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Showing posts from May, 2023

पांच आकस्मिक दोहे

 पांच आकस्मिक दोहे जंतर मंतर पर खुली, रक्षालय की पोल। राजतंत्र ओढ़े मिला, लोकतंत्र का खोल। 1 दिल्ली ने ज्यों ही किया, राजदंड-पाखंड।   महाकाल के लोक में, आंधी चली प्रचंड। 2 गुरु-पत्नी का फिर किया, शशि ने यौनाखेट।   सप्त ऋषी गिरकर हुए, धरती पर लमलेट। 3 अहंकार की आख़िरी, इच्छा होगी पूर्ण।  स्थापित सब मूर्तियां, ढहकर होंगी चूर्ण। 4 ठठरी बांधे था कभी, शव-दाहक इक डोम। राम कथा कर बांटता, गरल, बोलकर'ओम'। 5 @कुमार, 30.05.23, सोमवार।

लीक छोड़ तीनों चलें

 लीक छोड़ तीनों चलें इस लोकप्रिय दोहे की आज आवश्यकता हुई तो खोज शुरू किया। दरअसल पहली पंक्ति अंदर थी बाहर नहीं आ पा रही थी। रेडीरेकनर कि तरह गूगल की मदद ली तो इतने विकल्प मिले। आप भी देखिये और सोचिए कि क्या पुस्तकों का सामूहिक संहार ठीक था?सामूहिक संहार दो कारणों से हुआ एक तो प्रकाशकों के प्रलोभन और बाज़ारवाद और दूसरा प्रकाशकों पर लेखकों के संगठनों का 'बाज़ारवादी तथाकथित विचारधारात्मक दवाब' के कारण।  पर मरीं तो किताबें और अनाथ हुई पीढियां।  ख़ैर पुस्तकों की मृत्यु के बाद उनकी अनाथ संतानों की मौसी मां/सौतेली मां या विमाता 'सोशल मीडिया' के धूल होते भंगार से... उक्त दोहे की दुर्दशा पेश है... 1. लीक लीक गाड़ी चले  लीकहिं चले सपूत।  लीक छोड़ तीन ही चलें सागर, सिंघ, कपूत।। 2.  लीक-लीक गाड़ी चलै, लीकहि चले कपूत। यह तीनों उल्टे चलै, शायर, सिंह, सपूत।। 3. लीक लीक तीनो चलें कायर कूत कपूत। बिना लीक तीनो चलें शायर सिंह सपूत।। 4. 'लीक-लीक गाड़ी चले, लीकहिं चले कपूत।  लीक छोड़ तीनों चलें, शायर, सिंह, सपूत'।। 5. लीक लीक कायर चलें, लीकहिं चले कपूत। लीक छाङि तीनों चलें शायर सिंह सपू

दो आदतन गज़लें

एक ही चाल-चलन (बह्र, मापनी) की दो आदतन गज़लें ... १. लफ़्ज़ जब खौफ़ से  गानों से निकल जाते हैं तब तसव्वुर भी   तरानों से निकल जाते हैं रूह बेचैन सी रहती है जिस्म के भीतर लुत्फ़ उठ उठ के   बहानों से निकल जाते हैं कौन मरता है किसे मारना कब सोचते हैं तीर खिंचकर जो कमानों से निकल जाते हैं लोग ख़ुशियों में गले मिलके बलाएं लेते हो मुसीबत तो वो दानों से निकल जाते हैं लाख जज़्बात दबाओ जो ज़मीने दिल में हीरे बन बन के वो खानों से निकल जाते हैं                          अर्थ : १.  दानों से : ज्ञानियों की तरह,          २. खानों से : खदानों से,      २. लटके झटकों से भला ख़ुद को बचाएं कैसे कट गई नाक तो फिर सब से छुपाएं कैसे छह हटा तीन सौ सत्तर भी हटाये हमने अपने लोगों को खुले आम बसाएं कैसे सेब के बाग़ तो कुदरत ने बनाये लेकिन इनको अहबाब का बाज़ार बनाएं कैसे छांटकर बुत कई इतिहास से करते हैं खड़े आज से आंख ये बेशर्म मिलाएं कैसे हाथ में ले लिया सब क़ानूनो इंसाफ़ो अमल हाथ तुग़लक़ से न अब जाके मिलाएं कैसे  या तो नाबीना है दुनिया कि है शातिर शैतां चश्मदीदों की गवाही भी दिलाएं कैसे   बेच ईमान व अज़मत व ज़मीरो ख़ुदबीं दोगले हो

