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Showing posts from 2009

नव वर्ष: किचन के संदर्भ में

किचन में पर्ववत् सन्नाटा है। मैं चाहता हूं नए वर्ष की सरगर्मी और उत्साह मेरे किचन में भी दिखाई दे। मैं बार बार किचन में जाता हूं और मिट्टी तेल के पीपे को उलटता पलटता हूं और निराश हो जाता हूं। मैं जादूगर आनंद या पी सी सरकार होता तो ऐसी निराशा मुझे नहीं होती। मैं एक बार मिट्टी तेल के खाली पीपे को हिलाता और उसे किचन में रखकर बेडरूम में चला जाता। बिस्तर पर पालथी मारकर बीड़ी के चार पांच कश लेता और बुझाकर उसे मिट्टी के एक कुल्हड़ में डाल देता । फिर बड़े इत्मीनान से किचन में घुसता । संजीवकुमार की तरह बांह हिलाकर कमीज की आस्तीनें बिना हाथ लगाए ऊपर सरकाता और झुककर पीपा उठाता । अब पीपा मिट्टी तेल से भरा होता। तालियों की गड़गड़ाहट से किचन भर जाता । ज्यादातर ये तालियां किचन में उपस्थित खाली डिब्बे और पतीलियां , अपने जलने का इंतजार करता स्टोव और केवल बीड़ी पीने के लिए इस्तेमाल की जा रही माचिस की डिबिया ही बजा रही होतीं। किचन में जो मुट्ठी भर भरी भरी सी चीजें होतीं वे अपने आभिजात्य के गर्व में केवल मुंह बनाती या दिखावे के लिए मुस्कुराती। मगर यह तो एक संभावित असंभव कल्पना है। वास्तविकता यह है कि किच

दो पहियों का फ़र्क़

जीवन में दो का बहुत महत्त्व है। दो आंखें , दो कान , दो हाथ , दो पैर , दो फैफड़े, दो किडनियां आदि और इत्यादि। जिन्हें ज्ञान की कमी नहीं हैं किन्तु समय की कमी है ,जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें जीवन के सूत्र नहीं मालूम, ऐसे लोगों को टीवी देखकर सीखना चाहिए। उसमें सीरियल से विज्ञापन आते हैं जो टीवी को जीवन दान देते हैं। और अधिक गंभीरता से सोचें तो बीवी को भी जीवन प्रदान करते हैं। बहुत ज्यादा गंभीरता से सोचा जा सके तो यहां भी देखिए कि दो का ही महत्त्व है। टीवी और बीवी। गृहस्थी को वास्तविक गृहस्थी का स्वरूप देने में इन दो का ही योगदान है। दोनों के बिना गृहस्थी एकाकी है। एकाकी का अर्थ ही है कि जो दो नहीं हैं। बात को आगे बढ़ाने पर हम देखते हैं कि दो और दो चार होते है। चार का भी बहुत महत्त्व है क्योंकि वह दो का दूना है। किन्तु हे भारतीय दर्शक! आज जो दो है , वह सबसे पहले चार था। मनुष्य जिसका अंश है , वह विष्णु या नारायण चार हाथोंवाला दिखाई देता है। ब्रह्मा के चार मुंह थे। जिसके लिए हम मारामारी करते हैं, वह लक्ष्मी चार हाथोंवाली है। वैज्ञानिक बताते हैं कि आदमी भी पहले चार पैरोंवाला था। पूर्वजों के

