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Showing posts from February, 2011

बांझ आम इस बार बहुत बौराया ।।

कुदरत ने दिल खोल प्यार छलकाया बांझ आम इस बार बहुत बौराया ।। देख रहा हूं नीबू में कलियां ही कलियां । फूलों से भर गई नगर की उजड़ी गलियां। निकले करते गुनगुन भौंरे काले छलिया। उधर दबंग पलाशों ने भी अपना रंग दिखाया।। बांझ आम इस बार बहुत बौराया ।। खुसुर फुसुर में छुपे हुए फागुन के चरचे। नमक तेल के साथ जुड़े रंगों के खरचे। मौसम ने खोले रहस्य के सारे परचे। कठिन परीक्षा है फिर भी उत्साह समाया । बांझ आम इस बार बहुत बौराया ।। लहरायी बाली गेहूं की चने खिले हैं। मिटे मनों के मैल खेत फिर गले मिले हैं। बंधे जुओं के बैल चैन से खुले ढिले हैं। गीत हवा ने लिखे झकोरों ने हिलमिलकर गाया। बांझ आम इस बार बहुत बौराया ।। 17.02.11 गुरुवार

लोभ की सृजन-धर्मिता

लोभ सृजन का मूल तत्व है। ‘एको अहं बहुस्यामि’ महावाक्य में एक से बहुत होने का लोभ छुपा हुआ है। लीपापोती करनेवाले औदात्त्य-लोभी इस ब्रह्म-सत्य को झुठला नहीं सकते। लोभ में गहन आकर्षण का ‘सेब’ होता है जो न्यूटन जैसों के सामने ही पेड़ से टपकता है। ‘सत्य क्या है’ इस जिज्ञासा का लोभ उसे गुरुत्वाकर्षण की क्रेन्द्र-भूमि तक ले जाता है। मेरी लार जिस सुन्दर वस्तु को देखकर टपकती है , उसे पाने के लिए मैं उतावला हो पड़ता हूं ,टूट पड़ता हूं। गिरता भी हूं और जिसे हम किस्मत कहते हैं उस ‘असफलता की राजकुमारी’ ने हमारी तरफ़ यदि ध्यान नहीं दिया तो पड़ा भी रह जाता हूं। मानलें कि यह एक से दो होने का प्राथमिक-लोभ अगर फलीभूत हो गया तो दूसरा लोभ सताने लगता है , जिससे तीन होने का लोभ जागृत होता है। कभी-कभी दो और दो चार हो जाने के गणित से दो से चार हो जाते हैं। यही सृजन-धर्मिता है। इससे संगठन बनते हैं। अनुयायी 'बंधते' हैं और 'उन्माद की बंधुआगिरी' में लिप्त हो जाते हैं। संन्यासी लोग प्रतिक्रियावादी हैं जो प्रकृति की सृजन-शक्ति को अपनी उदासीनता से नष्ट कर रहें हैं, ऐसा कहना सत्य को एक तरफ से जानना है।