Skip to main content

ग़ज़ल के नये गवाक्ष

 ग़ज़ल के नये गवाक्ष



पूर्णिका की भूमिका  
प्रस्तावना:
जब किसी कक्ष में बहुत भीड़ हो, कक्ष छोटा पड़ने लगे, धक्का मुक्की होने लगे और लोगों को विशेषाधिकार के आधार पर पहले से बने गवाक्षों पर सांस लेने और जीवित रहने की सुविधाएं प्रदान की जाने लगे तो दीवारें दरकने लगती हैं और एक नये गवाक्ष के खोले जाने का संघर्ष शुरू हो जाता है। नया गवाक्ष खुल जाता है।
स्वतंत्रता प्रत्येक जीव का, प्राणी का, वनस्पति का, यहां तक की जड़वत दिखाई  देनेवाले हवा पानी पत्थर आदि का स्वाभाविक संघर्घ है। स्वतंत्रता की जीवेषणा ही जीव को, प्राणी को ढेलकर बाहर की हवा में सांस लेने के लिए बद्ध-कोष्ठों से मुक्त करा लाती है। बीज के अंदर बंद जीवेषणा उसे तोड़कर और धरती की छाती चीरकर अंकुरित हो जाती है और इस सृष्टि में स्थापित करने और बने रहने के लिए जड़ें दूर-दूर तक पत्थरों और भूमि में घुसकर अपनी सत्ता स्थापित करती हैं, अपनी पकड़ मज़बूत बनाती हैं। हवा को बंधन में रखना संभव नहीं है, पानी को कितना बांधोगे, वह बांध तोड़कर निकल जाता है, और पत्थरों का विस्फोट तुम्हारी सभ्यता की चूलें और नींवे हिलाकर तहस नहस कर देता है। इसी जीवेषणा के कारण महापुरुषों ने कहा कि स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है।
किन्तु क्या हम वास्तव में इतने स्वतंत्र हैं? एक पाश्चात्य दार्शनिक ने कहा था कि हमने जन्म तो स्वतंत्राकांक्षा के साथ लिया है, लेकिन हम सभी स्थानों पर बंधनों में हैं। जीवन में, समाज में, संबंधों में, साहित्य में, राजनीति में, आर्थिक नीतियों में, वाणिज्य व्यवसाय में, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हम किसी न किसी कारण से बंधनों में आ ही जाते है।
चूंकि हम साहित्य के संदर्भ में बात करना चाहते हैं, इसलिए वहीं से बात करेंगे। साहित्य का प्रारंभ काव्य से हुआ। संस्कृत से वर्तमान साहित्य के आदिकाल तक और आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक (जबकि गद्य ने भी जन्म ले लिया था) काव्य को अनेक अनुशासनों में, बंधनों में रहकर, छंदों में कसकर अपनी अभिव्यक्ति करनी पड़ी। छंद को काव्यानुशासन भी कहते हैं। रस, छद, अलंकार तीन काव्य के व्यक्तित्व हुए हैं। इन्हीं तीन ने उसे राजसी और सामाजिक सम्मान दिलाया।
एक समय ऐसा भी आया जब बंधन उसके व्यक्तित्व को उभरने से रोकने लगा। तब अभिव्यक्ति ने अपने को छंद के बंधनों से मुक्त कर दिया। यहां तक कि अलंकार भी उतार फेंके। कविता, नई कविता के रूप में अभिव्यक्ति ने अपनी भावनाएं व्यक्त कीं।
लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि छंद पूरी तरह से लुप्त हो गये। जिसमें प्रभविष्णुता थी, जन से जुड़ने की गुणवत्ता थी,  लोक की रुचि को संतुष्ट करने की क्षमता थी, वे छंद बचे रहे। संस्कृत के छंदो ने, हिन्दी के छंदों ने और हजारों साल से अरब और फारस से आए छंद गजल ने अपना अपना महत्व बनाए रखने का प्रयास किया। गीत और गजल आज भी अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं। हिन्दी गीतों में मंडराते अस्तित्व के संकट को दूर करने के लिए नवगीत आगे आए तो गजल ने जदीद गजलों के माध्यम से अपना वर्चस्व उर्दू और हिन्दी में बनाए रखा। बींसवीं सदी कविता, गीत और गजल को समर्पित रही।
