15 नवगीत
15.
मुख्य-पृष्ठ पर,
तुम ही तुम हो
पृष्ठ-भूमि में देश।
शब्दों में
लीपा-पोती है,
गर्जन, वर्जन, तर्जन।
हाव भाव में
अदा दोगली
वर्चस का पागलपन।
आत्म-प्रशंसा,
कटु पर-निंदा,
कुटिल राष्ट्र संदेश।
हथठेलों पर
कीर्तिमान रख
बेचें गली गली हैं।
सभी भगौड़े
तक्षक, रक्षक,
घोषित महाबली हैं।
सांठ गांठ के
उद्योगों में
कुत्सा करे निवेश।
अहंकार का
खुला प्रदर्शन
मर्दन, दमन, अनादर।
नैतिक प्रश्न
निषिद्ध, स्वत्व भी
पारित हुआ न्याय पर।
इतना संकरापन
परिवर्तन
कैसे करे प्रवेश?
०
@ कुमार, २३.०७.२३, रविवार
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14.
अभी बंधे हो
दुराग्रहों से
छूटो तो बतलाना।
निर्लजता ही
नङ्गेपन का
ढांक रही पागलपन।
दम्भ, धूर्त्तता,
वाचालों के
हैं मदान्ध संसाधन।
अमृत को
दुष्कर्मों से मत
घातक गरल बनाना।
जलती बस्ती,
तब चुप रहते
कनबुच्चे बन जाते।
पिछलग्गों की
पीठ ठोंककर
तुम प्रधान कहलाते।
अपने पाप
छुपाकर सबके
छोड़ो दोष गिनाना।
गर्हित को
वन्दित बतलाते
घृणा द्वैष फैलाते।
बड़े जतन से
जिन्हें बुझाया
भेद भाव भड़काते।
हिंसा के कटु
हवन-कुंड में
क्यों कटुता दहकाना?
०
@ कुमार, २३.०७.२३, रविवार
०
13.
लोग अपरिचित, शहर अपरिचित,
आ पहुंचा तो ज़रा ठहर लूं।
बहुत तेज़ रफ़्तार, हड़बड़ी,
चेहरे पर अज्ञात विवशता।
कुपित अतृप्त शुष्क आंखों में
बसी हुई है गूढ़ जटिलता।
उकताहट, आपाधापी है,
क्या इनसे ही जीवन भर लूं?
जिनको देखो उसके माथे,
'युग का पहरेदार' लिखा है।
सबने अपने अपने सच का
एक नया इतिहास लिखा है।
अब क्यों अपना सत्य बताकर
उनसे पंगे चार प्रहर लूं।
ऐसे रहूं कि जैसे रहता
केले के पत्ते पर पानी।
जब तक मन चाहे मैं ठहरूं,
फिर चल दूं सब मिटा निशानी।
निर्णय सदा आख़िरी लेता,
व्यर्थ कभी न अगर-मगर लूं।
०
@ डॉ. रा.रामकुमार, ७.२.२३, मङ्गलवार, ८.३८
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12.नवगीत : नाग गाथा
दूध पियेंगे
नाग नचेंगे दंशित कर देंगे।
खेतों में, मंदिर में, चूहों के बिल में रहते।
आंखों, जिव्हा, अस्तीनों में, छुप दिल में रहते।
औचक फूंक
मारकर सुख से वंचित कर देंगे।
प्रतिशोधों की कथा युगों से लिखने से है प्रीत।
याद विषैली लिए जी रहे, विषधर गरलातीत।
भावी के माथे
पर कटु-विष अंकित कर देंगे।
स्वर्ग धरा का धरा हुआ है सहसफणी के शीश।
भय से भरे जनों के हैं वे, भयत्राता अवनीश।
वे भय का
साम्राज्य सभी में खंचित कर देंगे।
@कुमार, ८.५.२३, १.२५, सोमवार,
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11. नवगीत : बुझ न जाएं दीप
बुझ न जाएं दीप देहरी के किसी क्षण
तेज हैं ऋतु-संकरी* पागल हवाएं।
घेर लेती हैं घटा घनघोर, कुसमय खेत।
जल नदी में नहीं ठहरे, कसमसाती रेत।
मल रहीं नभ में सतत काजल हवाएं।
जंगलों में अब कोई हांका नहीं है।
कोई जीते जी मरे घाटा नहीं है।
सिसकती झुरमुट में छुप घायल हवाएं।
है नई पगडण्डियों में सुगमुगाहट।
पेड़ आकुल, पत्तियों में सरसराहट।
फिर थपकतीं हैं कहीं मादल हवाएं।
@कुमार,५.५.२३, ४.३०
शब्दार्थ :
ऋतु-संकरी*: विपरीत ऋतुओं से सम्भूत, बेमौसम, बेमेल ऋतुओं की,
मादल : ढोलक जाति का वनवासी वाद्ययंत्र,
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10. नवगीत : हम बिन, तुम बिन
मत उड़, मत उड़
ठूंठ की चिड़िया
बहुरेंगे दिन। मत उड़, मत उड़....
