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Showing posts from 2020

किसान की चिंता : करता है साहित्य

साहित्य ने की है किसान की चिंता यद्यपि तुलसीदास ने स्पष्ट रूप से आषाढ़ का नाम नहीं लिया, किन्तु उनके कथन से अनुमान लगाया जा सकता है कि वर्षा ऋतु के आगमन का अर्थ है वर्षागमन के पहले मास आषाढ़ के पहले दिन की गणना ... कह प्रभु सुनु सुग्रीव हरीसा। पुर न जाउँ दस चारि बरीसा।। गत ग्रीषम बरषा रितु आई । रहिहउँ निकट सैल पर छाई।। अंगद सहित करहु तुम्ह राजू। संतत हृदय धरेहु मम काजू।। जब सुग्रीव भवन फिरि आए। रामु प्रबरषन गिरि पर छाए।। राम सुग्रीव से कहते हैं कि ग्रीष्म ऋतु बीत चुकी है और वर्षा ऋतु आ गयी है। चूंकि मैं चौदह वर्ष के वनवास पर हूं अतः किसी नगर में नहीं रह सकता। तुम अंगद सहित राज करो। यह सुनकर सुग्रीव अपने भवन में चले गए और राम लक्ष्मण सहित वर्षण गिरि पर छा गए। यहीं राम ने पहला चातुर्मास (आषाढ़, सावन, भाद्र, क्वांर) किया। तुलसी लिखते हैं - फटिक सिला अति सुभ्र सुहाई। सुख आसीन तहाँ द्वौ भाई।। कहत अनुज सन कथा अनेका। भगति बिरति नृपनीति बिबेका। यहां विशेष रूप से देखने की बात यह है कि राम अपने अनुज लक्षमन के साथ 'अनेक भक्ति, विरक्ति, नृपनीति और विवेक की कथाएं' करते हुए वर्ष

हट्टा की रहस्यमय बावड़ी :

  हट्टा की रहस्यमय बावड़ी :  सैनिकों की छावनी या रानी की नहानी  मध्यप्रदेश के दक्षिणी छोर का अंतिम ज़िला है बालाघाट। बालाघाट के साथ कुछ प्राकृतिक और भौगोलिक संयोग जुड़े हुए हैं। सिवनी ज़िला से निकली वैनगंगा नदी से घिरा 'ज़िला-मुख्यालय' 'बालाघाट-नगर' जैसे इस नदी का 'एक घाट' ही है। किंतु यह 'वैनगंगा-घाट' नहीं बल्कि 'बालाघाट' है। बालाघाट जनगणना की दृष्टि से 'स्त्री-बहुल' ज़िला है। 'बाला' का एक अर्थ कन्या या लड़की होता है। क्या इसलिए इसका नाम बालाघाट पड़ा? इस बात का संकेत करता, बालाघाट के मुख्यमार्ग पर, नगर के बीच, एक चौराहा है। इस चौराहे के बीच फ़व्वारा है और उस फ़व्वारे के नीचे एक 'पनिहारिन' या 'बाला' घड़ा लिए बैठी है। शायद इस मूर्ति को बनानेवालों ने बालाघाट को यही अर्थ देने का प्रयास किया है। चूंकि यह मूर्ति या पुतली काले रंग से पोती गयी है, इसलिए इस चौक का नाम हो गया 'काली पुतली चौक'। काले रंग का भी रहस्य या निहितार्थ है। पुतली पर निरंतर पानी पड़ेगा और काई जमेगी। पुतली काली होगी। तो दूर-दृष्टि-सम्पन्न पालिक