शिल्पा की शादी और खिसिआया हुआ मैं

सुबह रोज की तरह से ज्यादा खराब है। शाल लपेटकर मैं कुहरे में छीजती नुक्कडिया छाबड़ी में फुल चाय के लम्बे गहरे घूंट भर रहा हूं ताकि छाती सिंक जाए। समाने एक टेबल पर टीवी रखा है जो ग्राहको को लुभाने का काम कर रहा है। चााय के घूंट भरकर उसे मैं छाती में महसूस करता हूं और दूसरा घूंट भरने के पहले के अंतराल में टीवी देख लेता हूं। टीवी में शिल्पा की शादी का हो हल्ला है।मैं थोड़ी देर बर्दास्त करता हूं लेकिन जल्दी मेरी चाय कड़वी लगने लगती है। छाबड़ी में टूटी हुई बेंच और गंदा टेबल मुझे बेचैन करने लगते हैं। वे शिल्पा की भव्य शादी के साथ मैच नहीं कर रहे। मैं उठकर घर लौट आता हूं। शिल्पा की शादी मेरे जहन में छूटी हुई चाय की तरह चिपकी चली आती है। ं मुझे समझ नहीं आता कि मौसम इस बुरी तरह खराब है और शिल्पा की शादी हो रही है ? शिल्पा की शादी होने से मौसम खराब है या मौसम खराब है इसलिए शिल्पा शादी कर रही है ,इस बात से मै पूरी तरह आश्वस्त नहीं हूं। शिल्पा की शादी से वैसे भी मेरा कोई लेना देना नहीं है। हां मौसम खराब होने से है। मौसम की खराबी ने मेरा बजट बिगाड़ दिया है। ठंड बुरी तरह बढ़ गई है और बर्फीली सर्दी में नहा

वनस्पतियों का सौदर्यशास्त्र

उर्फ रसिक पुष्पवृक्ष और रस-केन्द्र सुन्दरियां हमारे आंगन में फूले गुलाब और इठलाते डहलियों की कई प्रजातियां दूर से लोगों को आकर्षित करती रही हैं। पीले डहलिया भ्रमणार्थी रमणियों को विचलित कर देती और वे गुलाब के भ्रम में उन्हें देखने आ जाया करती। हमारे पड़ोस में एक नमकमिर्ची-पूर्णा थी। वह जुबान की काली थी। अगर वह आपके स्वास्थ्य की तारीफ कर दे तो आप बीमार पड़ जाएं। हमारे आंगन और बाड़ी में पत्नी अभिरुचि और प्रेम के कारण लहराते हुए गुलाब ,डहलिया ,सेवंती, गेंदे ,अनार ,अंगूर , चीकू , पालक , मैथी , बड़ी तुअर आदि की वह ‘मुंह में कुछ और दिल में कुछ’ के अंदाज में तारीफ करके उन्हें नज़र लगा चुकी है। उसकी तारीफ़ों से पत्नी को आजकल भय होने लगा है। हमेशा खिली रहनेवाली फुलवारी आजकल उदास हो गई है। एक दिन पड़ोसन आई और झूठी सहानुभूति जताते हुए बोली:‘‘ अरे तुम्हारे आंगन को क्या हो गया भाभी ?’’ तो भरी बैठी पत्नी ने दुखी स्वर में कहा-‘‘ पता नहीं किस डायन की नजर लग कई पुन्नो ! कुछ दिनों से पनप ही नहीं रही हैं।’’ पड़ोसन समझ गई कि पोल खुल चुकी है। अब पड़ोसन नहीं आती और पत्नी नये सिरे से बगिया की संभाल में लग गई है।

खाने की टेबल पर मां और बीवी का मसाला

एक वो भी मसालेदार विज्ञापन था कि आफिस से लौटा हुआ आदमी घर में घुसते ही हवा सूंघता था और बीवी से पूछता था,‘‘ मां आई है क्या ?’’ बीवी मुस्कुराकर मसालों को धन्यवाद देती थी। इसका मतलब कि अब मां खाने में नहीं महकेगी। उसका स्थान अब मसालों ने ले लिया है। इस तरह मसालों की नई खपत ने कम से कम किचन से मां के महत्व को खत्म कर दिया। मां का स्थान अब अमुक कम्पनी के मसाले ने ले लिया। पर उससे पत्नी का भी महत्व कम हो गया । पत्नी के स्थान पर कामवाली बाई या कोई भी बाई आराम से खाने को स्वादिष्ट बना सकती है। आप अगर बाई की कोई खास जरूरत किचन में नहीं समझते हों तो आप खुद भी उस खास कम्पनी के खास मसाले का उपयोग कर एक साथ मां ,बीवी और बाई की कमी को पूरा कर सकते हैं। (सीरियल वाले या फिल्म वाले इस समय मुझे थैंक्यू कह सकते हैं। मैंने उन्हें एक नया टाइटिल सुझाया है ‘मां ,बीवी और बाई। विज्ञापनवाले भी चाहें तो इसका लाभ उठा सकते हैं।) अभी-अभी एक नया विज्ञापन आया है। टेबिल सजी हुई है। मां भी है ,बीवी भी और खानेवाला वह कमाउ पूत भी जिसे खुश करने लिए खाना बना है। वही खाना बाकी लोगों के खाने के लिए बना है। खाने के टेबिल प

