिओ और जीने दो’ की सब, ‘जिनवाणी’ को समझें! सबमें उसके पुदगल देखें, अपना सबको समझें! तन पदार्थ है, मन कृतार्थ के ‘उत्तम-कर्म’ निभाएं! ‘उत्तम-क्षमा’ जहाज चढें सब, ‘दश-अर्णव’ तर जाएं!

मेरा साथी गुमनाम

सुबह-सुबह मुझको मेरा साथी गुमनाम मिला!! चलो, शहर में नामवरों के, इक हमनाम मिला!! वही चाल सीधी-सादी जो बिन बोले, बोले!! वह हल्की मुस्कान मनों में जो मिश्री घोले!! चलते-चलते, चलते पुरजों को चलता करती!! उठा-पटक या लाग-लपेटी से कन्नी कटती!! उसे देखकर उकताए मन को आराम मिला!! सुबह-सुबह मुझको मेरा साथी गुमनाम मिला!! चालबाज़ियां ठगकर निकलीं, वो हंसकर निकला!! चक्रव्यूह के चक्कर में फंसकर, पककर निकला!! मुश्किल और परेशानी के, घर आता जाता!! क्या लेता-देता है कोई, जान नहीं पाता!! कभी बहुत दिन बाद, कभी वह सुबहो शाम मिला!! सुबह-सुबह मुझको मेरा साथी गुमनाम मिला!! सबके चेहरे पढ़ते रहता वह अनपढ़ अज्ञानी!! पढ़ा-लिखा जग जान न पाया, उसकी राम-कहानी!! दुनिया के गोरख-धंधों से दूर दूर रहता है!! किसे पता, कैसे-कैसे वह, कितने दुख सहता है!! समय! परखकर उसको तुमको क्या परिणाम मिला? सुबह-सुबह मुझको मेरा साथी गुमनाम मिला!! दुनिया उसके नहीं काम की, जिसे काम से काम!! कामयाबियों के लेखे में वह बिल्कुल नाकाम!! ढूंढ रहा वह क्या जाने क्या, चतुर चुस्त लोगों में!! सत्य, अहिँसा, प्रेम, पुराने-मूल्य, न

'च' के चमत्कार उर्फ चतुर और चालाक "च"

चौंक जाइयेगा जो जानिएगा भारतीय राष्ट्रीय वर्णमाला के दो नंबर पर आनेवाले वर्ण-परिवार के पहले सदस्य च के बारे में। चमत्कृत करनेवाले यह चमत्कारी वर्ण बड़ी चतुराई से लोगों को चुस्त और चालाक बना देता है। वो जिनके बारे में कहा गया है कि वे मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए हैं, दरअसल इसी वर्ण का कमाल है। यही कारण है कि चालाक व्यक्ति अगुआ बनने की बजाय चमचा बनना पसंद करते हैं। सब जानते हैं कि चतुर चमचे की चांदी ही चांदी है। चांदी की चमक के क्या कहने! आंखें चौंधिया जाती हैं। कोई चौतरफा फैली समृद्धि को, चहुंमुखी विकास को सोना ही सोना नहीं कहते, कहते हैं उसकी तो चांदी ही चांदी है। च के चौपाल में चांदनी चौक से ज्यादा चोर बाजार के चर्चे हैं। किसी को चर्चित करने में इसकी भूमिका है। उदाहरण के लिए एक चतुर्थ श्रेणी का पद है चौकीदार। कुछ वर्षों से यह पद चौकीदार बड़ा ही चर्चित हुआ है। किसी चमत्कार करनेवाले किसी चौपाल के चौधरी ने पहली लगान की वसूली में तो अपने को 'चौधरी की चौपाल का प्रधान सेवक' कहा। फिर दूसरी वसूली में वक़्त की नजाकत देखकर चालाकी से अपने को चौकीदार कह दिया। सेवक और चौकीदार चू

दर्पण

गीतकार साहित्यिक समूह में अतीव प्रशंसित गीत : ** सम्पूर्ण सृष्टि, दृष्टि का उन्नत-विकास है!! पर दर्पणों का, रूप-दर्प, चरण-दास है!! मन की अनंत गोपनीयता का मुख-पटल!! आंखों के भेद, भाव के प्रवाह में विफल!! दर्पण से गुप्त-वार्ता एकांत कक्ष में, सबके समक्ष खुलने को अत्यंत ही विकल!! दर्पण ही नमक-मिर्च है, दर्पण मिठास है!! सम्पूर्ण सृष्टि, दृष्टि का उन्नत-विकास है!! व्यक्तित्व के उतार चढ़ावों की गवाही!! सामर्थ्य की, नितांत अभावों की गवाही!! अपराध-बोध की, घुटन, अवसाद, शोक की, उल्लास की, उन्मत्त प्रभावों की गवाही!! दर्पण विवेक-रथ के सारथी की रास है!! सम्पूर्ण सृष्टि, दृष्टि का उन्नत-विकास है!! यह हाथ में कबीर के निर्मल-मना रहा!! तुलसी का मन-मुकुर निजी, लुभावना रहा!! अपना हृदय बना लिया मीरां ने आरसी, यह मीत सूरदास का मन-भावना रहा!! दर्पण व्यथा-कथा, प्रगीत, उपन्यास है! सम्पूर्ण सृष्टि, दृष्टि का उन्नत-विकास है!! * डॉ. रा. रामकुमार, 25.03.19, सोमवार, प्रातः 10 बजे.