शानदार अदाकारा शौक़त क़ैफ़ी आज़मी

*पुण्यतिथि (२२ नवंबर) पर विशेष :  @ ज़ाहिद ख़ान कैफी आजमी ने जब ‘उमराव जान’ फिल्म देखी, तो उन्होंने कॉस्ट्यूम डिजाइनर सुभाषिणी अली को अपना रद्दे अमल देते हुए कहा,‘‘शौकत ने खानम के रोल में जिस तरह हकीकत का रंग भरा है,अगर शादी से पहले मैंने इनकी अदाकारी का यह अंदाज देखा होता,तो इनका शजरा(वंशावली) मंगवाकर देखता कि आखिर सिलसिला क्या है !’’डायरेक्टर मुजफ्फर अली की फिल्म ‘उमराव जान’ में शौकत कैफी ने ‘खानम’ के किरदार में वाकई कमाल कर दिखाया था। * फिल्म में दीगर अदाकारों के साथ-साथ उनकी अदाकारी भी लाजवाब है। निर्देशक मीरा नार की ‘सलाम बाम्बे’ एक और ऐसी फिल्म है, जिसमें शौकत कैफी की अदाकारी के दुनिया भर में चर्चे हुए। ‘घर वाली’ के रोल की तैयारी के लिए वे बकायदा तवायफों के बदनाम इलाके कमाटीपुरा गईं। जहां उन्होंने वेश्याओं की जिंदगी का करीब से अध्ययन किया। जब वे शूटिंग के लिए गईं, तो उनकी अदाकारी को देखकर निर्देशक के साथ साथी कलाकार भी चौंक गए। फिल्म व्यावसायिक तौर पर काफी कामयाब हुई और अमेरिका के न्यूयार्क जैसे शहर में इसने सिल्वर जुबली मनाई।  ** ‘हकीकत’, ‘हीर रॉंझा’, ‘लोफर’ आदि फिल्मों में शौकत क

मुक्तिबोध और भूलन-बाग़

मुक्तिबोध और भूलन-बाग़ : अर्थात् किंवदंती, रहस्य, तथ्य और राजनांदगांव           मुक्तिबोध की लंबी और प्रसिद्ध कविता है 'अंधेरे में'। यह कविता 8 अनुच्छेदों या भागों में है। मुक्तिबोध ने जिस घर में यह कविता लिखी वह आज वह सज संवरकर त्रिवेणी धरोहर के रूप में दमक रहा है। किंतु वह मुक्तिबोध को कितना उद्वेलित करता था, इस 'अंधेरे में' कविता के प्रथम भाग के इस अंश में बोल रहा है.. ० ज़िन्दगी के... कमरों में अँधेरा लगाता है चक्कर कोई एक लगातार; आवाज़ पैरों की देती है सुनाई बार-बार....बार-बार, वह नहीं दीखता... नहीं ही दीखता, किन्तु वह रहा घूम तिलस्मी खोह में ग़िरफ्तार कोई एक, भीत-पार आती हुई पास से, गहन रहस्यमय अन्धकार ध्वनि-सा अस्तित्व जनाता अनिवार कोई एक, और मेरे हृदय की धक्-धक् पूछती है--वह कौन? ०        उसी महल का दूसरा हिस्सा है 'भूलनबाग़'. यानी भूलन बूटी का उद्यान। अब आप पूछेंगे- 'भूलन-बूटी' क्या?         'संजीविनी-बूटी' तो सुनी होगी? जिसको सुंघाकर सुषेण ने मूर्छित लक्ष्मण को संजीवित किया था। पुराणकाल में जो युद्ध हुए उसमें घायल योद्ध

