दो ग़ज़ल 1. करवटों के पहलुओं से . सौंपकर सूरज गया है रात की गश्ती मुझे नींद वैसे भी कोई लगती नहीं अच्छी मुझे करवटों के पहलुओं से जा चुकी हैं हसरतें आजकल करती किनारा लग रही हस्ती मुझे मैं नहीं रखता था कांटों से कोई भी राबिता पर मिली न इक कली भी देखकर हँसती मुझे सब बताते हैं कि उनकी ज़िन्दगी अनमोल है गो मिली है ज़िन्दगी बाज़ार में सस्ती मुझे मेरे हिस्से की तो सारी ज़र ज़मीं वो ले गए क्या समझते कि दो ग़ज़ भी ज़मीं कम थी मुझे ( २९.०८.२३ , ०७.२०-०७.३८ ,) ० 2. आस्तीन में अस्तर . घर दांव पे लगाकर जो घर बना रहे हैं तस्वीर में धड़ सर के ऊपर बना रहै हैं लड़ लड़ के मर रहे हैं इक इक ख़ुशी की ख़ातिर अपना मरण अमर वो मर कर बना रहे हैं मन जिस तरफ़ भी चाहे उस ओर जा रहे हम इस तरह साख मन की सादर बना रहे हैं कितने रईस हैं वो आलिम कमाल के हैं जो ख़्वाबगाह को भी दफ़्तर बना रहे हैं साथी हैं हमेशा के ये सांप कहां जाएं हम आस्तीन में अब अस्तर बना रहे हैं (२८-२९.०८.२३, सोमवार-मंगलवार,) ० डॉ. रामकुमार रामरिया, फ्लैट नं. 202, सेकंड फ्लोर, किंग्स कैस्टल र