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Showing posts from August, 2023

दो ग़ज़ल

दो ग़ज़ल 1. करवटों के पहलुओं से . सौंपकर सूरज गया है रात की गश्ती मुझे नींद वैसे भी कोई लगती नहीं अच्छी मुझे करवटों के पहलुओं से जा चुकी हैं हसरतें आजकल करती किनारा लग रही हस्ती मुझे मैं नहीं रखता था कांटों से कोई भी राबिता पर मिली न इक कली भी देखकर हँसती मुझे सब बताते हैं कि उनकी ज़िन्दगी अनमोल है गो मिली है ज़िन्दगी बाज़ार में सस्ती मुझे मेरे हिस्से की तो सारी ज़र ज़मीं वो ले गए क्या समझते कि दो ग़ज़ भी ज़मीं कम थी मुझे                    ( २९.०८.२३ , ०७.२०-०७.३८ ,) ० 2.  आस्तीन में अस्तर . घर दांव पे लगाकर जो घर बना रहे हैं तस्वीर में धड़ सर के ऊपर बना रहै हैं लड़ लड़ के मर रहे हैं इक इक ख़ुशी की ख़ातिर अपना मरण अमर वो मर कर बना रहे हैं  मन जिस तरफ़ भी चाहे उस ओर जा रहे हम इस तरह साख मन की सादर बना रहे हैं कितने रईस हैं वो आलिम कमाल के हैं जो ख़्वाबगाह को भी दफ़्तर बना रहे हैं साथी हैं हमेशा के ये सांप कहां जाएं हम आस्तीन में अब अस्तर बना रहे हैं                     (२८-२९.०८.२३, सोमवार-मंगलवार,) ० डॉ. रामकुमार रामरिया,   फ्लैट नं. 202, सेकंड फ्लोर, किंग्स कैस्टल        र

सन्नाटे के नाम : दस दोहे

सन्नाटे के नाम : दस दोहे पत्थर की चट्टान ही, उगले सोन खदान। किससे बोल बताइए, नगर पड़ा बेजान।।१।। कान-आंख, सुन-देखते, हिलते पत्थर होंठ।  तब सम्भव थी आपसी, मन से मन की गोंठ।।२।। अहंकार से मुक्त हो, मन हल्का जीवंत। तब पथरीले मौन का, निश्चित होगा अंत।।३।। गाली, नारा, कलह में, गगन भेदते बोल। चिंतन-चर्चा में रहे, अपना पलड़ा तोल।।४।। कौन करे, कैसे करे, अब मुद्दे की बात।  चुप्पी ही संभ्रात है, वाणी हुई कुजात।।५।। 'पद्मविभूषण' हो गये, सन्नाटा श्रीमान। मुखर व्यक्ति के नाम पर, जांचों के फरमान।।६।। जलते घर को देखकर, चुप रह, बनो विदेह। टिप्पणियों पर हो रहा, घर-भेदी संदेह।।७।।  प्रश्न छोड़, हामी भरो, यही शिष्ट-व्यवहार। क्यों लेते हो व्यर्थ में, दुनिया भर का भार।।८।। आयु शेष सुख से कटे, क्यों हो पथ अवरुद्ध। सोच रहा- है सुरक्षित, सत्तर-वर्षी वृद्ध।।९।। भावी का ठेका नहीं, वर्तमान से मुक्त। चिता-भूमि पर ही दिखे, जन्म-मृत्यु संयुक्त।।१०।। 0 @कुमार, २७.०८.२३, भाएसके, बालाघाट।

