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राष्ट्र-ऋषि नहीं कहलाएंगे शिक्षक



चाणक्य के देश में शिक्षक दुखी है ,अपमानित है और राजनीति का मोहरा है। वह पीर ,बावर्ची और खर है। खर यानी गधा। उस पर कुछ भी लाद दो वह चुपचाप चलता चला जाता है। आजादी के बाद से गरिमा ,मर्यादा और राष्ट्र-निर्माता के छद्म को ढोते-ढोते वह अपना चेहरा राजनीति के धुंधलके में कहीं खो चुका है। वह जान चुका है कि शिक्षकों के साथ राजनीति प्रतिशोध ले रही है। फिर कोई चाणक्य राजनीति के सिंहासन को अपनी मुट्ठी में न ले ले ,ऐसे प्रशानिक विधान बनाए जा रहे हैं।
आजादी के बाद इस देश में शिक्षकों को राष्ट्रपति बनाया गया। एक राजनैतिक चिंतक ने राष्ट्र को दार्शनिक-राजा द्वारा संचालित किये जाने की बात की थी। डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् जैसे प्रोफेसर को राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद पर बैठाकर भारत ने जैसे अपनी राजनैतिक पवित्रता प्रस्तुत की। राष्ट्रपति राधा कृष्णन् के जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाए जाने से जैसे शिक्षकों और गुरुओं के प्रति राष्ट्र ने अपनी श्रद्धा समर्पित कर दी। लेकिन पंचायती राज्य ,जनभागीदारी और छात्र संघ चुनाव के माध्यम से शिक्षकों को उनकी स्थिति बता दी गई कि तुम राष्ट्र निर्माता नहीं हो ,सब्बरवाल हो।
शिक्षक राजनीति की तरफ बहुतायत से गए हैं। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी शिक्षक हुए है। भारत के मध्यप्रदेश में दर्शनशास्त्र में स्वर्णपदक प्राप्त मुख्यमंत्री पदस्थ हैं। शिक्षामंत्रालय में भी महाविद्यालयीन शिक्षिका मंत्राणी होकर आई हैं। शिक्षा क्षेत्र में नये-नये प्रयोग वे इन दिनों कर रही है। स्कूल शिक्षा और तकनीकी शिक्षा को भी वही संभाल रही हैं। वे शिक्षकों को देखकर शब्दों की भीगी ओढनियां हवा में उड़ाने लगती हैं कि छींटें शिक्षकों पर पड़ें और वे गदगद हो जाएं। मुख्यमंत्री भी लगातार अपने दार्शनिक स्वर्णपदक को रगड़ रगड़कर शब्दों के जिन्न पैदा कर रहे हैं। एक तरह से शब्दों का मायाजाल रचकर वे प्रदेश को नये स्वप्नलोक में पहुंचा रहे हंै। उनके मूल राजनैतिक दल में मंसूबों और नीयत के खतरे मंडरा रहे हैं। जलती हुई फुलझड़ी के तिनगों की तरह कद्दावर नेता टूटकर बिखर रहे रहे हंै और मुख्यमंत्री अपने दर्शनशास्त्र के तर्कवाक्यों से प्रदेश में नयी क्रांति का शब्दव्यूह रचे जा रहे है। शिक्षकों को लुभाने के लिए उन्होंने एक नया शब्दास्त्र फेंका है। शिक्षिका से मंत्राणी हुई उनकी सहयोगी ने शिक्षक दिवस पर शिक्ष्कांे और गुरुजियों को राष्ट्र-ऋषि की उपाधि से सम्मानित करने की घोषणा की है।
