क्षेत्रीय-साहित्य/समीक्षा :
सुराजी गांव : छत्तीसगढ़िया विकास की अलख
– डॉ.मृदुला सिंह
( नाटक लेखक – दुर्गा प्रसाद पारकर )
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आधुनिक साहित्य के आरंभ में नाटक के उदय का विवेचन करते हुए आ.रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में आधुनिक गद्य साहित्य परंपरा का प्रवर्तन शीर्षक परिच्छेद के अंतर्गत लिखते हैं कि,”विलक्षण बात यह है कि आधुनिक गद्य साहित्य की परंपरा का प्रवर्तन नाटकों से हुआ यह विलक्षण बात क्यों है? इसकी कोई व्याख्या आचार्य शुक्ल ने नहीं दी पर समझा जा सकता है कि इतिहासकार का विस्मय इसलिये था कि पिछले 500 वर्षों तक हिंदी क्षेत्र में नाटक और रंगमंच अनुपस्थित रहा और कहां 19वीं सदी के मध्य से आधुनिक गद्य परंपरा की शुरुआत फिर नाटक से होती है । भारतेंदु के पिता गिरधरदास का’ नहुष ‘ नाटक तो पद्य – बद्य ब्रजभाषा में है । खड़ी बोली में राजा लक्ष्मण सिंह द्वारा गद्य में अनूदित शकुंतला नाटक (1862 )पहले आता है फिर भारतेंदु ,प्रताप नारायण मिश्र ,बद्रीनारायण चौधरी के नाटक आते हैं ।नाटक के बारे में भरतमुनि ने कहा है कि ,”न ऐसा कोई ज्ञान है न कोई न कोई ऐसा शिल्प है, न विद्या है, न ऐसी कोई कला है न योग है और न कोई कार्य ही है जो नाटक में प्रदर्शित न किया जा सके।” नाटक का आस्वाद भी अपनी प्रकृति में सामूहिक है अनेक व्यक्ति एक साथ बैठकर उसे देखते हैं और इस एक साथ बैठने में नाटक का प्रभाव बढ़ता है क्योंकि मनोभाव अपनी प्रकृति से अनेक होते हैं। नाटक देखने वाले को इसीलिए हमारे यहां नाम दिया गया ‘ सामाजिक’ नाटक अपनी रचना और आस्वाद दोनों सिरों पर सामूहिक तथा सामाजिक है । (रामस्वरूप चतुर्वेदी ) ऐसी स्थिति में पुनर्जागरण की मूल सामाजिक चेतना को व्यक्त करने के लिए यदि भारतेन्दु और उनके सहयोगियों ने नाटक के माध्यम को चुना तो युगीन परिस्थितियां और काव्य रूप के संबंध की उनकी सही समझ की सराहना करनी होगी।
अब हम बात करेंगे दुर्गा प्रसाद पारकर जी के छत्तीसगढ़ी नाटक ‘ सुराजी गांव ‘ की । नाटक ‘ सुराजी गांव ‘ शीर्षक के ठीक नीचे छत्तीसगढ़ के चार चिन्हारी नरवा ,गरवा ,घुरवा ,बारी लिखा है जो शीर्षक को बखूबी स्पष्ट करने में सहायक है। छत्तीसगढ़ी नाटक की परंपरा का आरंभ काव्योपाध्याय के ग्रंथ में संकलित ग्रामीण वार्तालाप से माना जाता है। 1905 में प्रकाशित पंडित लोचन प्रसाद पांडे कृत ‘ कलि काल ‘ को छत्तीसगढ़ी का प्रथम नाटक माना गया है। छत्तीसगढ़ी नाटक के विकास के विस्तार में न जाते हुए हम पारकर जी के नाटक कि यहां चर्चा करेंगे । सुराजी गांव नाटक कुल 5 अंकों में विभक्त है। नाटक का पहला अंक नरेंद्र देव वर्मा द्वारा लिखा राजकीय गीत अरपा पैरी के धार ,महानदी हे अपार से शुरू होता है । ऐसा महसूस होता है कि छत्तीसगढ़ी नदियों का प्रवाह पाठक के मन में उतर रहा हो। अच्छी शुरुआत कही जा सकती है।प्रथम भाग में छोटे से दृश्य को जिसमे राधा किसन का संवाद गांव के सरपंच से होता है जो नवा छत्तीसगढ़गढ़ कइसे गढ़ाही? के प्रश्न और जिज्ञासा से शुरू होता है और फिर नाटक का मूल उद्देश्य उसके कथ्य के साथ स्पष्ट होता है।
नरवा, गरवा घुरूवा और बारी ‘ केंद्रित योजना सफल करके छत्तीसगढ़ सुराजी गांव योजना को सफल बनाने की बात स्पष्ट हैं । यह सत्य भी है सरकारी योजनाएं फाइलों में दबकर रह जाती हैं सिस्टम में दोष है किंतु हम जागरूक होंगे तो योजनाएं भी सफल होंगी।
इस नाटक के माध्यम से लेखक ने किसानों की आत्महत्या की समस्या को भी उठाया है और साथ ही उसका समाधान भी प्रस्तुत किया है ।गरबा शीर्षक में लेखक पशुओं की समस्या और समाधान पर लिखते हैं । यह अभी भी ज्वलंत समस्या है हम रोज ही सड़कों पर आवारा पशुओं की दुर्दशा देखते हैं। साफ सफाई का अभाव बीमारी चिकित्सा के अभाव से समस्याओं को वे रेखांकित ही नहीं करते बल्कि समाधान भी बताते हैं। इस नाटक का यह उज्ज्वल पक्ष पक्ष कहा जा सकता है। और नाटक के उपसंहार में ‘ बारी ‘ शीर्षक से जैविक खेती को बढ़ावा और ग्रामीणों को आत्मनिर्भर बनने की बात को बहुत ही रोचक संवादों के माध्यम से रखा गया है। नाटक के हर अंक में गीत है ।हिंदी नाटकों में यह गीत – संगीत की परंपरा पुरानी रही है। हमारे छत्तीसगढ़ के लोक नाट्यों में भी गीत की परंपरा रही है ।हबीब तनवीर जी ने अपने नाटक में संगीत को केंद्रीय महत्व दिया था । हबीब जी ने रंगमंच को महाकाव्यत्मक कलेवर प्रदान करने में संगीत की अहम भूमिका थी उनके पात्र गीत गाते नाचते हैं ।
अंत में कहना चाहूंगी कि सुराजी गांव को रंगमंच मिले उसकी अंतर्वस्तु तक छत्तीसगढ़िया आमजन पहुंच सके। जैसा कि हर अंक के अंत में नाटक लेखक का उद्घोष है ‘ गढ़बोन नवा छत्तीसगढ़ राज ‘
मेरी भी यही शुभेच्छा है।
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