यह सबसे चौकानेवाली बात है कि इधर इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के आरंभ से ही हिन्दी छंदों के पुनरोत्थान ने जोर पकड़ा, वहीं उर्दू और हिन्दी गजल के क्षेत्र में नये प्रतिमान खड़े हुए। हिन्दी छंदों के नये नये प्रतिष्ठान बने और सक्रिय हुए तो गजल के नये नये मदरसे सोशल मीडिया के अखाडे में कमर कसकर उतर आये। मंचों में बढ़ती हुई व्यावसायिकता और हास्य व्यंग्य ने गजल को भी अपना रूप बदलने में मज़बूर किया और गीतों को भी और छंदों को भी। हिन्दी छंदों में दोहा, घनाक्षरी, चौपाइयां, कुडलिया, सवैया, गीतिका आदि छंदो को नहीं पछाड़ा जा सका, वहीं गजल अपनी भाषागत शुद्धता, छंद के कठोर अनुशासन और व्याकरण को लेकर हिन्दी क्षेत्र में अपने उत्तराधिकारी तैनात करती चली गई।
ग़ज़ल के प्रति बढ़ती लोकरुचि और उर्दू की अरबियत के कारण हिन्दी गजल के नाम से एक नया रुझान सामने आया। गजल का छंदानुशासन और हिन्दी का भाषा सामर्थ्य लेकर चलते चलते हिन्दी गजल, लोक-रुचि के कारण हजल भी हुई। इसी बीच गीतिका नाम से गजल की एक जुड़वा बहन भी नमूदार हुई, जो उर्दू के छंद और उसके अंग-प्रत्यंग को हिन्दी में रूपांतरित करके जन-संचार-माध्यमों में स्वयं को स्थापित करने लगी।
    बीसवीं सदी के अंन्तिम दशक के आसपास श्री ओम प्रकाश मिश्र ‘नीरव’ ने गजल को हिन्दी में ‘गीतिका’ के रूप में मान्यता दिलवाने का प्रयास किया। नीचे गीतिका के विषय में उनके विचार जान लेना उचित होगा।
1. ‘गीतिका’ के रूप में केवल वही ‘गजल’ मान्य है (क) जिसमें व्यावहारिक हिन्दी भाषा की प्रधानता हो (ख) हिन्दी व्याकरण की अनिवार्यता हो और (ग) हिन्दी छन्दों का समादर हो।
2. ‘गीतिका’ की चर्चा में हिंदी पदावली को चलन में लाने का प्रयास किया जायेगा, किन्तु पहले से प्रचलित उर्दू पदावली के प्रति कोई उपेक्षा का भाव नहीं रहेगा। (गीतिका विधा और गीतिका का ताना बाना: ओम प्रकाश नीरव/ओम नीरव)
यहां हम देख रहे हैं कि श्री ओम नीरव ’ग़ज़ल’ के स्वरूप, संरचना और शिल्प में कोई परिवर्तन किये बिना केवल छंद में हिन्दी का आग्रह कर रहे हैं। अर्थात छंदानुशासन से वे रचनाकार को कोई छूट नहीं देते।
पूर्णिका: परिभाषा, स्वरूप और संरचना
इक्कीसवीं सदी के दूसरे-तीसरे दशक में एक नया ही आंदोलन शुरू हुआ। गजल को छंद और भाषा से मुक्त कर, भाषा, मापनी, विषय की व्याप्ति के आधार पर, उसे पूर्णता के रूप में स्वीकार करता हुआ, पूर्णिका के नाम को काव्यरूप में स्थापित करनेवाला समूह। इसे पूर्णिका के रूप में स्थापित और प्रतिष्ठित करने का बीड़ा उठाया है मध्यप्रदेश जबलपुर की आभा साहित्य संस्था के संचालक डॉ. सलपनाथ यादव प्रेम जी ने।
पहली बार पूर्णिका शब्द मेरी नजरों में सितम्बर 23 के पहले सप्ताह में मेरे एक विद्यार्थी सब इंस्पेक्टर शिव अलग के माध्यम से आया। अपनी रचनाएं जन-संचार माध्यम से वे पूर्णिका के नाम से प्रकाशित करते थे। स्वाभाविक रूप से साहित्य के शिक्षक होने के नाते मुझे जिज्ञासा होनी ही थी। कोई भी नयी विधा या विचारधारा मुझे पकड़कर तब तक नहीं छोड़ती जब तक उसके बारे में मुझे गहराई से ज्ञान न हो जाये। पहले तो मैंने ज्ञान के सागर गूगल से जानने का प्रयास किया कि आखि़र यह क्या है? गूगल की असमर्थता देखकर मैंने शिव से संपर्क किया। शिव ने डॉ प्रेम के दो लेख उपलब्ध कराए। एक ‘पूर्णिका की परिभाषा’ और दूसरा ‘विचार’।  
