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Showing posts from April, 2014

टोपी :

 राजनीति का मुहावरा या मुहावरे की राजनीति? बनारस में भगवा टोपी पहननेवालों से पत्रकार ने ये पूछकर कि क्या ‘आपके’ सबसे प्रबल शत्रु की टोपी की नकल करते हुए अपनी टोपी पहनी है?’ टोपी को पुनः चर्चित कर दिया है।। भगवा कार्यकत्र्ताओं ने जो उत्तर दिया वह बड़ा अटपटा था। उन्होंने अपने वर्तमान शत्रु या प्रतिद्वंद्वी का श्रेय खारिज करते हुए अपने दूसरे ‘ऐतिहासिक शत्रुया प्रतिद्वंद्वी की देन उसे बताया। ‘राष्ट्रपिता’ के रूप में ख्यात गांधी के नाम से ‘एक टोपी’ सत्तर अस्सी के दशक में लोकप्रिय थी, जो  उनके पुरानी विचारधारा वाले प्रायः वयोवृद्ध अनुयायियों ने याद रखा किन्तु नयी लहर के अनुयायियों ने उपेक्षित कर दिया। आप और बाप के बीच का यह द्वंद्व एक को अस्वीकार करने और दूसरे की लोकप्रियता का लाभ लेने का उपक्रम लगता है। मगर यह भी लगता है कि कार्यकर्ताओं को टोपी के इतिहास का पता नहीं है। उनके प्रायोजित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को भी इतिहास का कहां पता है? बिहार में विश्वविद्यापीठ आदि अनेक विषयों में इतिहासविषयक भूलें की हैं, अज्ञानता जाहिर की है। उनके समर्थित दलों और संगठनों में टोपियां ‘दिल्

किन्नर

बात कोई साल भर पहले की है। मैं शाम की गाड़ी से नैनपुर से बालाघाट लौट रहा हूं। जंगल की रमणीय वादियों का लुत्फ़ लेता हुआ मैं इस कदर खुश हूं जैसे हवाएं अपनी नरम और ठण्डी हथेलियों से मेरा दुलार कर रहीं हों। नगरवाड़ा से नैरोगेज पैसेन्जर आगे बढ़ी। मैंने देखा कि डिब्बे में एक किन्नर चढ़ गया है। उसकी उम्र कोई बीस पच्चीस की होगी। पुता हुआ चेहरा, लिपस्टिक और मुड़े निचुड़े से सलवार कुर्तें में उसने अपने को आकर्षक बनाने का भरपूर प्रयास किया है। स्लिम होने से इस प्रयास में वह काफ़ी हद तक सफल भी है। उसने अपने बाल संवारे और अपने बाएं हाथ की उंगलियों में दस दस कि नोट फंसाकर प्रति व्यक्ति दस के हिसाब से वसूली करने लगा। यहां मुझे गरम हवा का पहला झौंका लगा। अक्सर किन्नर किसी त्यौहार के बाद साल में एक दो बार घर घर उगाही, जिसे सांस्कृतिक तौर पर बिरत कहते हैं, में निकलते हैं। किन्तु पिछले अनेक सालों से ब्राडगेज में पैसों की वसूली का यह जबरिया खेल शुरू हो गया था। हफ्ता वसूली पहले ठेकेदारों के नाम पर हुआ। फिर ठेकेदारों के स्थान पर उनके नुमाइंदे ये काम करने लगे। बाद में उनकी तर्ज पर गुण्डों ने धौंस

मोरारी बापू का अहिंसा आन्दोलन

मोरारी बापू राम कथा के सबसे अधिक सुने और चाहे जानेवाले कथा-गायक हैं। निम्बार्क पंथ से उनका संबंध है और काले टीके के साथ काली कंबली उनकी पहचान है। पर यह काला टीका और काली कंबली उनकी शुभ्रता को कम नहीं करती बल्कि अधिक उजागर कर देती है। उनके परिधान में जो शुभ्रता है, वह उन्हें धार्मिक उन्माद से परे एक सौहार्द्र पूर्ण भक्ति आंदोलन का साधक और प्रवर्तक बना देती है। बापू राम के समन्वयवादी स्वरूप के गायक हैं। यही वह बीज है जिसे महात्मा गांधी ने धर्म की मिट्टी में बोया और उससे अहिंसा की फसल ली। बापू इसी परम्परा को सर्वत्र बिखेरते चलते हैं। यद्यपि उन्होंने रामकथा का गुरुमंत्र अपने दादा से प्राप्त किया किन्तु रामकथा गायन में रामभक्त हनुमान उनके मार्गदर्शक परम गुरु और संरक्षक हैं। हनुमान जयंती के अवसर पर प्रत्येक वर्ष वे अस्मिता पर्व का आयोजन करते हैं और साहित्य, संगीत, नृत्य, गायन, अभिनय आदि विविध कला क्षेत्रों के शीर्ष व्यक्तित्वों को आमंत्रित कर उनकी प्रतिभा का प्रदर्शन करते है और उनका सम्मान करते हैं। इस आयोजन में मोरारी बापू केवल उत्सवधर्मिता नहीं दिखाते बल्कि उनकी वैचारिकता और चिन्तन के
3.पूर्वकथा 2. मृत्युंजय का अर्थ शाब्दिक दृष्टि से मृ्त्यु पर जय प्राप्त करना हो सकता है। केवल महादेव या शिव ने इस असंभव को संभव कर दिखाया था ऐसी आस्थामूलक कहानी हम सुनते आ रहे हैं। वह श्मशान में रहते हैं। ऐसी जगह रहने के कारण उस बस्ती के बाकी नागरिक भूत, पिशाच, प्रेत, जिन्न वगैरह उनके मित्र, सखा, संबंधी आदि हो गए होंगे। इसमें आश्चर्य कैसा? भाई युक्तेश राठौर तो स्वर्गवासी हुए, किन्तु उनके सौजन्य से हम ऐसी ही जगह पहुंच गए हैं। परन्तु कोई हमें मृत्युंजय नहीं कहेगा। हम यहां कोई बसने थोड़े ही आए हैैं। युक्तेश भाई की शेष देह को फूंकने आए हैं। शंकर महाकाल के लिए राख उपलब्ध कराने।  इसे ही कहते है- मृत्युंजय साधना, जो हमने तीन चरणों में पार करनी है। दो हो गए, यह तीसरी और अंतिम है। इसके बाद होगी आनंद-साधना। वहां न दुख है न क्लेश। न भय है घबराहट। बस अखंड मौज है। पर इस तीसरे के बाद। तीसरे चरण के बाद....पहले चरण में भाई जी मरे, शवयात्रा की तैयारी हुई, दूसरे में उनकी अरथी निकली यानी शवयात्रा और उसके संभावित फायदे। तीसरा यह दाहकर्म, यह अग्निसंस्कार, अब जहां वे राख हो जाएंगे... लीजिए, प्रस्तु