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Showing posts from September, 2023

क्षमावाणी

  क्षमावाणी, क्षमापना , मिच्छामि दुक्कड़म,खम्मत खामणा ० अगर दुखाया है दिल किसी का, तो  दिल से  हमको मुआफ़ कर दे।।       (मुआफ़ : क्षमा,) मुहब्बतें हैं हमारी दौलत, जहान ये ए'तराफ़ कर दे।।१।।।              (ए'तराफ़ : प्रमाणित,स्वीकार,अंगीकार) बड़ों की गुरुता है मान ऊंचा, लघुत्व का हो समीकरण में, गुणनफलों के सभी घटक से, ऋणात्मकता ही साफ़ कर दे।।२।। शिकायतों की इमारतों में, लगे हैं अंबार कमतरी के, सभी के क़द इस क़दर बढ़ा दे, ग़ज़ाल सारे जिराफ़ कर दे।।३।। (ग़ज़ाल : हिरण का बच्चा, ज़िराफ़ :  ऊंट जैसा विशाल जंगली पशु,) बड़ी ही बारीक़ है गुमां की, सुरंग लम्बी मगर अंधेरी,  क़िला अहंकार का बड़ा है, विनम्रता से ज़िहाफ़ कर दे।।४।।।  (ज़िहाफ़ :  लघु,) सदी की सबसे है आत्मकेंद्रित, अदब की महफ़िल, सुख़न की दुनिया, ज़रा सरककर मैं पास आऊं, तू ख़ुद को मुझमें मुज़ाफ़ कर दे।।५।। (मुज़ाफ़ :  मिश्रित,) ० @ डॉ. रा. रा. कुमार, १९-२०.०९.२३, ११.५५ ,

नाराज़ हैं गणेश?

 गणेशोत्सव की निराशा बालाघाट में हर मोड़ पर, हर चौक पर गणेश पंडाल बनते थे, ख़ूब जगमगार रहती थी, ख़ूब शोर होता था। प्रतिमा से लेकर सजावट तक में भव्यता की होड़ लगी रहती थी। सड़कें और गलियां उत्सवी उत्साहियों से भरी रहती थी। सौंदर्य और लालित्य के दरिया उमड़ते रहते थे। सड़कों पर मधुमखियों के छत्ते की तरह सिर ही सिर होते थे। पैदल चलना मुहाल होता था। दुपहिया और चौपहियों की मुश्किलें तो पूछो ही मत।  खाना खाने के बाद कल रात दस बजे हम लोगों ने सोचा कि लोगों के आर्थिक सहयोग से, शहर में हर जाति और भाषा भाषी समुदायों ने भव्य समारोह आयोजित किये हैं, जगमगार की है, उसका आनन्द लिया जाए और लोगों की ख़ुशी के दर्शन किये जायें। नहीं, नहीं, पैदल कौन घूम सकता है 100 किलोमीटर की परिधि में?  हां.. तो..  लेकिन ...          हम निराश हुए। पूरा शहर घूम लिया, केवल तीन स्थानों पर बड़ी शान्तिपूर्वक गणेश जी सूनी आंखों से भक्त विहीन पंडाल देख रहे थे। हम उनसे नज़र नहीं मिला सके।          शहर के बाहर पांच किलोमीटर पर भरवेली माइंस है। वहां भी गए । वह भी बालाघाट की तरह शांत और उत्सव से उजाड़ था।            हम पांच किलोमीटर और जंगल क

नवगीत: (हिंदिका)

#संत्रास : #अति_अद्भुत_आभास सखा सुन! सतत सजग संत्रास! अंतर्मन के अन्धकक्ष में, अति अद्भुत आभास!! मन का घट लेकर जिज्ञासा, घाट-घाट पर जाती। सद्भावों का मीठा पानी, कहीं नहीं वह पाती।। ये कैसे पनघट हैं जिसमें, बुझे कभी ना प्यास!! सम्बन्धों की करें भिन्न ही, शस्त्र-शास्त्र परिभाषा। काट रहे दोनों निर्मम हो, आत्मीय अभिलाषा।। अब विषपायी बना रहा, विष देकर हर विश्वास!! कोलाहल करते हैं काले कल्मष, कुटिल कषाय।* व्याकुलता से ढूंढ रहा मन, नीरवता निरुपाय।। शांति मिली, जब सांस ले चुकी, 'स्वप्नों से संन्यास'!!                                                             ....                                          @कुमार,                     २३.०९.२३, स्नेहवार (शनि),                                      .........प्रातः ०७.५५ ०   #शब्दार्थ : (अर्थात् यह कैसी हिंदी?) संत्रास : अज्ञात भय, आन्तरिक पीड़ा,  अंतर्मन : अचेतन, मन की गहराई,  अंध कक्ष : अंधेरे बंद कमरे,  आभास : खटका, अनुमान, अहसास, जिज्ञासा : जानने की इच्छा,  शस्त्र : हथियार, तलवार, भाला, रिवॉल्वर, शास्त्र : ग्रंथ, धर्म-ग्रंथ,  विषपायी : व