किसी भी प्रस्थान में ‘विचार’ का महत्व है’ इसलिए पहले ‘विचार’ को लें। ‘विचार’ डॉ. ‘प्रेम’ का गजल संग्रह है। इसके आत्मकथ्य में डॉ. प्रेम लिखते हैं-‘‘इस पुस्तक ‘‘विचार’’ में समाहित ‘ग़ज़ल’ जिसे मैं हिन्दी में ‘‘पूर्णिका’’ कहता हूं, इसे ही उर्दू में ‘कामिल’ कहा जा सकता है।’’
परिभाषा:
अब ‘ग़ज़ल’ जिसे डॉ. प्रेम ‘पूर्णिका’ कहते हैं, उसकी ‘परिभाषा’ में वे लिखते हैं -‘‘पूर्णिका, ‘नेह’ में  मात्रा का बहुत ध्यान रखे बिना, बिना अटके  बोलकर, गाकर पढ़ी जा सके। यही ‘सही पूर्णिका’ होगी। ‘पूर्णिका’ दुनिया के हर क्षेत्र, हर विषय, हर प्राणी, हर समाज, हर व्यक्ति को विषय बनाकर कही, लिखी जा सकती है और हां यह हर बोली, हर स्थिति पर लिखी जा सकती है अर्थात पूर्णिका कहने के लिये कोई भी विषय पूर्णिकाकार चुन सकते हैं।’’
आत्मकथ्य और परिभाषा पढ़ने से ज्ञात होता है कि पूर्णिका के रूप में हिन्दी के रचनाकारों को एक नये नाम से अधिक स्वतंत्रता के साथ लिखने का मार्ग बनाने के लिए डॉ. प्रेम कटि-बद्ध दिखाई दे Smit हैं। यह गजल से मुक्ति का प्रयास यद्यपि संरचनात्मक स्तर पर, नामांन्तरण के साथ ग़ज़ल से मुक्त नहीं होते। संरचना को उन्होंने तिलांजली नहीं दी। शेर को ‘नेह’ कहा, पंक्ति को ‘सुधि’ कहा। इसी प्रकार 'ऊला' को 'पूर्ण सुधि' और 'सानी' को 'सम्पूर्ण सुधि' कहा। काफ़िया को परिवर्तनी और रदीफ को स्थायिनी कहा। इस प्रकार संरचना में ग़ज़ल का स्वरूप उन्होने स्वीकृत किया होगा, ऐसा मेरा विचार था। चूंकि इस दौरान प्रायः रोज ही मेरी डॉ. प्रेम से बात होती ही रहती है तो मैंने स्पष्टीकरण के लिए पूर्णिका के शिल्प, जिसे वे विधान कहते हैं, के विषय में यही प्रश्न किया कि ‘पूर्णिका का शिल्प क्या ग़ज़ल के शिल्प से लिया गया है।’ इसके उत्तर में उन्होंने कहा कि पूर्णिका पूर्णतः नयी विधा है। इसका शिल्प भी स्वप्रेरित है, इसका ग़ज़ल से कोई लेना देना नहीं है।’ प्रायः मैं पाता हूं कि डॉ. प्रेम, 'ग़ज़ल' का नाम न लेना चाहते न सुनना चाहते।  
पूर्णिका की भाषा, विषय और क्षेत्र:
'पूर्णिका की परिभाषा' के अंत में पूर्णिका की भाषा, विषय और क्षेत्र के प्रति अपना मत या विचार स्थापित करते हुए डॉ. प्रेम ने कहा - ‘‘पूर्णिका, नेह में  मात्रा का बहुत ध्यान रखे बिना, बिना अटके  बोलकर, गाकर पढ़ी जा सके। यही सही पूर्णिका होगी। पूर्णिका दुनिया के हर क्षेत्र, हर विषय, हर प्राणी, हर समाज, हर व्यक्ति को विषय बनाकर कही, लिखी जा सकती है और हां यह हर बोली, हर स्थिति पर लिखी जा सकती है अर्थात पूर्णिका कहने के लिये कोई भी विषय पूर्णिकाकार चुन सकते हैं।’
इस परिभाषा में जब डॉ. प्रेम कहते हैं कि मात्रा का बहुत ध्यान रखे बिना तो वे पूर्णिका का विशेष बंधन, मापनी जिसे उर्दू में बह्र कहते हैं, से मुक्त कर देते है। यही नहीं वह भाषा की दृष्टि से भी किसी सीमा में इसे नहीं बांधते और कहते हैं -‘किसी भी बोली में ---लिखी जा सकती है।’ विषय और क्षेत्र की बाध्यता भी समाप्त हो जाती है।
