मित्रता के हमें पर्व पर गर्व है,
हम सुदामा हैं, कान्हा से मिल आएंगे।
यह धरा उर्वरा है, उगाओ अगर,
प्रेम के पुष्प, पतझर में खिल जाएंगे।
त्रास के ग्रास पर दिन गुजारे, सही,
इन अभावों से भावों का अर्जन किया।
हम व्यथित थे, व्यवस्थित हुए दिन ब दिन,
कष्ट के पृष्ठ पर सुख का सर्जन किया।
हमने बंजर की छाती पे सावन लिखे,
एक दिन इनमें आशा के फल आएंगे।
यह धरा उर्वरा है, उगाओ अगर,
प्रेम के फूल, पतझर में खिल जाएंगे।
भर के भावों की कांवड़ चली आस्था,
वेदना के मरुस्थल का दिल सींचने।
सूखकर सारे सागर कुएं हो गए,
उनके अंदर से विस्तार फिर खींचने।
हैं विषमता के पर्वत खड़े मार्ग में,
हम जो मिलकर चलेंगे, वो हिल जाएंगे।
यह धरा उर्वरा है, उगाओ अगर,
प्रेम के फूल, पतझर में खिल जाएंगे।
भाइयों और बहनों! ज़रा सोचिए,
आज भी व्याख्यानों का प्रारंभ तुम।
श्रावणी पूर्णिमा का हो विश्वास तुम,
हर सुरक्षा के ग्रंथों का आरम्भ तुम।
तुमको छूकर बहारें महक जाएंगी,
तुमसे टकराके दुर्दिन ही छिल जाएंगे।
यह धरा उर्वरा है, उगाओ अगर,
प्रेम के फूल, पतझर में खिल जाएंगे।
आओ, सद्भावना पर किताबें लिखें,
एक अक्षर न जिसमें घृणा का रहे।
भेदभावों भरा न कोई पृष्ठ हो,
भूख गायब रहे, तृप्त तृष्णा रहे।
स्वप्न हर आंख का यदि हिमालय बने,
स्वर्ग के रथ यहीं आ के ढिल जाएंगे।
यह धरा उर्वरा है, उगाओ अगर,
प्रेम के फूल, पतझर में खिल जाएंगे।
***
@ कुमार,
रविवार,
४.८.१९
१.५० अपरान्ह
हम सुदामा हैं, कान्हा से मिल आएंगे।
यह धरा उर्वरा है, उगाओ अगर,
प्रेम के पुष्प, पतझर में खिल जाएंगे।
त्रास के ग्रास पर दिन गुजारे, सही,
इन अभावों से भावों का अर्जन किया।
हम व्यथित थे, व्यवस्थित हुए दिन ब दिन,
कष्ट के पृष्ठ पर सुख का सर्जन किया।
हमने बंजर की छाती पे सावन लिखे,
एक दिन इनमें आशा के फल आएंगे।
यह धरा उर्वरा है, उगाओ अगर,
प्रेम के फूल, पतझर में खिल जाएंगे।
भर के भावों की कांवड़ चली आस्था,
वेदना के मरुस्थल का दिल सींचने।
सूखकर सारे सागर कुएं हो गए,
उनके अंदर से विस्तार फिर खींचने।
हैं विषमता के पर्वत खड़े मार्ग में,
हम जो मिलकर चलेंगे, वो हिल जाएंगे।
यह धरा उर्वरा है, उगाओ अगर,
प्रेम के फूल, पतझर में खिल जाएंगे।
भाइयों और बहनों! ज़रा सोचिए,
आज भी व्याख्यानों का प्रारंभ तुम।
श्रावणी पूर्णिमा का हो विश्वास तुम,
हर सुरक्षा के ग्रंथों का आरम्भ तुम।
तुमको छूकर बहारें महक जाएंगी,
तुमसे टकराके दुर्दिन ही छिल जाएंगे।
यह धरा उर्वरा है, उगाओ अगर,
प्रेम के फूल, पतझर में खिल जाएंगे।
आओ, सद्भावना पर किताबें लिखें,
एक अक्षर न जिसमें घृणा का रहे।
भेदभावों भरा न कोई पृष्ठ हो,
भूख गायब रहे, तृप्त तृष्णा रहे।
स्वप्न हर आंख का यदि हिमालय बने,
स्वर्ग के रथ यहीं आ के ढिल जाएंगे।
यह धरा उर्वरा है, उगाओ अगर,
प्रेम के फूल, पतझर में खिल जाएंगे।
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@ कुमार,
रविवार,
४.८.१९
१.५० अपरान्ह
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