ग़ज़ल

 ग़ज़ल  लगावटों में खलल पड़े क्यों ख़ामोशियों से दुआ करेंगे हमें मिली है वफ़ा की दौलत उसी के दम पर जिया करेंगे हमारे दिल में है अम्न ओ ईमां हंसी खुशी से रहा करेंगे जो खेलते हैं मिसाइलों से उन्हें नहीं रहनुमा करेंगे अदब की पाकीज़गी पै हमको भरोसा है वह सदा रहेगा  जमात मजहब की तंग फ़र्ज़ी बुराइयों से बचा करेंगे हैं रास्ते ज़िन्दगी के टेढ़े सम्हल सम्हलकर चला करेंगे जमीन से जब जुड़े हैं हम तो गिरा करेंगे उठा करेंगे गुज़ारिशोइल्तज़ा इनायत की जब नज़र से न देखी जाएं तो इंकलाबोबगावतों को मिलेगा मौक़ा वग़ा करेंगे तुम्हारे दस्ते हिना के आगे बहार क्या है गुलिस्तां क्या है कि नफ़्ज़ो जां खुश फ़िजां करेंगे कि ज़िन्दगी खुशनुमा करेंगे सभी यही चाहते हैं 'ज़ाहिद' सलीब चढ़कर बनें मसीहा ज़रा ये उनसे भी पूछ देखो किसे-किसे वो मना करेंगे  @कुमार ज़ाहिद, २६.१०.२०२०, १२-३.३०.१०.२०३०

बह्र पर बहस -१

बहर दी गयी... बहरेरजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला√ मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन 1212 212 122 / /1212 212 122  0 एक साहब ने इस पर प्रतिवाद किया .. ०  ये बह्र रजज़ नहीं है । बहरे रजज़ की मूल अरकान  मुसतफ़इलुन (2212) चार बार हर मिसरे में आती है # ये बहरे मुतक़ारिब है √ बहरे मुतक़ारिब मक़बूज़ असलम सौलह रुकनी  अरकान 121,22,121,22121,22,121,22√ फ़ऊल -फ़ेलुन -फ़ऊल-फ़ेलुन -फ़ऊल-फ़ेलुन -फ़ऊल-फ़ेलुन । हर मिसरे में 8 बार  दोनों मिसरों में 16 बार ।  (अशोक गोयल)} ० ये नाम पढ़ा मैंने इस बहर का बहर-ए-रजज़ मुसम्मन मख़्बून मुरफ़्फ़ल  मफ़ाइलातुन----मफ़ाइलातुन---मफ़ाइलातुन---मफ़ाइलातुन  12122---------12122-------12122---------12122 (मीरा मनजीत) 0 (अशोक गोयल) मोहतरमा बहरे वाफ़िर ये है  अरकान  मुफ़ा इल तुन ,मुफ़ाइलतुन ,मुफ़ाइलतुन, मुफ़ाइलतुन  12112-12112-12112-12112  इस बह्र में उर्दू में शायद ही किसी ने ग़ज़ल कही हों । #### तमाम उर्दू शायरी में सिवा एक शेर के कहीं कुछ नहीं मिलता । ####### वो शेर हस्बे ज़ैल है ।ये शेर  जनाब तालिब लखनवी मरहूम का है । ****** डरा के कहा भला बे भला ,ख़फ़ा जो हुआ ज़रा वो सनम । मिरा भी ज़रा गिला

ग़ज़ल : रंज़ो' ग़म जुल्मो क़हर...

2122 2122 112/22 रंज़ो' ग़म जुल्मो क़हर भूल गए। जब से छोड़ा है शहर, भूल गए। छोड़कर तेरी जो' बस्ती निकले, जाने' क्यों अपना भी' घर भूल गए। कैसा' सहरा है ये' ताहद्दे'नज़र, हम उमीदों का सफ़र भूल गए। हर जगह आके हमें लगता है, हम कहीं अपनी डगर भूल गए। कौन बतलाए कहां जाना है, लोग जाना है किधर भूल गए। @कुमार, ०९.०९.२०२०