दोहा पंचमी

* दोहरा चरित्र .. मुंह से थानेदार है, मन से चिल्हर-चोर!! आंखों से काजल चुरा, बना फिरे सिरमौर!! -- छद्म परिवर्तन .. नाम बदल कर हो गया, लखनऊ लक्ष्मण-धाम!! दिल्ली का भी शीघ्र ही, भला करेंगे राम!! -- ठगी छलावा .. काशी को क्वेटा करो, चलो बलूचिस्तान!! काबा हो कश्मीर फिर, भारत पाकिस्तान!! --- आधुनिक किंवदंती .. अगर बनारस में मरो, सीधे जाओ स्वर्ग!! जीते जी चोरी, ठगी, राज, भोग, संसर्ग!! -- वर्णमाला का व .. वाराणसी, वड़ोदरा, व्यंग्य, विकास, विलाप!! विश्व-गुरू, विष, वाण में, व वर्णी व्याघात!! * होली के संकेत हैं, सारे जलें विकार!! छल, प्रपंच, धोखाधड़ी, सत्ता-मद, व्यभिचार!! * डॉ. रामकुमार रामार्य, २०.०३.१९, फाल्गुनी पूर्णिमा, होलिका दहन, अपरान्ह 4.१०

डूब रहा बेड़ा विक्रांत!!

सम्भवतः बैठा है क्लांत, वातायन से कब झांकेगा, चिक-जीवी गौरव संभ्रांत!! आये गए कई आक्रांता बीहड़ कर स्वर्णिम उपवन!! बारहमासी हो हल्ले से पतझर हुआ मधुर मधुवन!! मरुथल में पथ ढूंढ रहा है हर सपना होकर उद्भ्रांत!! सीढ़ी चढ़ना भूल गयी है, ऊंच-नीच में कड़ियां हैं!! हार-जीत के वंश पूछतीं अब माला की लड़ियां हैं!! राजनीति में बहुत सुरक्षित अपराधी, दस्यु, दुर्दांत!! सबका अपना सत्य दिव्य है, नापतौल में मूल्य गिरे!! टूट-टूटकर बिखर रहे कण खंड-खंड पाखंड घिरे!! विश्ववाद के राष्ट्रवाद से अकुलाया मन है आक्रांत!! प्रहरी, गए प्रहर का डंडा नई भोर पर पटक रहा!! जगा रहा है लुटे पलों को अपना पल्ला झटक रहा!! अपनी-अपनी सभी सम्हालें डूब रहा बेड़ा विक्रांत!! * डॉ. रा. रामकुमार, १९.०३.१९, प्रातः १०.३०, मंगलवार,

एक नकटे की कथा :

पता नहीं क्यों याद आ रही है, #समय_जीमनेवाले_कथा_कहनकारों से बचपन में सुनी एक कथा। उसके याद आने का यही सही समय है या शायद ऐसा कुछ होनेवाला है जिसके कारण यह कथा याद आ रही है। मेरे साथ ऐसा कुछ होता है, जैसा उस लेखक के साथ होता था जिसके बारे में सुना है कि वह जो लिख देता था वैसा ही घटित होता था। कमर्शियल सिनेमा वालों और सोप-ओपेरावालों यानी सीरियल-चंदों ने इसी मसाले से कई सपने देखनेवाले पात्र गूंथें जिनके सपने सच हो जाते थे। सच और यथार्थ से भागनेवाले #शतुरमुर्गी_काहिलों का स्वाभाविक परिणाम सपना देखकर सुखी रहना हो जाता है। मनोवैज्ञानिकों ने भी स्वप्न मनोविज्ञान की इस अवचेतनावस्था का अच्छा विश्लेषण किया है। यही अवचेतन मन मुझमें भी बाई डिफॉल्ट आ गया है। मेरी प्रणाली भिन्न है। मुझे स्वप्न नहीं आते, मुझे #लगता है और जो मुझे लगता है, वह हो जाता है। मुझे लग रहा है कुछ होनेवाला है। क्या पता, जो कहानी मुझे याद आ रही है, वही सच हो जाये। एक था गांव। गांव का नाम था नाकवाला गांव। गांव के पास थी एक पहाड़ी। उस पहाड़ी पर एक साधु कहीं से आया। उसने पहाड़ी पर एक पेड़ के नीचे एक पत्थर को लाल कर दिया और

