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Showing posts from July, 2023

हारे मन-हरने के दिन

हारे मन-हरने के दिन हिंसा, दम्भ, दबंग लठैती- के दलदल में देश, कमल असंख्य पले। हुई अचानक हाई जैक है भौचक बैलागाड़ी। अगल बगल अब स्वर्ग उड़ रहा ठोस विकास अगाड़ी। मंगल और दक्षिणी चंद्र पर हम अधपेट चले।  मुट्ठी भर नैतिकता ऊँघे गस्त करे पागलपन।  कच्चे भोलेपन को नौंचे उच्छ्रंखल रूखा मन। योग सिखानकर भोगी सबके मुंह पर राख मले। हारे मन-हरने के दिन हैं जीते छल के पांसे। अवरोधों को लात मारकर उड़ते तीतर फांसे। विधि की निधि का शीलभंग कर दोषी ख़ूब फले।  @ कुमार, ३१.०७.२३,

नवगीत : पृष्ठ-भूमि में देश।

 नवगीत : पृष्ठ-भूमि में देश। मुख्य-पृष्ठ पर, तुम ही तुम हो पृष्ठ-भूमि में देश। शब्दों में लीपा-पोती है, गर्जन, वर्जन, तर्जन। हाव भाव में अदा दोगली वर्चस का पागलपन। आत्म-प्रशंसा, कटु पर-निंदा, कुटिल राष्ट्र संदेश। हथठेलों पर कीर्तिमान रख बेचें गली गली हैं। सभी भगौड़े तक्षक, रक्षक, घोषित महाबली हैं। सांठ गांठ के उद्योगों में कुत्सा करे निवेश। अहंकार का खुला प्रदर्शन मर्दन, दमन, अनादर। नैतिक प्रश्न निषिद्ध, स्वत्व भी पारित हुआ न्याय पर। इतना संकरापन परिवर्तन कैसे करे प्रवेश? ० @ कुमार, २३.०७.२३, रविवार

हम भी रुके नहीं _गीत

गीत :  हम भी रुके नहीं।।   (स्थायी : १६,१० /अंतरा : १६,१२) हम जब अपना दर्द संभाले, उठकर खड़े हुए, तुम भी हम को रोक न पाए, हम भी रुके नहीं।। भोले बचपन ने भविष्य की, कुछ गुठलियां उछाली। सात गगन से ऊपर उसने, अपनी नगरी पा ली। दिशा-दशा के, दूर-पास के सपने सरस सजाकर, आंखों के रंगीन देश में, दुनिया नई बसा ली। जहां हमेशा मधुऋतु रहती, पतझर कभी न आता, अमृत-निर्झर बहे रात-दिन, फिर भी चुके नहीं। फिर प्रचंड यौवन ने उड़ना सीख लिया, अनजाने। घात लगाए गिद्धों के थे, नभ पर ताने बाने। पाना-खोना, मिलन-विरह की सतरंगी घटनाएं, दिल को जीने के सिखलातीं, सौ जीवंत बहाने। भीड़-भाड़ में जुगत भिड़ा कर, रस्ता बना लिया है, इस हिसाब चले कि गाड़ी, अपनी ठुके नहीं। बहियां सारी फाड़ रहे हैं, जला रहे सब खाते। कच्चे-चिट्ठे पढ़ते-लिखते, हम कितने थक जाते। आवक-जावक, आय-व्ययों के, घातक समीकरण में, केवल उलझन ही उलझन हैं,इनसे सुलझ न पाते । ऊंचे-ऊंचे भव्य-गगन की, आकाशी गंगा की, कथा सुनाते झुकी कमर पर, सपने झुके नहीं। ** @ आर. आर. कुमार वेणु, २-१६.१०.१९, फ्लैट 205, किंग्स कैसल रेजीडेंसी, ऑरम सिटी, नवेगांव, बालाघाट

प्यार बांटते चलो!