पग: द ब्रांड एम्बेसेडर

बच्चे स्कूल ना जाने के बहाने ढूंढते हैं। स्कूल जाना ही पड़ा तो टीचर के एक्सीडेन्ट में मर जाने की कल्पना करते है।वास्तव में...शोक सभा के बाद घर जाकर सचिन तेन्दुलकर या शाहरुख बनने की भावना उनमें प्रबल होती है। हमने अपनी आने वाली पीढ़ी को खेल-खेल में कितना भविष्यगामी बना दिया है। इधर एक दूसरा ही बच्चा है जो आजकल लाइट में है। यह बच्चा अपनी मां की उम्र की मिस रोजी के ना आने से चिन्तित है। वह उसमें अपनी मां देखता होगा। पता चलता है कि मिस रोजी आज बहुत उदास है क्योंकि उसका कुत्ता मर गया है। वह आज स्कूल नहीं आएगी। यानी छुट्टी। अब कायदे से बच्चे को घर जाकर सचिन या शाहरुख बनने की कोशिश करनी चाहिए थी। मगर यह उल्टी ही खोपड़ी का बच्चा है जो अपनी प्यारी टीचर मिस रोजी को खुश करना चाहता है। यह प्रेरणा उसे राजू नाम से लोकप्रिय जोकर राजकपूर से नहीे मिली है जो अपने बचपन में ऐसी ही किसी रोजी को प्यार कर बैठता है और उसे सेन्सर नाम की मजेदार संस्था के सौजन्य से नहाते हुए देखता है। उस राजू की बजाय यह बच्चा शाहरुख से प्रभावित है जो एक अद्वितीय फिल्म में अंकल की उम्र का होने के बावजूद पता नहीं किस यूनिवर्सिटी के

जीवन की उलटबांसियां

सुबह चाय के साथ चुहल का दौर भी चल रहा था। चाय में मिठास थी और मैं छेड़छाड़ का नमक उसमें डाल रहा था। खिड़की पर तभी एक बिल्ली आकर बोली ,‘मैं आउं ?’ ‘ये कहां से आ गई।’ पत्नी ने कहा। ‘बहन से मिलने आई होगी।’ -मैंने कहा। ‘मम्मी आप को बिल्ली कह रहे हैं।’ -पुत्री ने मां को उकसाया। ‘कहावत है न -हमारी बिल्ली हमीं को म्यांउं’ -पत्नी मुस्कुराई। ‘कहावत गलत है। होना था, ‘हमारी बिल्ली हमीं को खाउं’ -मैंने काली मिर्च भी डाल दी पत्नी आंख निकालकर बोली-‘अब गुर्राउं ?’ ‘हमसे क्या पूछती हो , हम तो चूहे हैं’ -यह देखने में था तो समर्पण ,मगर बम था। पुत्री ने मां की वकालत की-‘ पापा अभी गणेशेत्सव गया है। हमने देखा कि एक चूहा भी हाथी को ढो सकता है।’ यह मेरे लिए हाइड्रोजन बम था। मैं चैंककर ,आश्चर्य से पुत्री को देखने लगा। वह हंसते हुए बोली ‘क्या हुआ पापा ,ठीक तो कह रही हूं।’ पत्नी मेरी कैफियत समझ गई। बोली-‘चल हमारा काम खत्म। इनको चारा मिल गया। नास्ता पकाने लगे हैं।’ मैं सचमुच नशे की हालत में डाइनिंग से रीडिंगरूम तक आया। बात निकली है तो अब दूर तक जाएगी और मैं सोच के धागों में बंधा हुआ चुपचाप घिसटता रहूंगा।