आजकल के सात दोहे

आजकल के सात दोहे नौटंकी करता फिरे, सठ नौटंकी लाल। पेट पकड़कर रो रहा, जन जीवन बेहाल।१। गोदी में बैठे रहें, दुर्बल शब्द निशब्द। किस मां ने कैसे जने, अनुचर,सेवक,अब्द*।२।                                           एक पाप को ढांकने, जो करता सौ पाप।  उसके इस अपराध को, क्षमा करेंगे आप?३।                                       श्रेष्ठ, दुष्ट, विक्षिप्त, खल, नृप रचते इतिहास।  जन के दुख-सुख से नहीं, रखते मतलब ख़ास।४।                                       नाम बदलना हो रही, नई कहावत आज। तन की खुजली हो गई, बढ़कर मन की खाज।५।                                       वह निंदा को समझता, ख्याति, शक्ति, सम्मान।  गाली स्तुतिगान सम, 'पद्मसिरी' अपमान^।६।                                      तुग़लक़ का वह वंशधर, हिटलर का है पौत्र।  गीदड़ उसकी जात है, चमगादड़ है गौत्र।७।                      @कुमार, 21-22.05.23                                     अर्थ =  *अब्द : गुलाम ^अपमान को जो 'पद्मश्री' समझता है

पांच_मुकरियां

  पांच मुकरियां 1. बेमतलब के रंग बदलता। अच्छा होता ढंग बदलता। उसने सबकी किस्मत फोड़ी। क्यों सखि साजन। नहीं गपोड़ी।  ० 2.  इसको उसको बंद कराये।  सौ सौ वह पाखंड कराये।  उसके हाथों में हथियार। ए सखि साजन? नहिं सरकार।  ० 3. बेशर्मी की हद्द कर रहा।  अपनी ही वह भद्द कर रहा। उथली हरकत, ओछे करतब। ए सखि साजन? न सखि साहब।  ० 4.   कथरी ओढ़े घी है खाता।  पाक साफ़ खुद को बतलाता।  बंदरबांट करे मुंह-जबरा। ए सखि साजन? ना सखि लबरा। ० ५.  धंधा, पानी, नोट देखता। पर ख़ुद के ना खोट देखता।  छलिया, ठगिया, फंदेबाज़। ए सखि साजन? नहीं लफ़्फ़ाज़।  @ कुमार, २०.०५.२३, शनिवार https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=pfbid0338tRyMU5S3owvW1AKoQc1irL9jgHtwZTc9MQ8AP71YcVzLfeK1imK5qaNTcutZ34l&id=100000367694987&mibextid=Nif5oz

सुनो, सुनो कुत्ते भौंक रहे हैं - 3

सुनो, सुनो कुत्ते भौंक रहे हैं - 3 (गतांक से आगे) 1. सुनो सुनो कुत्ते भौंक रहे हैं, आ रहे हैं बस्ती में भिखमंगे। कुछ चिन्दी पहने हैं, कुछ ने पहने हैं थिगड़े ,  और कुछ ने पहन रखी हैं रेशमी पोशाकें। 2. सुनो सुनो कुत्ते भौंेक रहे हैं, मेरी पत्नी अन्दर आ रही है, घास फूस  और गुर्रातें हुए धारदार चाकूओं के साथ, जिनसे बहुत ज्यादा शोर हो रहा है। 3. सुनो सुनो! कुत्ते भौंेक रहे हैं, लेकिन तीन में से केवल एक पर वे केवल रेशमी लबादे पर भौंक रहे है वे कभी मुझ पर नहीं भौंकते। राजा रेशमी लबादों का शौंकीन है वह तुम सबको चाय पर बुला सकता है लेकिन मैं चीथडे पहने हूं, मैं थिगड़ों में लिपटा हैं, वह मुझे (चाय के लिए भी) नहीं पूछेगा। सुनो सुनो! कुत्ते भौंेक रहे हैं, राजा अवयस्क बिल्ली के बच्चों का शौकीन है, वह उनके अंदर का सब कुछ निकालकर बाहर फेंक देगा और उनकी खाल के दस्ताने बनाकर पहनेगा। (द थरटीन क्लाॅक (1950) से) 4. सुनो सुनो! कुत्ते भौंेक रहे हैं, ये समाजवादी है जो शहर में आ रहे हैं, कोई चिन्दिया नहीं लपेटे हैं, किसी ने थिगड़े नहीं लपेटे हैं, वे अकड़कर इधर-उधर आ जा रहे है। ग्यारहवीं शताब्दी ये सतरहवीं सदी तक

