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Showing posts from 2013

अतिथि देवो भव!?

अतिथि देवो भव!?   अर्थात् नववर्ष शुभ हो!! हमारा समाज ही ऐसा है कि हमारे यहां लोग आते-जाते रहते है। कुछ लोगों का हमें इंतजार रहता है कि साल-छः महीने में वो आएं-जाएं। मज़ा इसी में है कि औचक आएं और भौचक कर जाएं। औचक आनेवाले को अतिथि कह सकते है। जो सावधान करके आए वो कोई खास ही होता है और खास किस्म के इंतजाम का अभिलाषी होता है। खास व्यक्ति पहले से इत्तला कर के आए ऐसा हर सुग्रहणी चाहती है। सुव्यवस्थित रहने में ग्रहणी की नाक रह जाती है। ग्रहणियां बड़ी संवेदनशील होती हैं। कई परिवारों में पत्नियां अपने पतियों से झगड़ पड़ती है कि तुमने बिना किसी सूचना के अपने किसी खास साथी को खाने पर बुलवा लिया, यह अच्छा नहीं किया। हमारे ग्रहणित्व पर प्रश्नचिन्ह लगवा दिया। कुछ कमी रह गई तो हमारी क्या रह जाएगी? ग्रहणियां सुव्यवस्थित और सलोना घर बनाना चाहती हैं। कुल मिलाकर जो पूर्व सूचना के आते हैं, उन्हें अतिविशिष्ट अतिथि कहते हैं। किन्तु, इन्हें अतिथि कैसे कहोगे? ये तो सतिथि या सुतिथि हैं। किसी कार्यक्रम के अतिथि और मुख्य अतिथि भी पूरी तरह से सुनिर्धारित और सुनिश्चित तिथि पर आनेवाले लोग हैं। इनकी विशेष त

Interesting Indian Idioms

Interesting Indian Idioms On Eating. Says an Indian proverb or aphorism ‘eat to live, not live to eat. (Jeene ke liye khao, khane ke liye mat jio.) Proverbs are the facts that reveal the truth we can realize what is going on. We see everywhere everyone is living to eat. It is amusing that they are not eating only eatable, but eating ‘not eatable’ things too. Usually some government, central or provincial, officers and employees are being known as ‘excess eating person’ The people usually say ‘Bahut khat hai yar.’   Here khata is not not meant ‘eats’ eatable. Eats denotes that eats ‘money,’ without ‘extra money’ he dose not perform his duties for which he is being taken salary accordingly. India is a country based on agriculture, specified to produce grains eatable. Bharat ek krishipradhan desh hai. Indian government has made lots of   ‘go-downs’ under food corporation of   India ((FCI)   where all the produced eatable grains are preserved. It doesn’t matter that most o

और अंतिम रस है- वात्सल्य-रस:

बाल कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान के विशेष संदर्भ में   - कभी कभी और प्रायः सोचता हूं कि मीठा अंत में क्यों परोसा जाता है? समारोह का अध्यक्ष आख़री में क्यों बोलता है? प्रथम विजेता की घोषणा अंत में ही क्यों की जाती है? सबसे ज्यादा और  प्रभावशाली कवि को बाद में ही क्यों प्रस्तुत किया जाता है? नव-रसों में श्रृंगार को पहला स्थान क्यों दिया गया तथा औचकदन कूद पड़नेवाले वात्सल्य रस को दसवें रस के रूप में क्यों दिया गया? यदि इन सब सवालों से बचकानापन टपक रहा है तो टपक रहा है। इस बचकानेपन को छोड़ पाना या इससे अलग हो पाना संभव होता तो ‘झांसी की रानी’ के गौरव का गान करनेवाली कवयित्री सुभद्राकुमारी चैहान का मातृत्व कभी ‘कदंब के पेड़’, कोयल, खिलौनेवाला और धूप और पानी जैसे कालजयी बाल-गीतों की तरफ़ नहीं मुड़ा होता। मेरा बचपन जिस बालगीत को ‘मां की आरती’ की तरह गाकर तृप्त होता रहा है, वह हर बच्चे की तरह मेरा अपना आत्मीय गीत बनकर दिल में रच-पच गया था। यह बहुत बाद में मुझे पता चला कि वह गीत ‘झांसी की रानी’ गानेवाली तथा ‘वीरों का कैसा हो वसंत’ सिखानेवाली स्वतंत्रता-समर की वीरांगना कवयित्री सुभद

नागपंचमी

नागपंचमी त्यौहार हमारी ‘सांस्कृतिक विरासतों में एक’ प्रतिनिधि-त्यौहार है। विदेशों में भारत ‘संपेरों के देश’ के रूप में जाना जाता है। ऐनाकोंडा और कोब्रा जैसे ख़तरनाक सांपों को विदेशी महत्व का समझा जाता है लेकिन ‘नागलोक’ को भारत का ही पर्याय माना जाता है। मैं कैसे भूल सकता हूं कि हमारी पाठशालाओं में पहला महत्वपूर्ण आयोजन ‘नागपंचमी’ का ही होता था। हम अपनी पत्थर की स्लेटों पर खड़िया की शलाकाओं से ‘नाग-देवता’ यानी ‘ंिकंग-कोबरा’ की आकृति बनाते थे, जिसमें हमारे अभिभावक योगदान करते थे और फिर उसे हम स्कूलों में ले जाते थे। वहां सारे स्लेटी नागों की सामूहिक पूजा होती थी और हमारे पैसों को इकट्ठा करके बुलवाए गए पानीवाले नारियलों की बलि देकर मीठी चिरौंजी के साथ उसका प्रसाद वितरित किया जाता था। मैंने हमेशा सोचा है और हमेशा सोचता रहूंगा कि नागों की पूजा क्यों? इतने बचपन में क्यों? जबकि विद्या की देवी सरस्वती बतायी जाती हंै और महाविद्यालयों में उसे तब मनाया जाता है, जब वैसी विद्या की आवश्यकता नहीं रहती, जैसी बचपन को चाहिए। महाविद्यालयों में सरस्वती पूजा मौज का त्यौहार है, डिस्को म्यूजिक और चंद

औरत की जात, ( भाग 1)

           दुष्यंतकुमार ने अपनी एक स्वाभिमानी ग़ज़ल में प्रकृति के ‘कार्य कारण संबंधों’ पर हमारे व्यावहारिक कयासों का चित्रण करते हुए लिखा है-                   कल रात जो फ़ाके में मरा, उसके बारे में,                   सभी कहतें हैं कि ‘ऐसा नही ऐसा’ हुआ होगा।                         ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दोहरा  हुआ  होगा,                         मैं सजदे में नहीं था आपको धोका हुआ होगा।           इन दिनों हम बलात्कार के, अपनी अपनी समझ के अनुसार, कारणों के अनुमानों की बौद्धिक चर्चा में व्यस्त हैं और ऐसा समझा जा सकता है कि एक ज़रूरी सामाजिक सरोकार में अपनी हिस्सेदारी कर रहे हैं। ये सवाल हम उन लोगों से कर रहे हैं जो ऐसे प्रकरणों में न तो कभी उलझे और ना ही कभी ऐसे मामलों के चस्मदीद गवाह ही रहे। यह भी विश्वास किया जा सकता है कि इस दिशा में उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा। जबकि जो बलात्कार में जाने अनजाने और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्षतः जुड़े रहे हैं, वे चुपचाप अपना काम कर रहे हैं और इस विषय में वर्षों से कानूनी कवायद कर रहे हैं।            मैं रक्षा, सुरक्षा और विघि व्यस्था के साथ स