फूल हरसिंगार के

फूल हरसिंगार के राचौ ऋषिकेश और हरिद्वार से लौट आए हैं। वहां की हवा तो शायद नहीं न ला पाए मगर वहां के फूलों और वनस्पतियों के बीज जरूर ले आए हैं। जी हां, हरिद्वार और ऋषिकेश का अर्थ अब केवल धार्मिक कर्मकाण्ड और साधना नहीं रह गया है। पर्यटन तो था वह पहले से; अभी कुछ वर्ष पहले राजनैतिक समीकरण और बंटवारे का भी वह प्रतीक बन गया है। योग के शारीरिक-संस्थान और आयुर्वेद के विश्व-बाजारवाद की हवा भी इन पर्वतीय नगरों को लग गई है। शुक्र है मेरे मित्र राजनीति और योग का बाजारवाद लेकर नहीं आए। वे कश्मीरी तुलसी, दार्जिलिंग की मिर्ची और हिमाचल के फूूलों के बीज लेकर आए हैं। पहले उन्हें गमलों में अंकुरित किया और एक के बाद एक उन्हें मेरे बागीचे में रोपते गए। पहले उन्होंने कश्मीरी तुलसी लगाई और कई बार आकर उसकी पत्तियों की इल्लियां निकालते और गमले की मिट्टी संवारते रहे। मेरे उपवन में उन्हें इतनी रुचि क्यों? दो कारण हैं.. एक वे और दूसरे हम। हम अपने बगीचे को चाहनेवालों की चाहतों से दूर नहीं करते। चाहे फूल हों, चाहे सब्जियां हों या चाहे अमरूद और आम के फल हों। जो मांग सकते हैं, वे मांग ले जाते हैं। ज्यादा हो तो

कलाकार के हाथ

ब्रह्मा नाम है कलाकार का। कलाकार लकड़ी का काम करता है। फर्नीचर-रैक-अल्मीरा.....और दूसरे भी लकड़ी के इन्टीरियल-डेकोरेटिव काम करता है। प्लाईवुड का काम ज्यादा है इन दिनों। वह आसानी से मिलता है और यह काष्ठकर्मी उनसे मनचाहा व्यवहार कर सकता है। मनचाहे रूप दे सकता है। सागौन अब भी उपयोग में आता है, मगर वह नम्बर दो में है; क्योंकि उसका काम नम्बर दो में होता है। सागौन माफिया आपकी चाही हुई मात्रा में रात में चोरी की लकड़ी आपके घरों में बाकायदा चोरी की मर्यादाओं और आचार संहिताओं को पालता हुआ पटक जाएगा। ताकि चोरी का भ्रम बना रहे। दूसरे- तीसरे दिन वनरक्षक या वन विभाग का कोई कर्मी आपसे पूछेगा कि इस तरफ लगभग इतना माल आया है। क्या आप बता सकते हैं किसके यहां आया है ? दरअसल वनकर्मी को पता रहता है कि कितना माल कब और कहां जाना चाहता है। चोर उनसे पूछकर ही चोरी छिपे का लिहाज रखते हुए काम करते हंै। आपने सुना होगा कि एक चड्डी गिरोह है। वह चोरी के लिए , डाका के लिए घरों में घुसता है। घरस्वामी हुज्जत किए बिना माल दे देना चाहता भी है तो वे धुनाई करते हैं। बाद में माफी मांगते हुए माल लेकर जाते-जाते कहते हैं-‘‘ माफ क

प्रेम के माइम और दुख की मिमिक्री

दो धाराएं हैं जिनमें समाज बह रहा है। एक प्रेम है और दूसरा दुख। दुख होता है तो दिखाई देता है। प्रेम भी छुपता नहीं। दुख दिखाई देता है तो पर्याप्त समय-प्राप्त लोगों को सहानुभूति होती है । करुणा और सान्त्वना आदि प्रदर्शित करने के प्रयासों की घटनाएं भी हो सकती हैं। दुख बहुत गंभीर हुआ तो भीड़ करुणा में इकट्ठी हो सकती है। प्रेम दिखाई देता है तो चर्चा होती है। घृणात्मक आक्रोश होता है। हंगामा भी हो सकता है। लोगों की भीड़ इकट्ठी हो सकती है। तमाशा देखने या आलोचना के पत्थर फेंकने। मजे लेने या थू थू करने....थू थू यानी अपने अंदर की गंदगी को बाहर उलीचने। दोनों स्थितियों में भीड़ इकट्ठी हो रही है। भीड़वादी लोग इसका लाभ उठाने का वर्षोें से प्रयास करते रहे हैं। दुख के कारण और प्रेम के कारण गौण हो सकते हैं किन्तु भीड़ का लक्ष्य ऐसे लोगों के लिए गौण नही होता। यहां से प्रेम और दुख की अभिनय-यात्रा शुरू होती है। प्रेम और दुख के अभिनय देखकर लोग प्रभावित होते हैं और उसका जन-संचार करते हैं। दुबारा उसे देखने की कोशिश भी करते हैं। प्रेम और दुख के व्यावसायिक संगठन और संस्थान विभिन्न नामों से कार्यरत हैं। राजनैतिक,