मुकरियाँ : हिंदी पर विशेष

 हिंदी के उद्गाता कवि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ससम्मान कहा है- निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को शूल। हिंदी और हिंदुस्तान की स्वतंत्रता के लिए उन्होंने खड़ी बोली हिंदी को जन जन की भाषा और बोली बनाने के लिए गद्य और पद्य में नए नए औजारों का उपयोग करते हुए आजीवन संघर्ष किया। ऐसे देश और भाषा की स्वतंत्रता के शब्द-सेनानी ने खुसरो की खुखरी 'मुकरी विधा' का भी भरपूर उपयोग किया। उसी 'मुकरी विधा' में हिंदी के सम्मान में पांच मुकरियाँ प्रस्तुत हैं: मुकरियाँ १. अपने गैर सभी से मिलती वह सबके होंठों पर खिलती बात किया करती है दिल की रेशम पहने चाहे चिन्दी क्या अभिनेत्री? न भई हिंदी। २. सबसे उसका लेना-देना जनता हो या चाहे सेना बहरा, अंधा, लँगड़ा, केना, गुजराती हो या फिर सिंधी क्या व्यापारी, न भई हिंदी। ३. मुंह लगती है, गले लिपटती। आगे पीछे रहे झमकती। मेरे सुख  दुःख ख़ूब समझती। उस पर कोई नहीं पाबंदी - क्यों भई पत्नी, न भई हिंदी। ४. खुश होकर गाना गाती है पीड़ा खुलकर बतलाती है साफ समझ में आ जाती है मन में रखे न कोई ग्रंथ

हिमाद्रि उर्फ़ पंच-चामर छन्द के छः पंच

सुलक्ष्यवान की अलक्ष्य साधना मनुष्य में निजत्व की सदा रहे गवेषणा। सदाम काम नाम की अदृश्य दृश्य एषणा। अवृत्ति-वृत्ति की प्रवृत्ति प्राण में बसी रहे।  सुमिष्ट-तिक्त स्वाद-भोग में सदा रसी रहे।  यहां वहां जहां तहां कहां कहां पुकारता। जमीन आसमान में, समुद्र में निहारता।  मिले अयत्न चाह यह सदैव व्यक्ति चाहता। अशेष स्नेह से भरा हृदय, अशुष्य स्निग्धता। विनम्रता, सहिष्णुता, सुग्राह्यता, उदारता। मिले सदा, मिले नहीं कभी कुटिल मदांधता। मरुप्रदेश में ममत्व कुंज मैं तलाशता। पहुँच गया वहां जहां वितृष्ण थी विलासिता। सहज, सलज, सरल, अमल मनुष्य; मूल्यहीन है। प्रवंचकों के विश्व में छली-बली प्रवीण है।  जगत अतीत वर्तमान में भविष्य देखता। अनूप, दिव्य, भव्य, नव्य प्राप्य में विशेषता। सुसंगठित वही जिन्हें पता है लाभ हानि का। विकास ह्रास त्रास का विनाश क्षोभ ग्लानि का।  सतत सुदृढ़ प्रतिज्ञ को, थकान क्या, विराम क्या। स्वयं गिरे उठे चले, सहायकों का काम क्या। अतः अभय अशंक आत्म आधरित बने चलो। अशक्त भाव की समस्त क्षीणता हने चलो। सुलक्ष्यवान की अलक्ष्य साधना सुगम रहे। अदाम नाम-कामना-विरक्तता में रम रहे। @कुमार,  १७,१८