जानिए जंगल को : एक ग़ज़ल जंगल की

 जानिए जंगल को : एक ग़ज़ल जंगल की ० बल्लम कुल्हाड़ी बरछियां तीरो कमान थे हम बेज़ुबान जंगलियों की वो ज़ुबान थे हम झोंपड़ी थे क़द भी हमारे हदों में थे ऊंचाइयों की होड़ में ऊंचे मकान थे महुए के फूल ज़्यादातर 'अपनी' रगों में थे 'उनकी' रगों में दौड़ते केवल गुमान थे हर्रे बहेड़े आंवले भिलमा गुली ओ चार बेचान्दी कोदो कुटकियाँ ही खानपान थे सालों के पक्ष में कभी तेंदू के पक्ष में हर साल जांच में दिए हमने बयान थे नदियां पहाड़ घाटियां जंगल की खोह में सांसें हंसी ख़ुशी तो क्या   दुनिया जहान थे तुम जिनको जंगली जानवर कहते हो जानेमन वे शेर गौर भालू हिरन ख़ानदान थे ० @कुमार, २२.०८.२३ , भाएसाअके, बालाघाट, ७.०२-९.१५ प्रातः, मंगल भ्रमण शब्दार्थ :   बल्लम = एक लंबी बेंत या बांस की छड़ी जिसके सामने लोहे की नोंक होती है। बरछी = भाले की ही जाति का औज़ार जिसकी फाल या नोंक थोड़ी छोटी होती है। हर्रा = एक कसैला नीरस फल जिसका उपयोग काला रंग बनाया जाता है, दवा में त्रिफला का एक भाग।  बहेड़ा = एक गूदेदार फल जिनकी गुठली का बीज मीठा किंतु मादक होता है, दवा में त्रिफला का एक भाग। आंवला = एक खट्टा

साहित्य समीक्षा :३६ गढ़ी

 क्षेत्रीय -साहित्य/समीक्षा : सुराजी गांव : छत्तीसगढ़िया विकास की अलख – डॉ.मृदुला सिंह ( नाटक लेखक – दुर्गा प्रसाद पारकर ) ० आधुनिक साहित्य के आरंभ में नाटक के उदय का विवेचन करते हुए आ.रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में आधुनिक गद्य साहित्य परंपरा का प्रवर्तन शीर्षक परिच्छेद के अंतर्गत लिखते हैं कि,”विलक्षण बात यह है कि आधुनिक गद्य साहित्य की परंपरा का प्रवर्तन नाटकों से हुआ यह विलक्षण बात क्यों है? इसकी कोई व्याख्या आचार्य शुक्ल ने नहीं दी पर समझा जा सकता है कि इतिहासकार का विस्मय इसलिये था कि पिछले 500 वर्षों तक हिंदी क्षेत्र में नाटक और रंगमंच अनुपस्थित रहा और कहां 19वीं सदी के मध्य से आधुनिक गद्य परंपरा की शुरुआत फिर नाटक से होती है । भारतेंदु के पिता गिरधरदास का’ नहुष ‘ नाटक तो पद्य – बद्य ब्रजभाषा में है । खड़ी बोली में राजा लक्ष्मण सिंह द्वारा गद्य में अनूदित शकुंतला नाटक (1862 )पहले आता है फिर भारतेंदु ,प्रताप नारायण मिश्र ,बद्रीनारायण चौधरी के नाटक आते हैं ।नाटक के बारे में भरतमुनि ने कहा है कि ,”न ऐसा कोई ज्ञान है न कोई न कोई ऐसा शिल्प है, न विद्या है, न ऐसी कोई कला है न य

दो छोटी छोटी कविताएं

 उड़नपरी : दो छोटी छोटी कविताएं 1. सारी उड़ानें बंद हैं इन दिनों रद्द की जा रही हैं  संदिग्ध सवारियों की फ़ेहरिस्तें निष्पक्ष न्यायाधीश निषिद्ध कर दिए गए हैं अत्यधिक ज्वलनशील की श्रेणी में डाला जा रहा है उन्हें ख़त्म कर रहे हैं  धीरे धीरे उन्हें तानाशाह।  उड़नपरियों! किसी का इंतज़ार मत करो... मुर्दे भी कभी उड़ते हैं? 2.  अच्छी लग रही हो  लाल कपड़ों में तुम! सुर्ख़ है तुम्हारे सुर्ख़ होटों की मुस्कुराहट मोहब्बत से और उम्मीदों से लबरेज़ तुम्हारा दिल अब तक तो नीले से लाल हो गया होगा तुम ख़ुशियों और चाहतों और मुस्तक़बिल के   शादाब लम्हों का अहसास हो क्या?  इधर देश में आग जल रही है जलाए जा रहे हैं सारे दस्तावेज़ मिटाए जा रहे हैं कालेकारनामों के सबूत ढहाई जा रही हैं क़ानून की ता'मीरात दहकाये जा रहे हैं नफ़रतों के शोले तुम उनके लाल रंग का आभास हो क्या? देश के कोने कोने से चीख रहे हैं लोग आ रही हैं इंक़लाब की आवाज़ें तुम तानाशाही के ख़िलाफ़ रक्तक्रान्ति का उल्लास हो क्या? रक्तबीजों का रक्त पीकर गूंजता अट्टहास हो क्या? अच्छी लग रही हो तुम  लाल रंग के कपड़ों में! तुम्हारी सारी मांगें पूरी हों! 0 @डॉ. कुमार, १२.०