उम्मीद के चेहरे

सारे शहर में उसने तबाही सी बाल दी अपना पियाला भरके सुराही उछाल दी हमने उड़ाए इंतजार के हवा में पल वो देर से आए ओ कहा जां निकाल दी मां को पता था भूख में बेहाल हैं बच्चे दिल की दबाई आग में ममता उबाल दी जिस आंख में उम्मीद के चेहरे जवां हुए बाज़ार की मंदी ने वो आंखें निकाल दी नंगी हुई हैं चाहतें ,राहत हैं दोगली ‘ज़ाहिद’ किसी ने अंधों को जलती मशाल दी 021009/शुक्रवार
जिनमें निश्छल दर्द हुआ है उन गीतों ने मुझे छुआ है। मुख्य-मार्ग में रेलम पेला पथपर मैं चुप चलूं अकेला खेल-भूमि पर हार जीत का कोई खेल न मैंने खेला । बहुत हुआ तो चलते चलते कांस-फूल को गोद लिया है। फिसलन हैं ,कंकर पत्थर हैं मेरे घर गीले पथ पर हैं भव्य-भवन झूठे सपने हैं अपने तो चूते छप्पर हैं। छल प्रपंच के उजले चेहरे निर्मल मन में धूल धुआं है। मंगली हैं मेरे सब छाले दिए नहीं मन्नत के बाले मेरी नहीं सगाई जमती कोई सगुन न मेरे पाले हाथों कष्टों की रेखाएं सर पर मां की बांझ दुआ है। फिर भी मैं हंसता गाता हूं जिधर हवा जाती जाता हूं दिल में जो भी भाव उपजते गलियों में लेकर आता हूं बोया बीज न फसल उगाई खुले खेत भी कहां लुआ है। 080909

राष्ट्र-ऋषि नहीं कहलाएंगे शिक्षक

चाणक्य के देश में शिक्षक दुखी है ,अपमानित है और राजनीति का मोहरा है। वह पीर ,बावर्ची और खर है। खर यानी गधा। उस पर कुछ भी लाद दो वह चुपचाप चलता चला जाता है। आजादी के बाद से गरिमा ,मर्यादा और राष्ट्र-निर्माता के छद्म को ढोते-ढोते वह अपना चेहरा राजनीति के धुंधलके में कहीं खो चुका है। वह जान चुका है कि शिक्षकों के साथ राजनीति प्रतिशोध ले रही है। फिर कोई चाणक्य राजनीति के सिंहासन को अपनी मुट्ठी में न ले ले ,ऐसे प्रशानिक विधान बनाए जा रहे हैं। आजादी के बाद इस देश में शिक्षकों को राष्ट्रपति बनाया गया। एक राजनैतिक चिंतक ने राष्ट्र को दार्शनिक-राजा द्वारा संचालित किये जाने की बात की थी। डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् जैसे प्रोफेसर को राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद पर बैठाकर भारत ने जैसे अपनी राजनैतिक पवित्रता प्रस्तुत की। राष्ट्रपति राधा कृष्णन् के जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाए जाने से जैसे शिक्षकों और गुरुओं के प्रति राष्ट्र ने अपनी श्रद्धा समर्पित कर दी। लेकिन पंचायती राज्य ,जनभागीदारी और छात्र संघ चुनाव के माध्यम से शिक्षकों को उनकी स्थिति बता दी गई कि तुम राष्ट्र निर्माता नहीं हो ,सब्बरवा

