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Showing posts from November, 2009

वनस्पतियों का सौदर्यशास्त्र

उर्फ रसिक पुष्पवृक्ष और रस-केन्द्र सुन्दरियां हमारे आंगन में फूले गुलाब और इठलाते डहलियों की कई प्रजातियां दूर से लोगों को आकर्षित करती रही हैं। पीले डहलिया भ्रमणार्थी रमणियों को विचलित कर देती और वे गुलाब के भ्रम में उन्हें देखने आ जाया करती। हमारे पड़ोस में एक नमकमिर्ची-पूर्णा थी। वह जुबान की काली थी। अगर वह आपके स्वास्थ्य की तारीफ कर दे तो आप बीमार पड़ जाएं। हमारे आंगन और बाड़ी में पत्नी अभिरुचि और प्रेम के कारण लहराते हुए गुलाब ,डहलिया ,सेवंती, गेंदे ,अनार ,अंगूर , चीकू , पालक , मैथी , बड़ी तुअर आदि की वह ‘मुंह में कुछ और दिल में कुछ’ के अंदाज में तारीफ करके उन्हें नज़र लगा चुकी है। उसकी तारीफ़ों से पत्नी को आजकल भय होने लगा है। हमेशा खिली रहनेवाली फुलवारी आजकल उदास हो गई है। एक दिन पड़ोसन आई और झूठी सहानुभूति जताते हुए बोली:‘‘ अरे तुम्हारे आंगन को क्या हो गया भाभी ?’’ तो भरी बैठी पत्नी ने दुखी स्वर में कहा-‘‘ पता नहीं किस डायन की नजर लग कई पुन्नो ! कुछ दिनों से पनप ही नहीं रही हैं।’’ पड़ोसन समझ गई कि पोल खुल चुकी है। अब पड़ोसन नहीं आती और पत्नी नये सिरे से बगिया की संभाल में लग गई है।

खाने की टेबल पर मां और बीवी का मसाला

एक वो भी मसालेदार विज्ञापन था कि आफिस से लौटा हुआ आदमी घर में घुसते ही हवा सूंघता था और बीवी से पूछता था,‘‘ मां आई है क्या ?’’ बीवी मुस्कुराकर मसालों को धन्यवाद देती थी। इसका मतलब कि अब मां खाने में नहीं महकेगी। उसका स्थान अब मसालों ने ले लिया है। इस तरह मसालों की नई खपत ने कम से कम किचन से मां के महत्व को खत्म कर दिया। मां का स्थान अब अमुक कम्पनी के मसाले ने ले लिया। पर उससे पत्नी का भी महत्व कम हो गया । पत्नी के स्थान पर कामवाली बाई या कोई भी बाई आराम से खाने को स्वादिष्ट बना सकती है। आप अगर बाई की कोई खास जरूरत किचन में नहीं समझते हों तो आप खुद भी उस खास कम्पनी के खास मसाले का उपयोग कर एक साथ मां ,बीवी और बाई की कमी को पूरा कर सकते हैं। (सीरियल वाले या फिल्म वाले इस समय मुझे थैंक्यू कह सकते हैं। मैंने उन्हें एक नया टाइटिल सुझाया है ‘मां ,बीवी और बाई। विज्ञापनवाले भी चाहें तो इसका लाभ उठा सकते हैं।) अभी-अभी एक नया विज्ञापन आया है। टेबिल सजी हुई है। मां भी है ,बीवी भी और खानेवाला वह कमाउ पूत भी जिसे खुश करने लिए खाना बना है। वही खाना बाकी लोगों के खाने के लिए बना है। खाने के टेबिल प

पग: द ब्रांड एम्बेसेडर

बच्चे स्कूल ना जाने के बहाने ढूंढते हैं। स्कूल जाना ही पड़ा तो टीचर के एक्सीडेन्ट में मर जाने की कल्पना करते है।वास्तव में...शोक सभा के बाद घर जाकर सचिन तेन्दुलकर या शाहरुख बनने की भावना उनमें प्रबल होती है। हमने अपनी आने वाली पीढ़ी को खेल-खेल में कितना भविष्यगामी बना दिया है। इधर एक दूसरा ही बच्चा है जो आजकल लाइट में है। यह बच्चा अपनी मां की उम्र की मिस रोजी के ना आने से चिन्तित है। वह उसमें अपनी मां देखता होगा। पता चलता है कि मिस रोजी आज बहुत उदास है क्योंकि उसका कुत्ता मर गया है। वह आज स्कूल नहीं आएगी। यानी छुट्टी। अब कायदे से बच्चे को घर जाकर सचिन या शाहरुख बनने की कोशिश करनी चाहिए थी। मगर यह उल्टी ही खोपड़ी का बच्चा है जो अपनी प्यारी टीचर मिस रोजी को खुश करना चाहता है। यह प्रेरणा उसे राजू नाम से लोकप्रिय जोकर राजकपूर से नहीे मिली है जो अपने बचपन में ऐसी ही किसी रोजी को प्यार कर बैठता है और उसे सेन्सर नाम की मजेदार संस्था के सौजन्य से नहाते हुए देखता है। उस राजू की बजाय यह बच्चा शाहरुख से प्रभावित है जो एक अद्वितीय फिल्म में अंकल की उम्र का होने के बावजूद पता नहीं किस यूनिवर्सिटी के

जीवन की उलटबांसियां

सुबह चाय के साथ चुहल का दौर भी चल रहा था। चाय में मिठास थी और मैं छेड़छाड़ का नमक उसमें डाल रहा था। खिड़की पर तभी एक बिल्ली आकर बोली ,‘मैं आउं ?’ ‘ये कहां से आ गई।’ पत्नी ने कहा। ‘बहन से मिलने आई होगी।’ -मैंने कहा। ‘मम्मी आप को बिल्ली कह रहे हैं।’ -पुत्री ने मां को उकसाया। ‘कहावत है न -हमारी बिल्ली हमीं को म्यांउं’ -पत्नी मुस्कुराई। ‘कहावत गलत है। होना था, ‘हमारी बिल्ली हमीं को खाउं’ -मैंने काली मिर्च भी डाल दी पत्नी आंख निकालकर बोली-‘अब गुर्राउं ?’ ‘हमसे क्या पूछती हो , हम तो चूहे हैं’ -यह देखने में था तो समर्पण ,मगर बम था। पुत्री ने मां की वकालत की-‘ पापा अभी गणेशेत्सव गया है। हमने देखा कि एक चूहा भी हाथी को ढो सकता है।’ यह मेरे लिए हाइड्रोजन बम था। मैं चैंककर ,आश्चर्य से पुत्री को देखने लगा। वह हंसते हुए बोली ‘क्या हुआ पापा ,ठीक तो कह रही हूं।’ पत्नी मेरी कैफियत समझ गई। बोली-‘चल हमारा काम खत्म। इनको चारा मिल गया। नास्ता पकाने लगे हैं।’ मैं सचमुच नशे की हालत में डाइनिंग से रीडिंगरूम तक आया। बात निकली है तो अब दूर तक जाएगी और मैं सोच के धागों में बंधा हुआ चुपचाप घिसटता रहूंगा।