ताप तापकर
तपे हुए दिन
निखर जाएंगे।
अंधड़ वाली
धूल ओढ़कर
सँवर जाएंगे।
आती ही हैँ
भोरें स्वर्णिम
रातें गिन-गिन। मत उड़, मत उड़....
हरे हो गए
जलते जंगल
छाँह बनेंगे।
धुआँ धुआँ
आहोँ के बादल
नीर सनेंगे।
मन मयूर
नाचेंगे खुलकर
ताक धिनक धिन। मत उड़, मत उड़....
फूल खिलेंगे
सपन सजेंगे
पिक बोलेंगी।
दबी दबाई
गूढ़ गुत्थियां
कल खोलेंगी।
क्यों फीके हों
भावी उत्सव
हम बिन, तुम बिन। मत उड़, मत उड़....
@ कुमार, (२१.०४.२३,मुखड़ा, अन्तरे २३.०३.२३)
9. नवगीत : फॉसिलों से
दूसरों को
कम समझना छोड़ दो,
ख़ुद ब ख़ुद
तुम भी बड़े हो जाओगे।।
फूल, फल, बादल, हवा,
जल, धूप, जंगल;
चांद-सूरज के लिए
थोड़ी बने हैं।
व्यक्तिगत या पैतृक
कुछ भी नहीं है,
क्यों जमाखोरों के तन
इतने तने हैं।
फेरकर मुंह,
क्यों मलाई खा रहे हो,
इस तरह तो
धरा में दाबे घड़े हो जाओगे। दूसरों को....
खुदी खाई चाहती
मैदान होना,
हर पहाड़ी चाहती
समतल बिछौना।
झील में लेते सितारे
डुबकियां हैं,
तुम भरे बैठे
बड़प्पन का भगौना।
अकड़ना है
जिस्म के मरने का भोंपू
तनो मत यूँ
फॉसिलों* से तुम कड़े हो जाओगे। दूसरों को....
बांह फैला
तुम भरो विश्वत्व नभ सा,
किंतु क्या निहितार्थ इसका?
बांटना जन,
और कहना बांटकर खाना
बड़ा परमार्थ सबका।
भोगकर नित
स्वम्भू वर्चस्व का सुख
और कितने
अन्तरिक्षों में खड़े हो जाओगे। दूसरों को....
@ कुमार, बुद्ध पूर्णिमा
०६.०४.२३/०५.०५.२३, ११.५६
शब्दार्थ :
*फॉसिल : पत्थर हुए, जीवाश्म,
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8. नवगीत : आएंगे कब
नाप रहे
नव-युग की गर्दन
युग-युग के हत्यारे।
पीत क्रांति
आ रही बजाती
नँग धड़ंग नगाड़े।
पावनता
बस शब्द मात्र है
पाखण्डी पिछवाड़े।
करती है
कुंठा कुत्साएँ
अपने बारे न्यारे।।
नियमभंग
ऋतुएं, मौसम हैँ
मनमानी में डूबे।
ख़ूब हुए
सपनों पर हमले,
इसीलिए हैं ऊबे।
बेरौनक
दिन लगें आजकल
बोझिल साँझ सकारे।
खेतों की
मेड़ों पर लाशें
गया टांगकर हलधर।
हल के फल,
हँसिया हैं मुथरे
हुए भोथरे बक्खर।
आएंगे
कब धार लगाने
बस्ती में बंजारे।
@ रा. रामकुमार, ३१.०३.२३/००.४५-२३.०४.२३/०८.५५
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7. नवगीत : सोच रहे हैं-
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सोच रहे हैं-
सपनों के
परकटे परिंदे,
"भरें उड़ानें,
शुष्क गगन में
ज़ोर लगाकर।"
बांह पसारे
ठगा क्षितिज भी
बुला रहा है।
इंद्रधनुष से
मूर्छित मन को
हिला रहा है।
मिलकर हम भी
उसे संभालें
हाथ बढ़ाकर। सोच रहे हैं- .....
दिन की पीड़ा
रातें हर लें
थपकी देकर।
थकन मिटाए
तन भी छोटी
झपकी लेकर।
चलो, चलें हम
इसी जुगत को
नीति बनाकर। सोच रहे हैं- .....
आंसू पीकर
आह दबाकर
खाद बनाएं।
बंजर भू पर
उत्साहों की
धान उगाएं।
पाएंगे हम बीज,
गणित के
जोड़ घटाकर। सोच रहे हैं- .....
@ रा. रामकुमार, ३०.०३.२३/२३.०४.२३
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