तोता उड़ गया

और आखिर अपनी आदत के मुताबिक मेरे पड़ौसी का तोता उड़ गया। उसके उड़ जाने की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। वह दिन भर खुले हुए दरवाजों के भीतर एक चाौखट पर बैठा रहता था। दोनों तरफ खुले हुए दरवाजे के बाहर जाने की उसने कभी कोशिश नहीं की। एक बार हाथों से जरूर उड़ा था। पड़ौसी की लड़की के हाथों में उसके नाखून गड़ गए थे। वह घबराई तो घबराहट में तोते ने उड़ान भर ली। वह उड़ान अनभ्यस्त थी। थोडी दूर पर ही खत्म हो गई। तोता स्वेच्छा से पकड़ में आ गया। तोते या पक्षी की उड़ान या तो घबराने पर होती है या बहुत खुश होने पर। जानवरों के पास दौड़ पड़ने का हुनर होता है , पक्षियों के पास उड़ने का। पशुओं के पिल्ले या शावक खुशियों में कुलांचे भरते हैं। आनंद में जोर से चीखते हैं और भारी दुख पड़ने पर भी चीखते हैं। पक्षी भी कूकते हैं या उड़ते हैं। इस बार भी तोता किसी बात से घबराया होगा। पड़ौसी की पत्नी शासकीय प्रवास पर है। एक कारण यह भी हो सकता है। हो सकता है घर में सबसे ज्यादा वह उन्हें ही चाहता रहा हो। जैसा कि प्रायः होता है कि स्त्री ही घरेलू मामलों में चाहत और लगाव का प्रतीक होती है। दूसरा बड़ा जगजाहिर कारण यह है कि लाख पिजरों के सुख के ब

प्रेम की पत्रकारिता

मेरे एक मित्र के ब्लाग में एक पत्रकार मित्र ने बड़े दुख और क्षोभ के साथ लिखा है कि देखो प्रोफेसर मटुकनाथ भी पत्रकारिता के अखाड़े में उतर रहे हैं। हिन्दी के प्राफेसरों से उन्हंे खास शिकायत है। ये प्रोफेसर वो साम्राज्यवादी सामन्त लोग हैं जो हर मामले में टांग अड़ाते हैं, कही भी उतर जाते है। देखा कि कोई बाजार है तो ये अपनी दूकान खोलकर बैठ जाते हैं। इनसे स्वरोजगार से जुड़े हुए लोग बेरोजगार होते हैं। प्रोफेसर डॉ. मनमोहन प्रधानमंत्री बन गए। प्रो. दंडवते, प्रो. जोशी वगैरह कितने ही लोग हैं जो राजनीति के रास्ते से संसदमें घुस गए। मैं झल्लाए हुए मित्र के पक्ष में हूं। एक उच्च शिक्षा मंत्री हुई महिला प्रोफेसर की हालत को देखकर मैं चिंतित हूं। मैंे अपने विद्यार्थीकाल से ही प्रोफेसरों की आलोचना और उनकी मूर्खताओं के किस्से सुनते आया हूं। एक बीए पास राजनैतिक कार्यकर्ता और एजेन्ट और लेखक को मैंने ज्ञान का ठेका करते देखा है। वे प्रोफेसरों के शंत रवैये से नाखुश थे। जो किताबें वे चाहते थे उन्हें न पढ़नेवाले प्रोफेसर को वे वज्र मूर्ख कहकर नकार देते थे। सैकड़ों लोगों की तरह वे भी यह मानते थे कि जो कहीं कुछ नहीं क