इस प्रकार पूर्णिका सभी रचनाकारों के लिए सहज-साध्य रचना है और बाध्यता किसी भी प्रकार की नहीं है।
पूर्णिका की ‘दशा और दिशा’ के सम्बंघ में मैंने डॉ. प्रेम से अनेक जिज्ञासाएं की
1. प्रत्येक विधा और रचना का अपना विषय, क्षेत्र और संदेश होता है।
2. प्रत्येक रचना अपने सामाजिक, आर्थिक और वैश्विक सरोकारों की आवृत्ति होती है।
3. प्रत्येक रचना के अपनी भाषाई संस्कार होते हैं।
4. पूर्णिका का जन्म 2017 से डॉ. प्रेम की कृति विचार से होता है, अतः उसकी आयु भी छः साल है अतः उसकी शिक्षा, दीक्षा और संस्कार का समय आ गया है। चूंकि आप पूर्णिका के जनक के रूप में जाने जाते हैं, इसलिए इसकी चिन्ता आपको होगी, तो वह क्या है?
सारे प्रश्नों के उत्तर में उन्होंने कहा कि कोई भी व्यक्ति किसी भी भाषा, विचार, सरोकार, विषय, क्षेत्र में अपनी पूर्णिका लिख सकता है। उसका विधान और शीर्षक पूर्णिका होना चाहिए, बस। किसी भी भारतीय या विदेशी भाषा में पूर्णिका के शिल्प में लिखी रचना पूर्णिका के रूप् में स्वीकृत हैं जिसका शीर्षक पूर्णिका है।
पूर्णिका के भविष्य को लेकर उन्हें कोई चिन्ता नहीं है। वे कहते हैं कि इतने कम समय में भी पूर्णिका स्थापित हो गयी है। निदेशक हिन्दी गंथ अकादमी भोपाल सहित अनेक राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय विद्वानों ने पूर्णिका को आशीर्वाद दिया है और स्वीकृति प्रदान की है। डॉ कृष्णकुमार का विशेष उल्लेख करते हुए उन्होने बताया कि लखनऊ में उनकी एक पुस्तक का लोकार्पण हुआ है, जिसमें उन्होने पूर्णिका को एक श्रेष्ठ विधा स्वीकार किया है। बहुत उत्साहित होकर वे कहते हैं कि गजल खत्म हो गई, अब लोग केवल पूर्णिका को जानेंगे। ऐसा कहते हुए उनके अंदर से वही रोमांच फूटने लगता है, जैसे कोई पिता अपनी इकलौती सन्तान के प्रेम से लबालब भर गया हो।
पूर्णिका की बानगियां :
1. डॉ सलप नाथ प्रेम:
1. बुन्देली पूर्णिका
गजब कयी डाये बलमुआं हमाये ,
एक नईं दो   दो सवति संघ लाये
बाहर गए ते  बे कयी दिनन  सें,
खाये ने पीये चढ़ा खें चले  आये
पहलूं  तो मोय बे ने देखत थकते,
अब बे कहत रत मोय तें ने भाये
2 पूर्णिका
सैंया जी सज धज बना करकें  ठाट,
सपरन   कें   लिने गये भेड़ा घाट
बंगला    कें सामू भारी तो गड्ढा,
आजयी    दवो   उनने ओय माटी सें पाटध्
नर्मदा की   महिमा   बड़ी    आय न्यारी,
कहूँ  आए  सकरो,    कहूँ छिछरो  पाट
3. पूर्णिका
हम   सबको   कानून  का    ज्ञान
दे    गये  डॉ    अम्बेडकर   महान
संविधान  के   बल  पर   ही   हम
गाते   रहते     खुश      हो   गान
दुनिया     में   सबसे    अच्छा   है
‘प्रेम’ अम्बेडकर     रचित विधान
4. पूर्णिका
सर्दी खांसी  जब हो  जाती
नींद    हराम तब हो  जाती
छीकें     आतीं   हॉफी      आती
अकड़न   जकड़न  सब हो जाती
जो   औषधि     आराम    दिलाती
‘प्रेम’ कहे     वो   रब   हो   जाती
0
2. विभा जैन (ओजस) इंदौर ( मध्यप्रदेश)
पूर्णिका प्यार बन गया व्यापार
इश्क का चढ़ा बुखार,प्यार कर बैठे हम नादानी में।
अच्छे बुरे की न थी समझ, आग लगे जवानी में।।
कशिश है मेरे दिल में,तुझसे इक बार मिलने की।
प्यार होता है अंधा,ये किताबी बातें ,होती कहानी में।।
कहते है,इकतरफा महुब्बत का कोई अंजाम नहीं होता।
हर महुब्बत को मुकाम मिले, जरूरी नहीं, जिंदगानी में।।