इसीलिए अकेला रह गया मैं

इसीलिए अकेला रह गया मैं 0 वह व्यक्ति मिलना चाहता है मुझसे देख रहा है मेरी तरफ किसी जिज्ञासा या कौतूहल से पहचानने की छटपटाहट में मुस्कुरा भी नहीं पा रहा कोई अभिलाषा उसके होंठ चबा रही है कोई बस इतना बस इतना सा मेरी उंगली और अंगूठे को देखो कितनी ज़रा सी जगह छोड़ी है अगूंठे ने उंगली पर बस इत्ता सा सोच भी ले कोई कि मिलना है मुझसे उसके मनस तंत्र के रसायन शास्त्र को उसकी आँखों में पढ़कर मैं भौतिकशास्त्र के चुम्बकत्व में बंधा बढ़कर मिल ही लेता हूँ मिलने में क्या जाता है बल्कि कुछ मिल ही जाता है जैसे न्यूटन को बल का सिद्धांत जैसे आर्कमिडीज को आपेक्षिक घनत्व मिलने में होता ही क्या है कुछ मिलता नहीं तो कुछ खोता भी नहीं सिर्फ थोड़ी सी अपेक्षा दरकती है कभी कभी एक बात मानकर चलो मन के सिक्के के दो पहलू हैं अपेक्षा और उपेक्षा मिलोगे किसी से तो सिक्का उछलेगा और गिरेगा तुम्हारी ही हथेली पर कोई एक ही पहलू आएगा एक बार और तुम को करना होगा स्वीकार आत्मसंघर्ष का यही निचोड़ लेकर चल पड़ता हूं मैं हर बार दुनिया बहुत बड़ी है क्योंकि तुम सब से मिल नहीं सकते सब से मिल लोगे

पेट के भूगोल पर आकाश छूते बुत (ग़ज़ल)

 वज़्न : 2122 2122 2122 212 काफ़िया : अर रदीफ़ : न बन * रहगुज़र उलझी हुई हैं बेसबब रहबर न बन। इन पहाड़ों पर बहुत पत्थर हैं' तू पत्थर न बन। क्यों महज लटका हुआ फानूस बन छत पर रहे रोशनी जब कर नहीं सकता तो फिर अख़्तर न बन। ईंट सोने की बने बुनियाद मंदिर की तो' फिर, उस नुमाइशगाह की दीवार का गौहर न बन। पेट के भूगोल पर आकाश छूते बुत खड़े, भूलकर भी इनके आगे जो झुके वो सर न बन। नफ़रतों की, ख़ून की तारीख़ की तहरीर का, पीढ़ियों की बेबसी का, बदनुमा आखर न बन। सैंकड़ों मायूस मीलें रौंद घर आया मगर, मौत के सन्नाटे की बस्ती में मुर्दाघर न बन। क्यों दवाख़ाने यकायक आग में जलने लगे, ये बिमारी भी है शैतानी तू चारागर न बन। @कुमार ज़ाहिद, ०९.०८.२०२०, प्रातः ०९.३०

नवगीत : #बस_कुछ_दिन_तक

#बस_कुछ_दिन_तक बस कुछ दिन तक  याद बने फिर 'कोई था' में निपट गए।  मैदानों में जंगल जैसे परम स्वतंत्र पेड़ होते थे। बचकाने दिन उनमें चढ़कर कूद-कूद खाते गोते थे। कहां गये वो खुले खेल-घर रिश्तों जैसे सिमट गए। हम ही थे जिनकी बल्ली पर धुले पलों ने धूपें सेंकीं। लक्ष्य साधकर घुमा गोंफने टिड्डी-दल पर गुटियाँ फेंकीं। वो हम ही थे  जिनसे बेखटक बच्चे-बूढ़े लिपट गए। जब बीती बातें चलती हैं 'हम थे' याद दिलाना पड़ता। पहचानों के पड़-पोतों को खींच-खींच दुलराना पड़ता। उम्र दौड़कर  जब निकली हम लदबद्दू से घिसट गए। @कुमार, ०७.०८.२०२०

ग़ज़ल : खुशबू के बहाने

 वज़्न : 2122 2122 2122 212 अरकान : फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन ख़्वाब टूटे, सामने लँगड़ी गृहस्थी आ गयी। हाथ में सामान की बदहाल पर्ची आ गयी। बाग़ से गुज़रे तो ख़ुशबू के बहाने रुक गए, पर तभी चूल्हे की उड़कर राख ठंडी आ गयी।  शह्र के दंगे फ़सादों को न लेकर घर गए, पर न जाने किस तरह घर में उदासी आ गयी। फिर हमारे नाम पर उठने लगे तीखे सवाल् फिर हमारे लब पै शायद बात सच्ची आ गयी। मैं मुकर जाता सियासतदान हो जाता अगर, क्या करूँ, आंखों के' आगे जलती' बस्ती आ गयी।  @कुमार,