विश्व महिला दिवस पर विशेष

8 मार्च : विश्व महिला दिवस ** था' नीला* आसमां उसको गुलाबी** कर दिया तूने!! नदामत की फ़ज़ाओं को नवाबी कर दिया तूने!! उड़ानों को हवा दे दी, दिया मक़सद ज़माने को, ज़मीनी फितरतों को आफताबी कर दिया तूने!! *** @कुमार ज़ाहिद, 8.3.19, शुक्रवार, * +** ( 1900 के पूर्व तक पुरुषों के शौर्य और वीरता का प्रतीक बना गुलाबी रंग, 20 वी सदी के आरंभ से ही स्त्रियों की सहनशीलता, प्रेम और ऊर्जा का प्रतीक बन गया।) 00000 *नारी* जीवन है मरु-यात्रा, नारी मरु-उद्यान!! हर थकान की प्यास में, संशित सलिल समान!! संसृति का भूगोल है, वह खगोल, भू-गर्भ!! जीवन अगर प्रसंग है, नारी है संदर्भ!! गुणा, भाग, ऋण, धन सहित, नारी गणित अनंत!! बीज-गणित सी गूढ़ है, चकित स्वयं भगवंत!! शांत सरल-रेखा लगे, वक्र किन्तु व्यवहार!! ज्यामितीय नारी रखे, बहु-कोणी आधार!! नम्र-वचन, हर्षित वदन, नपी-तुली पद-चाप!! मित-भाषी नारी सुखद, बहु-भाषी है श्राप!! 0 डॉ. आर.रामकुमार, 8.3.19, शुक्रवार, 11.11 प्रातः Visit - http://drramkumarramarya.blogspot.com,

समाचार आजकल : समानांतर सेनाएं

मैं समाचार देख, सुन और पढ़ रहा हूं। जो बात मेरी तुच्छ बुद्धि को समझ में आ रही है वो यह है कि इस्लामाबाद जिस देश की राजधानी है वहां की दो समांतर राजकीय सेनाएं हैं। पाक की #शासकीय_सेना राज करती है और उन देशों से लड़ती है जो आतंकवादियों को आतंक करने पर ठोंकती है। दूसरी राजकीय सेना है #मुहम्मदी_सेना जिसे उर्दू ( अरबी/ फ़ारसी) में #जैशेमुहम्मद ( जैश = सेना, मुहम्मद = इस्लामी पैगम्बर) कहते हैं। जिस तरह के समाचार आ रहे हैं और पाकिस्तान सरकार जिस तरह से जैशेमुहम्मद के सदरेखास की रक्षा में मुस्तैद है, उससे मेरी मंद-बुद्धि को ऐसा क्यों लगता है कि सदरेखासेजैशेमुहम्मद हजरत मसूद अज़हर ही वास्तव में पड़ोसी देश की #पाकीज़ा_सरकार हैं। #यह_दुनियाकी पहली अद्भुत समानांतर सेना है जो किसी देश के सैन्य खर्चे पर चर्चे में रहती है। अन्य शब्दों में इसे "खुजली_सेना" भी कह सकते हैं जो शक्तिशाली राष्ट्रों को खुजाकर अपने "वतन, पाक वतन" को संतुष्टि पहुंचाती है। यह खुजली सेना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कार्य कर रही है, इस दृष्टि से यह भी समानांतर सेना नहीं है भी यह "देशी-सेना" से ज्यादा विशाल और

किस्तोंमें हार रहा है भारत!*

कश्मीर के अनंतनाग की बेटी महबूबा का बातचीत में भरोसा है। बातचीत के दोनों सिरों में अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और राजनीति है। बातचीत पर भरोसा भी राजनीति है। मेहबूबा को #भारत_मुक्त_कश्मीर चाहिए। भारत अपने स्वर्ग को कैसे छोड़ दे। 1971 की मुक्तिवाहिनी 2019 में काम आ सकती है क्या? भारत सुना है मज़बूत हाथों में है। पर सुनते हैं नाजायज़ हमलों में रोज हमारे जवान #मर रहे हैं।( शहीद तो वो तब कहलायेंगे जब मंत्रालय प्रमाणपत्र देगा।) पुलवामा में पाकिस्तान के हमलावर संगठन ने भारतीय केंद्रीय सुरक्षा बल के ड्यूटी पर लौटते हुए 45 जवानों को मार डाला। उसके *एक मरने के लिए तैयार बिजूका* तथा 200 किलो विस्फोटक का नुकसान हुआ। यह पाकिस्तान का  लक्ष्य था, वह बेहतर था, जीत गया। इस खुशी में उसने 5 जवानों का और खून पिया। भारत में देशभक्ति का नाटक तैयार हुआ। पाकिस्तान के अज्ञात स्थान पर *भारतीय हवाई सुरक्षा बल* का हमला हुआ। 2000 किलो विस्फोटक, 5 मिराज और सैकड़ों सिपाही झोंके गए। बिना सबूत और रिकॉर्ड के 300 आतंकी/मुजाहिदीन *(त्यागियों)* मारे गए। जिस मां ने 45 हत सैनिकों  में अपना एक बेटा खोया है  वह मांगती है कि जिस