3. उमेश दीक्षित ’पूर्णिका’
दूर तक पता किया आखिर मेरे नजदीक कौन,
हां-अपना सच में करीब एकदम करीब कौन!
नसीब ऊपर ही नहीं आजकल नीचे भी लिखा जाता,
खुश करने में लगा हूं पता चले मेरा नसीब कौन!
भिखारी के घर मिले कल ही नकद करोड़ों रुपए,
अब ढ़ूढ़ना पड़ेगा सबको हक़ीक़त में गरीब कौन!
4.  रजनी कटारे सरस्वती वंदना
पूर्णिका
है हंसवाहिनी कल्याणी माँ, मेरे जीवन को सार दो,
वाणी में बिराजो आकर, मेरे शब्दों को निखार दो,
तेरे चिंतन में सरस्वती माँ, सदा ही लीन रहती हूँद,
झंकृित हो मेरा जीवन माँ, वीणा की झंकार दो,
रस, छंद, अलंकार, काव्य कृति में समाहित हो,
सृजन कल्याणकारी हो, मेरी लेखिनी में धार दो,
5. खेदु भारती सत्येश धमतरी, पूर्णिका
राहत मिली जब समस्या हल हुई
राहत मिली जब समस्या हल हुई ।
कलियाँ खिली जब समस्या हल हुई ।।
ये जिंदगी जीती बाजी हार के ।
साथी यहाँ जब समस्या हल हुई ।।
ना गरजते वो बादल बरसते ।
धारा बही जब समस्या हल हुई ।।
6. गीतकार मनोहर मधुकर
पूर्णीका
वो  आंखों   में   मेरे  बसने  लगा।
होले  से   मन   में  उतरने  लगा।।
वीरान थी अब तक जिंदगी बशर।
जर्राजर्रा अब फिर महकने लगा।।
अहसास  होता  उसके आने  का।
इंतजार दिल अब करने लगा है।।
7. शिवकुमार रजक अलग
’’श्री गणेश ’’
पूर्णिका
प्रथम मना नमन बुध्दि दाता।
शंभु सुवन शुभ लाभ प्रदाता।।
देव जन गजानन गुण  गाते,
सुख दायक मोदक ही भाता।।
मनुज  हमेशा देव मनाते,
श्री गजानन विघ्न हरता।।
           