नवगीत : फल-स्वरूप परिणाम

फल-स्वरूप परिणाम * भारी होने लगी आजकल, दिल पर, हल्की सांस। व्याकुलता के व्यग्र गिद्ध से बचा न मन का भेद। गहन टीस के तीक्ष्ण दांत भी अधर गए हैं छेद। गहराई में कुंडली मारे बैठा है संत्रास। फल-स्वरूप परिणामों का है निर्दय-निर्मम दंड। अनहोनी की छैनी करती हृदय-पिंड के खंड। न्यायालय आते-जाते ही मरते सभी प्रयास। हम विकास की सुनते-सुनते गठिया-ग्रस्त हुए। कड़वे काढ़े पी-पीकर भी केवल त्रस्त हुए। ऊपर से दो चार सुनाकर जाती शरद बतास। नीबू, इमली, आम, अमाड़ी, हमें चिढ़ाते हैं। कभी कबीट-करौंदे मिलकर खूब खिझाते हैं। चटनी के चटखारे लेकर चहके बहुत खटास। @ डॉ. रामकुमार रामरिया, २२.०७.२०२०, १.२०, अपरान्ह,

किसलिए किसके लिए (गज़ल)

2122 2122 1212 22 गर्दिशों में भी रखा रोज़ जा रहा बाहर। किसलिए किसके लिए ये दिया रहा बाहर। बाढ़, बीमारी, महामारियां घुसीं भीतर, आदमी जाता कहां खुद खड़ा रहा बाहर। तेल को मुँह मेँ भरे है, मशाल फूंके है, आग अन्दर है मगर वो बुझा रहा बाहर। दिल की दौलत है निगाहों को सजाने आई, अश्क की शक्ल में नादां बहा रहा बाहर। सिफ्र से ज्यादा ज़िह्न में नहीं बचा कुछ भी, सिरफिरा है जो बहुत कुछ बता रहा बाहर। @कुमार ज़ाहिद, २३,०७,२०२० बालाघाट,9893993403

ग़ज़ल

ग़ज़ल काफिया  : इये रदीफ़      : जा रहे हैं। अरकान   : 122 122 122 122 अजब जिल्दसाजी किये जा रहे हैं किताबों से अब हासिये जा रहे हैं। दिए जा रहे हैं ज़हर पर ज़हर वो इधर हम मज़े से पिये जा रहे हैं। हुए जा रहे हैं वो महरूम हमसे हमीं हैं तवज्जो दिए जा रहे हैं। हमारे सभी फैसले कल पे टाले मगर हम भरोसा किये जा रहे हैं। न सांसें न धड़कन न मौसम हमारा मगर हम भी हम हैं जिये जा रहे हैं। दिए जा रहे हैं वो इल्जाम सौ सौ बड़े शौक से हम लिए जा रहे हैं। सदाकत हमारा है ईमान ज़ाहिद फटे लाख लेकिन सिए जा रहे हैं। @कुमार ज़ाहिद, 20072020