ग़ज़ल के नये गवाक्ष

 ग़ज़ल के नये गवाक्ष पूर्णिका की भूमिका   प्रस्तावना : जब किसी कक्ष में बहुत भीड़ हो, कक्ष छोटा पड़ने लगे, धक्का मुक्की होने लगे और लोगों को विशेषाधिकार के आधार पर पहले से बने गवाक्षों पर सांस लेने और जीवित रहने की सुविधाएं प्रदान की जाने लगे तो दीवारें दरकने लगती हैं और एक नये गवाक्ष के खोले जाने का संघर्ष शुरू हो जाता है। नया गवाक्ष खुल जाता है। स्वतंत्रता प्रत्येक जीव का, प्राणी का, वनस्पति का, यहां तक की जड़वत दिखाई  देनेवाले हवा पानी पत्थर आदि का स्वाभाविक संघर्घ है। स्वतंत्रता की जीवेषणा ही जीव को, प्राणी को ढेलकर बाहर की हवा में सांस लेने के लिए बद्ध-कोष्ठों से मुक्त करा लाती है। बीज के अंदर बंद जीवेषणा उसे तोड़कर और धरती की छाती चीरकर अंकुरित हो जाती है और इस सृष्टि में स्थापित करने और बने रहने के लिए जड़ें दूर-दूर तक पत्थरों और भूमि में घुसकर अपनी सत्ता स्थापित करती हैं, अपनी पकड़ मज़बूत बनाती हैं। हवा को बंधन में रखना संभव नहीं है, पानी को कितना बांधोगे, वह बांध तोड़कर निकल जाता है, और पत्थरों का विस्फोट तुम्हारी सभ्यता की चूलें और नींवे हिलाकर तहस नहस कर देता है। इसी जीवेषणा के कारण

हिंदी दिवस : हिंदिका जयंती

  हिंदिका - १: हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!! *{हिंदी ग़ज़ल, हिरणिका(शाब्दिक) या हिंदिका ही कहला सकती है।} ० *हिंदिका : (१४ सितम्बर२०२३)* ० हिंदी है तो बोल रहे हैं।। समझ रहे हैं तोल रहे हैं।। भारत हिंद इंडिया में कुछ, राजनीति के झोल रहे हैं।। हिंदी उर्दू सगी बहन हैं, यह रहस्य हम खोल रहे हैं।। उर्दू हिंदी नहीं विदेशी, इनमें क्यों विष घोल रहें हैं।। बंटवारे के नाम पे बेटे, मां की छाती छोल रहे हैं।। @डॉ.रा.रा.कुमार, १४.०९.२३, गुरुवार, ०८.५० प्रा.

तीन ग़ज़ल

तीन ग़ज़ल क़ाफ़िया : ई,    रदीफ़ : मुसाफ़िर को अर्कान-- फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन  बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़बून अबतर वज़्न 2122 1212 22/112 0 दावते बज़्म दी मुसाफ़िर को की अता ज़िन्दगी मुसाफ़िर को मुख़्तलिफ़ ख़ासोआम से मिलकर मिल गयी ताज़गी मुसाफ़िर को कोई बढ़कर बढ़ाये फिर लौ को कम न हो रोशनी मुसाफ़िर को है मुसाफ़िर वो दूर का शायद दीजिये हर ख़ुशी मुसाफ़िर को कुछ तो रस्ता तबील हो आसां दो दुआ मखमली मुसाफ़िर को              ( @कुमार ज़ाहिद, ०४.०९.२३,२०.५५) *०* रात क्यों बोझ थी मुसाफ़िर को दिल में थी खलबली मुसाफ़िर को   जाने क्यों एक पल न सो पाया देख उस अजनबी मुसाफ़िर को हर सफ़र हमसफ़र के साथ कटे क्यों रहे तिश्नगी मुसाफ़िर को बीच में ही उतर गया क्यों कर थी बड़ी हड़बड़ी मुसाफ़िर को मुस्कुराओ कि मील का पत्थर मिल गया आख़िरी मुसाफ़िर को                    (@कुमार ज़ाहिद,०४.०९.२३,१९.५५)  *०*                    एक मंज़िल मिली मुसाफ़िर को खींचती दूसरी मुसाफ़िर को और ब्रह्मांड में अभी कितनी चौहदी नापनी मुसाफ़िर को वह घड़ी उस घड़ी नहीं आयी चाह थी जिस घड़ी मुसाफ़िर को मुश्किलें काटता बड़ी से बड़ी उम्र मिलती बड़ी मुसाफ़िर को जो मिले बांटता चले सब क