अथ सुअर-वार्ता

अथ सुअर-वार्ता उर्फ ‘स्वाइन-फ्लू’ तमस का आरंभ भीष्म साहनी ने सुअर के दड़बे में सुअर-युद्ध से किया है। सुअर अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा है और उपन्यास का पात्र कुछ राजनैतिक व्यक्तियों की दुरभिसंधि के लिए सुअर को लाश बनाने के लिए अपनी जान का दांव खेल रहा है। अस्तित्व का संकट दोनों के सामने है। आदमी के हाथ में हथियार है और सुअर के पास केवल नैसर्गिक जिजीविषा है। सुबह अभी हुई नहीं है। अंधकार दोनों के लिए एकसा है। दोनों आहटों की लड़ाई लड़ रहे हैं। एक आहट पर वार कर रहा है ,दूसरा आहट के साथ होनेवाले वार से खुद को बचाता हुआ सापेक्षिक प्रहार कर रहा है। बचाव की रणनीति सुअर की है। अंत में दुष्ट-प्रयास जीत जाता है और निरीह सुअर मारा जाता है। भारत में धर्मान्धता को भड़काकर हिन्दू- मुस्लिम दंगे कराने के लिए मरे हुए सुअर को हथकण्डे के रूप में रातनीतिक लोग प्रयुक्त करते हैं। यही बात भीष्म साहनी ने इस उपन्यास में बुनी है। सुअर को आधार बनाकर सांप्रदायिक दंगे की व्यूह रचना मानवीय विकास हो सकता है लेकिन मनोवैज्ञानिक उसे उन्माद कहते हैं। धार्मिक-उन्माद। वह भी एक प्रकार का फ्लू है -रिलीजन फ्लू।

सदी का महानायक: कुत्ता

इक्कीसवीं सदी में एक नया इतिहास बना है। ओबामा साहब राजनैतिक विश्व में सबसे शक्तिशाली देश के पहले ग़ैर-श्वेत नस्ल के राष्ट्रपति के रूप में सत्तारूढ़ हुए हैं। विद्वान हैं ,उत्साही हैं ,सुलझे हुए हैं और आत्मविश्वास से भरे हुए हैं। हालांकि उनकी विद्वता ,उत्साह ,सुलझाव और आत्मविश्वास की दिशाएं पूरी तरह खुली हुई नहीं हैं। अमेरिका को इसलामिक राष्ट्र और पुतिन को राष्ट्रपति कहकर उन्होंने संकेत जरूर दिया है कि वे किधर जा रहे हैं। पर इतिहास रचनेवाले तो वे हमेशा रहेंगे। बराक साहब की लोकप्रियता का एक और कारण है । पद पर आकर उन्होंने सबसे पहले जिस प्राणी की खोज की वह एक शानदार जानदार समझदार कुत्ता था। इसके साथ ही मनुष्य समाज का सबसे वफादार दोस्त कुत्ता नामक प्राणी दुनिया भर में फिर चर्चा का विषय बन गया। दुनिया भर के बलागर्स में कुत्ते भी शामिल हुए । उन्होंने न केवल बराक ओबामा को कुªªत्ता जाति को सम्मानित करने के लिए धन्यवाद प्रेषित किये बल्कि अपने-अपने रिज्यूम भी भिजवाए ताकि उनका यथास्थान नियोजन हो सके। यद्यपि यह पहली बार नहीं हुआ कि कोई कुत्ता सत्ता के गलियारों में इतने शानदार ढंग से प्रविष्ठ

राग-दरबारी उर्फ राग-विरुदावली

दाता के गुण गाओ -‘ राग-दरबारी उर्फ राग-विरुदावली भीषण गर्मी की लू भरी शाम में भी हम इवनिंग वाक करने निकले थे। म्यूजिक प्लेअर में कोई गाायक ‘रागदरबारी ‘ में एक बंदिश गा रहा था -‘दाता के गुण गाओ...‘। गुणगान की बंदिश होने के कारण ही शायद ‘रागदरबारी‘ दरबारियों का राग कहलाता है। हालांकि राजदरबार के एक राजपत्रित दरबारी ने शिक्षा-व्यवस्था और शिक्षा-व्यवसाय के सिर पर तबला बजाते हुए तोड़-मरोड़कर थाट-तोड़ी पर पढ़ा जानेवाला ‘रागदरबारी’ गाया ,जो उतना ही लोकप्रिय हुआ ,जितना मर्मस्थल पर हाथ रखकर गानेवाले पापी गायक स्व. माइकल हुए। वे आज ही स्वर्गीय हुए हैं। उन्हें इन पंक्तियों के लेखक ने कभी सुना नहीं और देखा भी नहीं हैै। पर नाम तो नाम होता है। नाम होता है तो फिर देखने सुनने की क्या जरूरत? वैसे गाए जानेवाले राग- दरबारी में बिला-शक मिठास बहुत है। यह मिठास सुरों की है या गुणगान की यह तो कोई सुरंदाज़ ही बता सकता है। मेरे जैसे साधारण सुननेवाले तो केवल संगीत की मिठास ग्रहण करते हैं। संगीत के सुर-शास्त्र से उनको क्या लेना देना ? जैसे भोजन बहुत बढ़िया है , इसकी तमीज़ हर खानेवाले को होती है लेकिन पाकशास्त्र का