आषाढ़ का पहला दिन-2

आषाढ़ का पहला दिन-2 (गतांक से आगे) यहां विशेष रूप से देखने की बात यह है कि राम अपने अनुज लक्षषम के साथ 'अनेक भक्ति, विरक्ति, नृपनीति और विवेक की कथाएं' करते हुए वर्षावास अथवा चातुर्मास में भी पूर्णतः राग विरक्त नहीं हो पाए।अगले क्षण जब 'आषाढ़ के मेघ' को तुलसीदास राम के मुख से 'बरषा काल मेघ नभ छाए' कहलवाते हैं, तब अपनी मर्यादा का महिमामंडन करते हुए विरही राम कहते हैं, "यद्यपि वर्षा काल के मेघ को देखकर मेरे मन में अत्यंत हर्ष हो रहा है। अनुज लक्ष्मण! बादलों को देखकर मेरे मन का मोर नाच रहा है किंतु इस गृहस्थ के विरति-युक्त हर्ष को विष्णु के भक्त की भांति देख। किन्तु, इसके बाद ही राम के मुंह से ऐसी बात निकल जाती है जिसको लेकर आज तक 'भौतिकवादी या यथार्थवादी विद्वान' राम के मर्यादा पुरुषोत्तम की उपाधि पर प्रश्न उठाते रहते हैं। वह विवादस्प्रद पंक्ति है : घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा।। तदन्तर तुलसीदासजी अनेक उपमा-उपमानों के माध्यम से नीति और रीति के साथ-साथ भारतीय दर्शन का ऐसा इंद्रधनुष बनाते हैं जिसके सौंदर्य में 'प्रिया-हीन

आषाढ़ का पहला दिन -1

आषाढ़ का पहला दिन -1 जीवन की आपाधापी, रोज़मर्रा की भागदौड़ और सुविधाओं की बाधादौड़ में मनुष्य तिथियों-तारीख़ों को याद करने के लिए भी मोबाइल का स्क्रीन ऑन करता है। गनीमत है कि स्मार्ट फोन के चेहरे पर मुस्कान की तरह तारीख़, समय, दिन आदि ज़रूरत की बातें पुती हुई होती हैं। इस तरह मोबाइल हमारी दैनंदिन जीवन की श्वांस प्रश्वांस बन गया है। किंतु इस पर भी हम भी हम ही हैं। अपनी ट्रस्ट व्यस्तताओं के चलते हम इसी मोबाइल को कहीं रखकर भूल जाते हैं। भूल जाने के उस क्षण में हमारी हालत देखने लायक होती है... बेचैन, बदहवास, लुटे पीते, असहाय, निरुपाय, निराधार, उन्मत्त, आवेशित, आक्रोशित और उद्वेलित यहां से वहां चकराते रहते हैं। हमारी चिड़चिड़ाहट उन पर उतरती है जो हमारे अभिन्न और अधीन सहायक होते हैं। अजब दृश्य होता है कि विस्मृतियों का सारा ठीकरा स्मृतियों पर टूटता है। क्या वास्तव में हमारी अपनी अस्त-व्यस्त स्मृतियों के लिए दूसरे ही जिम्मेदार हैं? क्या हो गया है हमें? हम दौड़ते-हांफते कहां आ गए हैं? मोबाइल को दुनिया का सच्चा और एकमात्र मार्गदर्शक मानकर हम उसी में सिमटकर रह गए हैं। हम अपनी सारी जानकारियां, सारे रहस

चौदह_बरस_में

मेरा_पहला_आहत_हाइकु : चौदह_बरस_में (14 अगस्त 2004) ०० धनजंय चटर्जी वह राक्षस था जिसे 14 अगस्‍त 2004 में रेप और हत्‍या के केस में फांसी पर लटकाया गया था। चटर्जी एक सोसाइटी में गॉर्ड (रखवाला) था। उसने  5 मार्च 1990 को सोसाइटी की स्‍कूल जाने वाली 14 साल की बच्‍ची हेतल पारीख का पहले रेप किया और फिर उसकी हत्‍या कर दी थी। 14 साल तक जेल की सजा काटने के बाद उसे फांसी पर लटकाया गया। अलीपुर सेंट्रल जेल में 14 अगस्त 2004 में धनंजय चटर्जी को फांसी दी गई थी। कितनी अद्भुत बात है कि जिस धनंजय चटर्जी को 14 अगस्त 2004 को फांसी हुई उसका जन्म भी 14 अगस्त 1965 को हुआ था। उसने 14 वर्ष की नाबालिग लड़की से ब्लात्कार किया, 14 साल मुकदमा चला और अंततः उसे 14 तारीख को ही फांसी हुई।  इस 14 के आंकड़ों को,  14 अगस्त 2004 को ही, एक विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में पुनश्चर्या कार्यक्रम के दौरान समाचार सुनने के बाद मैने निम्नलिखित हाइकू में बांधने का प्रयास किया, देखिये... हाइकू : #चौदह_बरस 5 7 5 मार डालेगी चौदह बरस में मरी लड़की १४.०७.२०२० किन्तु धनंजय की फांसी के बाद भी नाबालिग कन्याओं के साथ बलात