पूर्व मुख्यमंत्री ने अध्यापकों को शिक्षाकर्मी कहकर अपमानित किया था। फलस्वरूप वे निर्वाचन में अप्रत्याशित पराजय से पराभूत होकर आत्मनिर्वासन के महात्याग और संकल्पों की पैन्टिंग बनाने में लगे हैं। पराजित होकर देश की जनता को लुभाने का अंदाज कलयुगी है। कलयुग के प्रारंभ में दो दो राजकुमारों ने चरमोत्कर्ष के क्षणों में सत्ता का त्याग किया था। वह वास्तविक आत्मसाक्षात्कार का वीतराग था। सात्विक जनकल्याण का मार्ग था। उन्हीं सिद्धार्थ और वर्धमान के इस देश में भीषण नरसंहार के बाद आत्मग्लानि से बैरागी बननेवाले राजा अशोक भी दार्शनिक दृष्टांत हैं। दूसरी ओर शिक्षकों द्वारा वर्तमान मुख्यमंत्री ने अपने पहले दौर में उन्हें फिर अध्यापक बनाया और अब राष्ट्र-ऋषि कहकर वह उन्हें सर्वोच्च सम्मान देने का राजनैतिक भ्रम खड़ा कर रहे हैं। दूसरी ओर महाविद्यालयीन शिक्षकों को अभी तक छटवां वेतनमान यह दार्शनिक सरकार घोषित नहीं कर पायी है। देना तो दूर। जबकि केन्द्र सरकार की विश्वविद्यालय अनुदान आयोंग की सिफारिश पर केंन्द्र सरकार नया वेतनमान की अस्सी प्रतिशत अंशदान दे चुकी है। ऐसे दोहरी नीतियों के चलते राष्ट्रऋषि का खिताब शिक्षक कैसे स्वीकार करें ? शिक्षकों ने इस सम्मान को अपना अपमान माना है ,छल समझा है।
क्यों मान रहे हैं शिक्षक राष्ट्र-ऋषि के खिताब को अपना अपमान ? हमारे पूजनीय पुराणों में निरंकुश और दुराचारी राजाओं ने ऋषियों का सतत् अपमान किया। उनके आश्रमों पर हड्डियां और मांसफेंका। उन्हें पकड़कर मारा पीटा। क्यों ? क्योंकि शिक्षक धर्म और नैतिकता पर आधारित एक सामाजिक समाज का निर्माण चाहते थे। असामाजिक तत्वों को इससे खतरा था। आतंक और अत्याचार पर टिका हुआ उनका राज्य ध्वस्त होता था। उन्होंने ऋषियों को जिन्दा भी जलाया। शिक्षक कुराजाओं के राज्य में अपना हश्र देख चुके हैं। पुराणों और पुरखों की दुहाई देने वाले पुरोधाओं के पिछलग्गू राजाओं द्वारा अब कौन ऋषि कहलाना चाहेगा ? क्या ऋषि कहकर तुम भविष्य के तमाम अत्याचारों को विधिक स्वरूप देने की फिराक में हो ? यही पूछ रहा है शिक्षक।
अब सरकार सकते में है। वसिष्ठ से दुर्वासा हुए शिक्षकों को कैसे मनाए। राजनैतिक दांव का वह कौनसा पांसा फेंके कि शिक्षक चारोंखानों चित्त। शिक्षक दिवस को अभी दो दिन बाकी हैं।
ग़ालिब के शब्दों में -
थी हवा गर्म की ग़ालिब के उड़ेंगे पुरजे ,
देखने हम भी गए थे पै तमाशा न हुआ ।

मित्रों ! आप क्या सोचते हैं ? क्या होगा शिक्षक दिवस पर ? दार्शनिक सरकार शिक्षकों के दर्द को समझेगी या तमाशा होगा ? 03.09.09

Comments

surjeet singh said…
शिक्षकों का दर्द वाकई असहनीय है लेकिन क्या सभी शिक्षक राष्ट्र ऋषि कहलाने योग्य हैं
Anonymous said…
शिक्षक होना मजबूरी है...
बिना योग्यताओं के...ढ़ोना वज़न को थोड़ा ही दूरी है...

पहले थोडा़ सा ही अलग बात थी...पर थी...
आपने सही बात उठाई...

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