मृत्यु के एकांतिक गायक : रवींद्रनाथ ठाकुर (टैगोर)

मृत्यु के एकांतिक गायक : रवींद्रनाथ ठाकुर (टैगोर) वे खुलकर जीना चाहते थे। पूरे विश्व में एक स्वतंत्र पक्षी की तरह पूरे पंख फैलाकर उड़ना चाहते थे। वे जन जन से, समाज के हर वर्ग से घुलमिल जाना चाहते थे। संभवत:  इसीलिये ज़िन्दगी ने उनकी कठोर परीक्षाएं लीं। वैभव से भरे जीवन में भी उनका पालन पोषण माता-पिता की व्यस्तताओं के कारण नौकरों चाकरों ने किया। ममत्व के एकांत ने उन्हें भावनात्मक गहराई दी और कल्पना की ऊंचाई पर उनकी आंखें टिक गईं। उचित देखभाल के अभाव में  विलासिता पूर्ण वैभव में भी उनका स्वास्थ्य बिगड़ते रहा। बीमारियों ने उन्हें प्रकृति, मृत्यु और ईश्वर के करीब ला दिया। वे प्रकृति, प्रेम, मृत्यु और ईश्वर के गीतों के अन्यतम गायक बन गए। उनकी विश्व-प्रसिद्धी की संवाहक भारतीय अंग्रेजी काव्य के लिए,  विश्व-स्तरीय नोबल पुरस्कार दिलानेवाली पुस्तक 'द सांग्स ऑफरिंग' (समर्पण के गीत) {जिसे गीतांजलि के नाम से बंगाली और हिंदी के पाठक जानते हैं,} प्रकृति-गान, ईश्वर के प्रति समर्पण और मृत्यु गीत से भरी पड़ी है। वास्तव में एकांत, बीमारी और मृत्यु ने उन्हें सम्बल, आस्था और गीतात्मक ऊर्जा देकर जीवन सं

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त

" नर हो न निराश करो मन को। " राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त 3 अगस्त को 'साकेत' के कवि, राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त की जयंती थी। जिन साहित्यकारों ने खड़ी बोली को खड़ा किया है, उनमें भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद के साथ साथ मैथिलीशरण गुप्त का नाम गर्व से लिया जाता है। तीनों बिल्कुल अलग-अलग धाराओं के मल्लाह थे। मैथिली शरण गुप्त ने प्रसाद की तरह भारतीय लोकवृत्ति पर पारंपरिक कथाओं को अधिक सरलता से प्रस्तुत किया। साकेत उनकी प्रसिद्धि है और महावीर प्रसाद द्विवेदी का शिष्यत्व उनकी नींव। दरअसल द्विवेदी जी के एक निबंध 'कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता' ने ही उनको 'साकेत' लिखने को प्रतिबद्ध किया और राष्ट्रीय पुरस्कार दिलवाए। इसी बिना पर वे राज्यसभा के सदस्य भी हुए और पद्मविभूषत भी। नि:संदेह, इस तरह वे एक साहित्यिक महापुरुष थे। एक समय ऐसा कहा जाता था कि महापुरुष किसी जाति, धर्म, समाज, सम्प्रदाय, प्रदेश और देश की सीमाओं तक  सीमित नहीं होता। लेकिन आजकल ऐसा नहीं है। 'वाद' और 'राजनीति' के इस भ्रांत और आक्रांत युग में किसी विभूति को याद करना भी 'वाद वि