जन्म दिन की शुभ-कामनाएं अर्थात अनुभूतियों के अनिरुद्ध रिश्ते

अर्धांगिनी का जन्म-दिन अर्थात्  विशुद्ध अनुभूतियों के अनिरुद्ध रिश्ते 1. एक वैसा हो ही जाता था मैं दरवाजा खोलता तो सामने के दरवाजे पर एक 'कोई नहीं सी' मुस्कान 'हेलो' बोलती थी। आज वह जा रही है 'न उसकी न मेरी' जगह से अपना सारा सामान समेटकर किसी और जगह किसी और की जगह पर फिर किसी 'कोई नहीं से' दरवाज़े पर उसकी जीवंत मुस्कुराहट खड़ी मिलेगी किसी और को एक 'कुछ नहीं' होने के 'कुछ नहीं युहीं से' दस्तक की तरह। उसका होना भी एक अनहोनी थी कुछ न होते हुए भी कुछ न करते हुए भी काम आने की बिना किसी सम्भावना की तरह आने-जाने की औपचारिकताओं से दूर एक अपरिचित चेहरे के एक चिरपरिचित अपनापे की तरह भावुक रस्साकसी से विरक्त अनुभूतियों के अनिरुद्ध रिश्ते की तरह तुलित, संतुलित और सतत संचरित। 2. दो नींद, सपने और मैं- अचेत की अचिंतित गहराइयों में डूबे किसी अज्ञात पहेली को सुलझा रहे थे एक तरह से ढाक के तीन पत्ते होकर एक दूसरे को बहला-फुसला रहे थे तभी...कहीं दूर... चर्च का घड़ियाल बजा.... टिंग टांग .. टिंग टांग... सगुन-असगुन की आशं

कैशलेसनेस

कैशलेसनेस : आज सारे ATM घूम  डाले -- धैर्य के साथ स्कूटर को पैट्रोललेस कर दिया---तब भी नतीज़ा सिफर-- सारे ATM यही कहते रहे "कोई दूसरा देखिये---यह 'कैश लेस' है।" कैश लेस शहर ही नहीं, पूरा देश है। बैंक को करोडों हज़ार का चूना लगाकर विदेश चम्पत होनेवाले दोनों ठगों को देश वापस लाने की खबर से क्या उम्मीद की जा सकती है? ATM में कैश आ जायेगा? हम मध्यम वर्गीय लोगों का जो पैसा वो अय्याशियों में उड़ा चुके हैं, बैंक को वापस मिल जायेंगे? चिल्ल्हर जमा करने के नाम पर बैंक हम लोगों से माल्या-मोदी के उड़ाये पैसे वसूल रही है, क्या यह वसूली बंद हो जायेगी? लुटेरों की भगिनी वसूली-वाहिनियां हमला बोल रही हैं, वह कम हो जायेगा? देश के वो लोग जिन्होंने मुगलों और अंग्रेज़ों की इकतरफ तानाशाही और तुगलकी फरमानों को नहीं भोगा, वे उस युग की झलक देख पाने का सौभाग्य भुगत रहे हैं। सोच रहा हूं, चेकबुक जो बैंक से मिली है, बीसेक हज़ार निकालने का विद्रोह कर डालता हूं!! विद्रोह इस बात का कि कैशलेस होना देश के विकास का नारा। चेक लेकर कैश लेने गया तो विकास बब्बा के दो दांत टूटेंगे!! एक पेपर लेस रहने वाला, दू