मृत्यु के एकांतिक गायक : रवींद्रनाथ ठाकुर (टैगोर)
वे खुलकर जीना चाहते थे। पूरे विश्व में एक स्वतंत्र पक्षी की तरह पूरे पंख फैलाकर उड़ना चाहते थे। वे जन जन से, समाज के हर वर्ग से घुलमिल जाना चाहते थे। संभवत: इसीलिये ज़िन्दगी ने उनकी कठोर परीक्षाएं लीं। वैभव से भरे जीवन में भी उनका पालन पोषण माता-पिता की व्यस्तताओं के कारण नौकरों चाकरों ने किया। ममत्व के एकांत ने उन्हें भावनात्मक गहराई दी और कल्पना की ऊंचाई पर उनकी आंखें टिक गईं। उचित देखभाल के अभाव में विलासिता पूर्ण वैभव में भी उनका स्वास्थ्य बिगड़ते रहा। बीमारियों ने उन्हें प्रकृति, मृत्यु और ईश्वर के करीब ला दिया। वे प्रकृति, प्रेम, मृत्यु और ईश्वर के गीतों के अन्यतम गायक बन गए। उनकी विश्व-प्रसिद्धी की संवाहक भारतीय अंग्रेजी काव्य के लिए, विश्व-स्तरीय नोबल पुरस्कार दिलानेवाली पुस्तक 'द सांग्स ऑफरिंग' (समर्पण के गीत) {जिसे गीतांजलि के नाम से बंगाली और हिंदी के पाठक जानते हैं,} प्रकृति-गान, ईश्वर के प्रति समर्पण और मृत्यु गीत से भरी पड़ी है। वास्तव में एकांत, बीमारी और मृत्यु ने उन्हें सम्बल, आस्था और गीतात्मक ऊर्जा देकर जीवन संघर्ष का साहस और धैर्य प्रदान किया।
प्रेम, प्रकृति, आस्था और मृत्यु के 'अमर गायक' कविवर एवं गुरुदेव के नाम से प्रतिष्ठित रबीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म 7 मई 1861 को कोलकाता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में हुआ। 7 अगस्त 1941 को कोलकाता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में ही रुग्ण शैय्या पर विभिन्न शारीरिक अंगों की विफलता के कारण उनकी मृत्यु हुई। उनकी सेहत 1937 से ही गड़बड़ होने लगी थी. वे अपना होश खोने लगे थे. उन्हें यूरिमिया के साथ प्रोस्टेट कैंसर की भी समस्या हो गई थी. लेकिन वे एक शांतिप्रिय और सम्मानीय मृत्यु चाहते थे. उन्होंने अपने अंतिम दिनों में कहा भी था कि वे खुले आसामान के नीचे आजादी के साथ प्रकृति की शांति के बीच ‘आराम’ करना चाहते हैं.
गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर एक प्राकृतिक व्यक्ति थे. उन्हें प्रकृति के बीच रहना बहुत अच्छा लगता था इसकी गवाही उनकी कृतियों से मिलता है. चाहे कविताएं हों या फिर उनकी कहानियां या पेंटिंग उनका प्रकृति से जुड़ाव कहीं ना कहीं जरूर झलकता था.
सितंबर 1937 में 76 साल की उम्र में जब गुरुदेव की तबियत बिगड़ने लगी और वे दो दिन के लिए अचेत हो गए थे, तब उनकी किडनी और प्रोस्टेट में समस्या का पता चला था. उन्हें बुखार, सिरदर्द, सीने में दर्द और भूख का मर जाने जैसी समस्याओं ने घेर लिया था. गुरुदेव के लिए ये बीमारियां मायने नहीं रखती थीं। वे जरा भी ठीक महसूस करते थे तो काम करने लग जाते थे.
25 जुलाई 1941 को उन्हें जोरासांको लाया गया. डॉ मानते थे कि ऑपरेशन से गुरुदेव ठीक हो सकते हैं. 30 जुलाई को ऑपरेशन की तारीख रखी गई. ऑपरेशन की जानकारी गुरुदेव को नहीं दी गई क्योंकि डॉक्टरों और रिश्तेदारों सभी को भी डर था कि वे ऑपरेशन से इनकार कर देंगे. ऑपरेशन के एक दिन पहले जब उन्हें बताया गया तो वे चौंकने के साथ दुखी भी हो गए थे.
ऑपरेशन के बाद उनकी हालात बिगड़ गई. 4 अगस्त को उनकी किडनी जवाब दे गईं. 6 अगस्त को उनकी हालत और ज्यादा खराब हो गई. फिर सात अगस्त 1941 को दोपहर को उन्हें मृत घोषित कर दिया गया.
गुरुदेव एक शांतिपूर्वक और सम्मानीय मृत्यु चाहते थे. उन्होंने कहा था कि 'मृत्यु के बाद उन्हें खुले आकाश के नीचे प्रकृति की आजादी और शांति के बीच उन्हें विदा किया जाए.' लेकिन ऐसा हो नहीं सका उनके विदाई देते समय लोग लगातार नारे लगाते रहे।
नया आलोक, पुराना आलोक :
जीवन के अन्तिम समय ७ अगस्त १९४१ से कुछ समय पहले इलाज के लिए जब उन्हें शान्तिनिकेतन से कोलकाता ले जाया जा रहा था तो उनकी नातिन ने कहा कि आपको मालूम है हमारे यहाँ 'नया पावर हाउस' बन रहा है। इसके जवाब में उन्होंने कहा कि हाँ 'पुराना आलोक' चला जाएगा और 'नए का आगमन' होगा।
गांधी जी को जिन्होंने महात्मा कहा और महात्मा ने जिन्हें गुरुदेव पुकारा, जनगणमन के उस उद्गाता को उनकी 80 वीं पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धान्जलि!💐
अंत में....घोषणा :
"जब तक संविधान अपनी आत्मरक्षा करता रहेगा और 'जनगणमन' को राष्ट्रगीत के पद से संकीर्णता वादी उतार नहीं देते तब तक भारतीय जनगण को उन्हें याद करने से कौन रोक सकता है?"@ डॉ. रा. रामकुमार.
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संपादन एवं प्रस्तुति : डॉ. रा. रामकुमार, ७ अगस्त २०२३
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