कुत्ते भौंक रहे हैं। -2

कुत्ते भौंक रहे हैं। -2 (पिछले से लगातार) आप देख सकते हैं कि छः पंक्तियों की पोएम या राइम की अंतिम तीन पंक्तियों में शामिल प्रतीक और बिम्ब मेरे शहर से होते हुए मेरी आंखों और दिमाग में रचे बसे थे। पोएम मेरे लिए पूरी तरह ग्राह्य थी क्योंकि इसमें आदर्श सम्प्रेषणीयता थी। मासूम व्यंग्य और विद्रूपता का पता तो अब लगा, जब दुनिया देख ली, जब चकाचैंध के रहस्य और इंद्रजाल समझ आये। पोएम एकदम चैदह साल के बचपन से उठकर प्रौढ़ हो गयी। लेकिन मजे की बात यह है कि ग्यारहवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी के बीच में, जब इसका जन्म इंग्लैंड में कई किश्तों में हुआ, तब यह वहां किंडर-गार्टन (नर्सरी) यानी शिशु-शालाओं के बच्चों की ‘राइम’ थी, शिशु कविता थी। मुझे इस बात का धक्का लगा था कि इंग्लैंड में जन्मी कविता में भिखारी और थिगड़े-चिंदियां कहां से आ गए? मेरे मन में तो वहां के राजा, रानियां, राजकुमार और राजमहलों की चकाचैंध भरी हुई थी। लेकिन जब मैंने ‘मार्क ट्वेन’ का बाल उपन्यास ‘द प्रिंस एंड पॉपर’ पढ़ा, तब उपन्यास के प्रारम्भ में ही ‘टॉम कॉउंटी’ के नाम से चित्रित गन्दी और गरीब बस्ती देखकर हैरान रह गया।  हठात दिमाग में ग

‘सुनो! सुनो! कुत्ते भौंक रहे हैं’ - 1

  ‘सुनो! सुनो! कुत्ते भौंक रहे हैं’ सुनो सुनो कुत्ते भौंक रहे हैं, आ रहे हैं बस्ती में भिखमंगे। कुछ चिन्दी पहने हैं, कुछ ने पहने हैं थिगड़े ,  और कुछ ने पहन रखी हैं रेशमी पोशाकें।       यह राइम जो ग्यारहवीं शताब्दी से बीसवीं शताब्दी तक पढ़ी सुनी गई इक्कीसवीं शताब्दी के, तीसरे दशक में फिर गूंज उठी है ..                इस राइम से पहला परिचय मेरा तब हुआ, जब मैं मिशन हायर सेकेण्डरी स्कूल सिवनी में नवमी कक्षा में पढ़ रहा था। हमारे अंग्रेजी शिक्षक थे कैप्टेन एम. क.े सिंह। कैप्टेन एम. क.े सिंह उर्फ़ कैप्टन महेंद्रकुमार सिंह के बारे में कहा जाता था कि उन्होंने सेना में रहते किसी को गोली मार दी थी और बाद में इस स्कूल में उन्होंने पढ़ाना शुरू कर दिया था, जिसमें मैं पढ़ रहा था। कैप्टेन एम के सिंह ईसाई थे और मिशन स्कूल स्कॉटलैंड द्वारा स्थापित और संचालित था। इसी स्कूल में कैप्टेन सिंह के बड़े भाई रेवरेंड जे. के. सिंह प्राचार्य थे और हमेशा सूट और टाई में, एकदम अंग्रेज अफसर की तरह रहते थे। मिशन स्कूल एक भव्य अंग्रेजी शैली के तीन मंजिला विशाल भवन में लगता था। ऐसी ही अंग्रेजी शैली का दूसरा भवन भैरोंगंज में

पांच मुकरियां

पांच मुकरियां १. लाग लपेट करे, झुक जाए। लाख तरह की बात बनाए।      सौ-सौ बार बलाएं लेता।      ए सखि साजन, न सखि नेता। ३.५.२३/१.५८ २. अपने को सर्वज्ञ मानता। यहां वहां की ख़ूब छानता।        दुनिया भर का बने निदेशक।        ए सखि साजन, न सखि लेखक। ३.५.२३/२.५ ३. अनजानों में कमी निकाले। मित्रों को आकाश उछाले।          वह जीवन का बने परीक्षक।         ए सखि साजन, नहीं समीक्षक। ३.५.२३/२.१० ४. उसमें फंसे तो निकल न पाते। कितना ही हम ज़ोर लगाते।             वह ताकतवर, हम हैं निर्बल।             ए सखि साजन, न सखि दलदल। ३.५.२३/२.१५ ५. घोषित उससे भला सभी का। लेकिन होता नहीं किसी का।              उससे सबको बड़ी शिकायत।               ए सखि साजन, नहीं सियासत। ३.५.२३/२.२०              @ रा०रा०कुमार , संजीविनी नगर, जबलपुर. म०प्र०   एक और .... घुटना : ३० अप्रैल २०२३. ० दुनिया भर के बोझ उठाये। पोंगा, बैल, गधा, कहलाये।*      जिस्म न चाहे उससे  छुटना।       ए सखि साजन, न सखि घुटना*।  ० * घुटना : टांग के बीच का मुड़ने और धड़ का बोझ उठानेवाला अंग है घुटना।  किंतु हमारे अंग प्रत्यंगों को मुहा