तीन ग़ज़ल
क़ाफ़िया : ई, रदीफ़ : मुसाफ़िर को
अर्कान-- फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन
बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़बून अबतर
वज़्न 2122 1212 22/112
0
दावते बज़्म दी मुसाफ़िर को
की अता ज़िन्दगी मुसाफ़िर को
बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़बून अबतर
वज़्न 2122 1212 22/112
0
दावते बज़्म दी मुसाफ़िर को
की अता ज़िन्दगी मुसाफ़िर को
मुख़्तलिफ़ ख़ासोआम से मिलकर
मिल गयी ताज़गी मुसाफ़िर को
कोई बढ़कर बढ़ाये फिर लौ को
कम न हो रोशनी मुसाफ़िर को
है मुसाफ़िर वो दूर का शायद
दीजिये हर ख़ुशी मुसाफ़िर को
कुछ तो रस्ता तबील हो आसां
दो दुआ मखमली मुसाफ़िर को
( @कुमार ज़ाहिद, ०४.०९.२३,२०.५५)
*०*
रात क्यों बोझ थी मुसाफ़िर को
दिल में थी खलबली मुसाफ़िर को
जाने क्यों एक पल न सो पाया
देख उस अजनबी मुसाफ़िर को
हर सफ़र हमसफ़र के साथ कटे
क्यों रहे तिश्नगी मुसाफ़िर को
बीच में ही उतर गया क्यों कर
थी बड़ी हड़बड़ी मुसाफ़िर को
मुस्कुराओ कि मील का पत्थर
मिल गया आख़िरी मुसाफ़िर को
(@कुमार ज़ाहिद,०४.०९.२३,१९.५५)
*०*
एक मंज़िल मिली मुसाफ़िर को
खींचती दूसरी मुसाफ़िर को
और ब्रह्मांड में अभी कितनी
चौहदी नापनी मुसाफ़िर को
वह घड़ी उस घड़ी नहीं आयी
चाह थी जिस घड़ी मुसाफ़िर को
चाह थी जिस घड़ी मुसाफ़िर को
मुश्किलें काटता बड़ी से बड़ी
उम्र मिलती बड़ी मुसाफ़िर को
जो मिले बांटता चले सब कुछ
बांटना लाज़िमी मुसाफ़िर को
वक़्त के साथ मिलते रहते हैं
फल सभी मौसमी मुसाफ़िर को
एक झौंका हवा का है 'ज़ाहिद'
मत समझ आदमी मुसाफ़िर को
(@कुमार ज़ाहिद,०४.०९.२३,२०.११)
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