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Showing posts from April, 2024

'ग़ज़ल विधा' का 'सुरीला छन्द'

  'गीतिका' और 'विधाता' यानी 'ग़ज़ल विधा' का 'सुरीला छन्द'  ० ग़ज़ल को अनेक नामों से पुकारकर अनेक सोशल मीडिया के जगतगुरु-गण उस छन्द नाम के जनक हो जाते है और परमपूज्य गुरुदेव बनकर पैर पुजवाने लगते हैं, गंडे बांधने लगते हैं। पिछले दशकों में ये पाखंड बहुत बढ़ा है।  ग़ज़ल को अनेक विश्वगुरुओं ने हिंदी छंदों का नाम तो दे दिया किंतु  उर्दू छन्द की गण-पद्धति को यथावत मानते रहे।  जैसे 'बहरे हज़ल मुसम्मन सालिम' को हिंदी की 'गण्डा संस्कृति' के कवियों ने 'विधाता छन्द' कहा। विधाता अर्थात ईश्वर।  किंतु इस विधाता के शरीर पर से वे अरबी-बाना नहीं उतार पाए और हिंदी-ग़ज़ल बहरे हज़ल के घुंघरू १२२२ ×४  बांधकर नाचती रही। इसके अरकान मुफ़ाईलुन को वे लगागागा ×४  गण-समूह बनाकर पालते रहे।   सभी जानते हैं कि हिंदी गण पद्धति में 4 के गुणांक में गण नहीं हैं, तीन के गुणांक में हैं। यथा यगण : यमाता 122, मगण : मातारा 222, तगण: ताराज 221 आदि। लेकिन इसे नज़र अंदाज़ कर, उन्होंने अरबी अरकान - मुफाईलुन अर्थात 1222 1222 1222 1222 को लगागागा ×4 लिखकर उसे बड़ी उपलब्धि मान लिया।  यही

देखियत कालिंदी अतिकारी

 देखियत कालिंदी अतिकारी। निवेदन : हमारे एक परिचित सुदामा प्रसाद पांडे ने कहीं से खोजकर यह पद दिया, जिसे वे अष्टछाप के वल्लभ-कवि सूरदास जी का 'मूलपाठ' बताते हैं। शोधार्थी इसे देखकर देख सकते हैं कि सूरदास जी ही खड़ी बोली के आविष्कर्ता थे। 0 देखियत कालिंदी अतिकारी। इंद्रप्रस्थ को खाण्डव-वन फिर करने की तैयारी। छल-बल, धन-बल, भय-बल से है दलबदलू बल भारी। पुरुष मात्र बस  एक  वही है, शेष सभी हैं नारी। अपराधी उसके चरणों में लेट बनें अवतारी। हों वो हत्यारे, दुष्कर्मी, कोष उड़ावनहारी। 'सूरदास' इस 'दयामूर्ति' को कहता है 'त्रि पुरारी'। ० सावधान : कुछ भाष्यकार त्रि पुरारी का अर्थ 'त्रिपुर नामक असुर का शत्रु' न कहकर 'तीन लोक का विध्वंसक' करते हैं। खेद है।

गर्मी के पांच मुक्तक

गर्मी के पांच मुक्तक ० तपने लगी हवाएं मौसम भी गरमाया है। किसने कान भरे इसके, किसने भड़काया है? अभी पलाशों ने अपना बिस्तर भी नहीं समेटा, पतझर ने सूखापन चारों ओर बिछाया है। १ अभी फाग की आग चैत के हाथों आई है। अभी बसंती बाला ने बस पीठ दिखाई है। जली नहीं उजयाले पखवाड़े की ज्योति अभी,  यह झुलसाने वाली झंझा क्यों पगलाई है? २ लगता है इस बार तपेंगे ख़ूब जेठ वैशाख। लू की लपट लुटेरी लूटेगी जंगल की साख। मान रखेंगी मन का, महुए की मादक महकारें, तन तो दिनभर जलते दिन की मला करेगा राख। ३ फिर घरघुसे दिनों से रातें, गपियाती जागेंगी। फिर सुबहें देरी से उठकर छाछ, पना मांगेंगी। दुपहरियों की भांय-भांय में अमराई की सांएं, गदराई अमियों के रस में कुछ सुख दुख पागेंगी। ४ अलसाए मौसम में खाना पीना भी बेस्वादी। गर्वीला सर, मान भरा हर सीना भी बेस्वादी। बुझे हुए मन को सब मन की बातें बुरी लगेंगी, सचमुच हो जायेगा आगे, जीना भी बेस्वादी । ५                          @ डॉ.रा.रामकुमार , ४.४.२४,