आग लगी आकाश में

और बिन पानी सब सून आकाश में सूखे की संभावनाएं ,बेपानी बादल और आग उगलता सूरज ,आखिर किस असंतोष को प्रदर्शित कर रहे हैं। बिजली बेमियादी और बेमुद्दत हो गई है। दिन में केवल तीन चार घंटे और वह भी किश्तों में । कभी एक घंटे, कभी पंद्रह मिनट ,कभी दो मिनट भी नहीं। इन्वर्टर पूरी खुराक़ के अभाव में चीखने लगे हैं। उनकी प्लेटों पर ‘खट’ जमने लगी है। ‘खट’ को थोड़ी देर के लिए खटास ही मान लें। बिजली का काम करनेवाला कम पढ़ालिखा लड़का उसका केमिकल नाम नहीं जानता । हम जानते हैं तो क्या कर लेंगे। पानी बदलकर एसिड डालकर तो उसे ही धोना है। हम उसी पर निर्भर हैं। नगरपालिका ने नोटिस पर दस्तखत ले लिए हैं कि अब कटौती को बढ़ाकर एक दिन के आड़ में पानी देंगे। पानी का भंडारण भी सूख रहा है। पानी ही नहीं हैं। आसमान सूना ,जमीन सूखी ,बिजली गायब ..... हम जो अब तक आदी हो गए थे बिजली के बहुआयामी उपयोगों के और प्राकृतिक आबोहवा से दूर हो गए थे , प्रकृति की तमाम सहजावस्था के नज़दीक आ गए हैं। टीवी-कम्प्यूटर ने हमें बांध लिया था और अपनों के साथ दो घड़ी बैठ पाने के लिए हमारे पास समय नही था । सूखे ने जैसे उन कंुभलाए हुए संबंधों और भावन

आगरा बाज़ार की वह रंगीन पतंग:

यानी ‘‘ हबीब तनवीर ‘‘ 1972-73 की वह एक गुलाबी शाम थी जो अपने रूमानी अहसास को सीधे मेरे जिस्म के साथ जोड़कर चल रही थी। ठीक गाय के उस बछड़े की तरह जो जानबूझकर मां के जिस्म से टिककर घास में मुंह चलाने की मुहिम ज़ारी रखता है। मैंने इस शीतल अहसास को स्वेटर से रोकने कभी कोशिश भी नहीं की। जहां मेरे कैशौर्य में ठंड को पीने की मस्तीभरी शक्ति मौज़ूद थी वहीं आंखों में सारे विश्व के कौतुहल को जान लेने की जिज्ञासा लालायित थी। तभी स्टेट स्कूल के ग्राउंड में आगरा बाज़ार के प्रदर्षन की जानकारी मुझे मिली। रात होते ही मैं रंगप्रेमी दर्शकों के बीच में मैं उपस्थित था। बल्कि और पहले से। दो ट्रकों के डालों (कैरेज ट्राली) को जोड़कर स्टेज बनाने के रंगप्रबंधन को मैंने देखा ,जाना और सीखा। दोनों कैबिनों को अलग अलग तरीकें से अटारियों ,छज्जों और छतों में तब्दील किया गया था। दोनों ट्रकों के डालों को बाज़ार का विस्तार और विविधता प्रदान की गई। रात होते ही जब नाटक शुरु हुआ ,वहां आगरा बाज़ार के पतंग फ़रोश , खोंमचेवाले ,बाजीगर ,मदारी ,चनाज़ोर ...जाने कितने विभिन्न रंग-व्यापारों ने गतिशीलता भर दी। यह निर्देशक हबीब तनवीर के अन