जो रचनाएं आज सामने आयीं, केवल उन रचनाओं को बानगी के रूप मे यहां प्रस्तुत किया गया है। इनमें डॉ प्रेम की रचनाएं अधिक लेने का कारण सिर्फ इतना कि भाषा और बोली की उनकी बंधनहीनता, विषय की स्वतंत्रता, रस की उदारता आदि के उदाहरण समझ में आ सकें। लेखक का उद्देश्य विश्लेषण या मूल्यांकन का नहीं था क्योंकि उसका यहां अवकाश
भी नहीं और आग्रह भी नहीं है। इसका विचार किसी अन्य अवसर पर भाषा, व्याकरण, भाव, उददेश्य, प्रभाव, सरोकार, आदि के संदर्भ में करेंगे। यहां कुछ और न कहते हुए विश्राम लेना उचित है।
              @ डॉ. रामकुमार रामरिया,                                       .       (डॉ.रा.रा.कुमार)
--
Dr. R.Ramkumar
http://drramkumarramarya.blogspot.com,

Comments

Popular posts from this blog

तोता उड़ गया

और आखिर अपनी आदत के मुताबिक मेरे पड़ौसी का तोता उड़ गया। उसके उड़ जाने की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। वह दिन भर खुले हुए दरवाजों के भीतर एक चाौखट पर बैठा रहता था। दोनों तरफ खुले हुए दरवाजे के बाहर जाने की उसने कभी कोशिश नहीं की। एक बार हाथों से जरूर उड़ा था। पड़ौसी की लड़की के हाथों में उसके नाखून गड़ गए थे। वह घबराई तो घबराहट में तोते ने उड़ान भर ली। वह उड़ान अनभ्यस्त थी। थोडी दूर पर ही खत्म हो गई। तोता स्वेच्छा से पकड़ में आ गया। तोते या पक्षी की उड़ान या तो घबराने पर होती है या बहुत खुश होने पर। जानवरों के पास दौड़ पड़ने का हुनर होता है , पक्षियों के पास उड़ने का। पशुओं के पिल्ले या शावक खुशियों में कुलांचे भरते हैं। आनंद में जोर से चीखते हैं और भारी दुख पड़ने पर भी चीखते हैं। पक्षी भी कूकते हैं या उड़ते हैं। इस बार भी तोता किसी बात से घबराया होगा। पड़ौसी की पत्नी शासकीय प्रवास पर है। एक कारण यह भी हो सकता है। हो सकता है घर में सबसे ज्यादा वह उन्हें ही चाहता रहा हो। जैसा कि प्रायः होता है कि स्त्री ही घरेलू मामलों में चाहत और लगाव का प्रतीक होती है। दूसरा बड़ा जगजाहिर कारण यह है कि लाख पिजरों के सुख के ब

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।

सूप बोले तो बोले छलनी भी..

सूप बुहारे, तौले, झाड़े चलनी झर-झर बोले। साहूकारों में आये तो चोर बहुत मुंह खोले। एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।' ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण। काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे। चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी नि