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नाराज़ हैं गणेश?

 गणेशोत्सव की निराशा

बालाघाट में हर मोड़ पर, हर चौक पर गणेश पंडाल बनते थे, ख़ूब जगमगार रहती थी, ख़ूब शोर होता था। प्रतिमा से लेकर सजावट तक में भव्यता की होड़ लगी रहती थी। सड़कें और गलियां उत्सवी उत्साहियों से भरी रहती थी। सौंदर्य और लालित्य के दरिया उमड़ते रहते थे। सड़कों पर मधुमखियों के छत्ते की तरह सिर ही सिर होते थे। पैदल चलना मुहाल होता था। दुपहिया और चौपहियों की मुश्किलें तो पूछो ही मत।
 खाना खाने के बाद कल रात दस बजे हम लोगों ने सोचा कि लोगों के आर्थिक सहयोग से, शहर में हर जाति और भाषा भाषी समुदायों ने भव्य समारोह आयोजित किये हैं, जगमगार की है, उसका आनन्द लिया जाए और लोगों की ख़ुशी के दर्शन किये जायें। नहीं, नहीं, पैदल कौन घूम सकता है 100 किलोमीटर की परिधि में?  हां.. तो..
 लेकिन ...
         हम निराश हुए। पूरा शहर घूम लिया, केवल तीन स्थानों पर बड़ी शान्तिपूर्वक गणेश जी सूनी आंखों से भक्त विहीन पंडाल देख रहे थे। हम उनसे नज़र नहीं मिला सके। 
        शहर के बाहर पांच किलोमीटर पर भरवेली माइंस है। वहां भी गए । वह भी बालाघाट की तरह शांत और उत्सव से उजाड़ था। 
          हम पांच किलोमीटर और जंगल की तरफ़ बैहर रोड पर निकले। हीरापुर, मानेगांव, टेकाड़ी, धनसुआ, गांगुलपारा तक हम गणेश उत्सव की तलाश करते रहे। 
इस साल या तो गणेश रूठ गए हैं या जनता निराश है। हम तो सोच रहे थे, कि चुनावी बिगुल फूंका जा चुका है। इस बार तो रुपए की गिरावट के बावजूद अकाशतोड़ जगमग का सैलाब आया होगा। मगर विश्व की आर्थिक मंदी की काली चादर यहां भी पड़ी हुई है। 
         
        गणेश जी आप इस वर्ष नहीं आये तो किस मुंह से आपसे कहें ... 'पुढ़च वर्षी लवकर या'

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