सन्नाटे के नाम : दस दोहे
पत्थर की चट्टान ही, उगले सोन खदान।
किससे बोल बताइए, नगर पड़ा बेजान।।१।।
किससे बोल बताइए, नगर पड़ा बेजान।।१।।
कान-आंख, सुन-देखते, हिलते पत्थर होंठ।
तब सम्भव थी आपसी, मन से मन की गोंठ।।२।।
अहंकार से मुक्त हो, मन हल्का जीवंत।
तब पथरीले मौन का, निश्चित होगा अंत।।३।।
गाली, नारा, कलह में, गगन भेदते बोल।
चिंतन-चर्चा में रहे, अपना पलड़ा तोल।।४।।
कौन करे, कैसे करे, अब मुद्दे की बात।
चुप्पी ही संभ्रात है, वाणी हुई कुजात।।५।।
'पद्मविभूषण' हो गये, सन्नाटा श्रीमान।
मुखर व्यक्ति के नाम पर, जांचों के फरमान।।६।।
जलते घर को देखकर, चुप रह, बनो विदेह।
टिप्पणियों पर हो रहा, घर-भेदी संदेह।।७।।
टिप्पणियों पर हो रहा, घर-भेदी संदेह।।७।।
प्रश्न छोड़, हामी भरो, यही शिष्ट-व्यवहार।
क्यों लेते हो व्यर्थ में, दुनिया भर का भार।।८।।
आयु शेष सुख से कटे, क्यों हो पथ अवरुद्ध।
सोच रहा- है सुरक्षित, सत्तर-वर्षी वृद्ध।।९।।
भावी का ठेका नहीं, वर्तमान से मुक्त।
चिता-भूमि पर ही दिखे, जन्म-मृत्यु संयुक्त।।१०।।
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@कुमार, २७.०८.२३, भाएसके, बालाघाट।
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