 प्यार बांटते चलो! पहले इसका सीधा-सा एक अर्थ  था कि सबको प्यार दो। सबको अर्थात सबको। राजनैतिक, साम्प्रदायिक, आर्थिक, धार्मिक, अवर्ण-सवर्ण के भेद के बिना।  किन्तु अब #बाँटने के दो अर्थ हो गये हैँ। एक बाँटना यानी वितरित करना, संग्रह में से ज़रूरतमन्दों को देना। दूसरे बाँटने का अर्थ दो भाग करना, दो हिस्सों या पक्षों में अलग करना। स्वतन्त्रता के बाद  हमने तो यही सीखा और जाना कि बिना भेदभाव और पक्षपात के निर्मल और निच्छल मन से सबको अपना समझना है और प्यार बाँटना है। हमारे बचपन में एक गीत बहुत बजता था -"प्यार बांटते चलो, क्या हिन्दू क्या मुसलमान हम सब हैं भाई भाई!! एक और गीत था जिसमे प्यार की गंगा बहायी जाती  थी।  अब हिन्दु, मुस्लिम, ईसाई और दलितों के बीच  भाईचारे, सहिष्णुता, धर्म निरपेक्षता  की बात  करो तो लोग चौंककर पूछते हैँ -" तुम सवर्ण हिन्दू नहीं हो क्या?" हम भी चौंक पड़ते हैं कि  क्या सवर्ण होने का अर्थ प्रेम,भाईचारा, सहिष्णुता, धर्म निरपेक्षता आदि से शून्य होना है?  प्यार कब से गैर स्वर्ण हो गया? जिस भारतीय संस्कृति में विश्व-बंधुत्व और समग्र-समन्वय को श्रेष्ठ कहा जाता था

15 नवगीत

15 नवगीत 15. 15. मुख्य-पृष्ठ पर, तुम ही तुम हो पृष्ठ-भूमि में देश। शब्दों में लीपा-पोती है, गर्जन, वर्जन, तर्जन। हाव भाव में अदा दोगली वर्चस का पागलपन। आत्म-प्रशंसा, कटु पर-निंदा, कुटिल राष्ट्र संदेश। हथठेलों पर कीर्तिमान रख बेचें गली गली हैं। सभी भगौड़े तक्षक, रक्षक, घोषित महाबली हैं। सांठ गांठ के उद्योगों में कुत्सा करे निवेश। अहंकार का खुला प्रदर्शन मर्दन, दमन, अनादर। नैतिक प्रश्न निषिद्ध, स्वत्व भी पारित हुआ न्याय पर। इतना संकरापन परिवर्तन कैसे करे प्रवेश? ० @ कुमार, २३.०७.२३ , रविवार 0 14. अभी बंधे हो दुराग्रहों से छूटो तो बतलाना। निर्लजता ही नङ्गेपन का ढांक रही पागलपन। दम्भ, धूर्त्तता, वाचालों के हैं मदान्ध संसाधन। अमृत को दुष्कर्मों से मत घातक गरल बनाना। जलती बस्ती, तब चुप रहते कनबुच्चे बन जाते। पिछलग्गों की पीठ ठोंककर तुम प्रधान कहलाते। अपने पाप छुपाकर सबके छोड़ो दोष गिनाना।  गर्हित को वन्दित बतलाते घृणा द्वैष फैलाते। बड़े जतन से जिन्हें बुझाया भेद भाव भड़काते। हिंसा के कटु हवन-कुंड में क्यों कटुता दहकाना? ० @ कुमार,

क्या लिखूं? कितना लिखूं? कब कब लिखूं?

 क्या लिखूं? कितना लिखूं? कब कब लिखूं? ० क्या लिखूं? कितना लिखूं? कब कब लिखूं? दर्द के गहरे समंदर! रात दिन पल पल लिखूं?   जागृति का घट, छलकती ज्योति, जगमग रश्मिरथ, सप्त अश्वों, चक्र चौबीसों पे मैं किस पर लिखूं?   क्लिष्ट था या श्लिष्ट था कुछ भी समझ आया नहीं, ओ कठिन जीवन तुझे कितना सरलतम कर लिखूं?   फूल के गजरे सिरों पर, पांव... पत्थर पर चले, घाव की पीड़ा लिखूं? या सुरभियों के गढ़ लिखूं ?  लाभ-हानि लिख रही दुनिया बही-खाते में रोज़, मैं मगर भोगे हुए जीवन के कुछ सुख दुख लिखूं।  @कुमार, ०९.१०.२१, ०४.१५  फेसबुक से साभार.