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Showing posts from July, 2020

नवगीत : फल-स्वरूप परिणाम

फल-स्वरूप परिणाम * भारी होने लगी आजकल, दिल पर, हल्की सांस। व्याकुलता के व्यग्र गिद्ध से बचा न मन का भेद। गहन टीस के तीक्ष्ण दांत भी अधर गए हैं छेद। गहराई में कुंडली मारे बैठा है संत्रास। फल-स्वरूप परिणामों का है निर्दय-निर्मम दंड। अनहोनी की छैनी करती हृदय-पिंड के खंड। न्यायालय आते-जाते ही मरते सभी प्रयास। हम विकास की सुनते-सुनते गठिया-ग्रस्त हुए। कड़वे काढ़े पी-पीकर भी केवल त्रस्त हुए। ऊपर से दो चार सुनाकर जाती शरद बतास। नीबू, इमली, आम, अमाड़ी, हमें चिढ़ाते हैं। कभी कबीट-करौंदे मिलकर खूब खिझाते हैं। चटनी के चटखारे लेकर चहके बहुत खटास। @ डॉ. रामकुमार रामरिया, २२.०७.२०२०, १.२०, अपरान्ह,

किसलिए किसके लिए (गज़ल)

2122 2122 1212 22 गर्दिशों में भी रखा रोज़ जा रहा बाहर। किसलिए किसके लिए ये दिया रहा बाहर। बाढ़, बीमारी, महामारियां घुसीं भीतर, आदमी जाता कहां खुद खड़ा रहा बाहर। तेल को मुँह मेँ भरे है, मशाल फूंके है, आग अन्दर है मगर वो बुझा रहा बाहर। दिल की दौलत है निगाहों को सजाने आई, अश्क की शक्ल में नादां बहा रहा बाहर। सिफ्र से ज्यादा ज़िह्न में नहीं बचा कुछ भी, सिरफिरा है जो बहुत कुछ बता रहा बाहर। @कुमार ज़ाहिद, २३,०७,२०२० बालाघाट,9893993403

ग़ज़ल

ग़ज़ल काफिया  : इये रदीफ़      : जा रहे हैं। अरकान   : 122 122 122 122 अजब जिल्दसाजी किये जा रहे हैं किताबों से अब हासिये जा रहे हैं। दिए जा रहे हैं ज़हर पर ज़हर वो इधर हम मज़े से पिये जा रहे हैं। हुए जा रहे हैं वो महरूम हमसे हमीं हैं तवज्जो दिए जा रहे हैं। हमारे सभी फैसले कल पे टाले मगर हम भरोसा किये जा रहे हैं। न सांसें न धड़कन न मौसम हमारा मगर हम भी हम हैं जिये जा रहे हैं। दिए जा रहे हैं वो इल्जाम सौ सौ बड़े शौक से हम लिए जा रहे हैं। सदाकत हमारा है ईमान ज़ाहिद फटे लाख लेकिन सिए जा रहे हैं। @कुमार ज़ाहिद, 20072020

आषाढ़ का पहला दिन-2

आषाढ़ का पहला दिन-2 (गतांक से आगे) यहां विशेष रूप से देखने की बात यह है कि राम अपने अनुज लक्षषम के साथ 'अनेक भक्ति, विरक्ति, नृपनीति और विवेक की कथाएं' करते हुए वर्षावास अथवा चातुर्मास में भी पूर्णतः राग विरक्त नहीं हो पाए।अगले क्षण जब 'आषाढ़ के मेघ' को तुलसीदास राम के मुख से 'बरषा काल मेघ नभ छाए' कहलवाते हैं, तब अपनी मर्यादा का महिमामंडन करते हुए विरही राम कहते हैं, "यद्यपि वर्षा काल के मेघ को देखकर मेरे मन में अत्यंत हर्ष हो रहा है। अनुज लक्ष्मण! बादलों को देखकर मेरे मन का मोर नाच रहा है किंतु इस गृहस्थ के विरति-युक्त हर्ष को विष्णु के भक्त की भांति देख। किन्तु, इसके बाद ही राम के मुंह से ऐसी बात निकल जाती है जिसको लेकर आज तक 'भौतिकवादी या यथार्थवादी विद्वान' राम के मर्यादा पुरुषोत्तम की उपाधि पर प्रश्न उठाते रहते हैं। वह विवादस्प्रद पंक्ति है : घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा।। तदन्तर तुलसीदासजी अनेक उपमा-उपमानों के माध्यम से नीति और रीति के साथ-साथ भारतीय दर्शन का ऐसा इंद्रधनुष बनाते हैं जिसके सौंदर्य में 'प्रिया-हीन

आषाढ़ का पहला दिन -1

आषाढ़ का पहला दिन -1 जीवन की आपाधापी, रोज़मर्रा की भागदौड़ और सुविधाओं की बाधादौड़ में मनुष्य तिथियों-तारीख़ों को याद करने के लिए भी मोबाइल का स्क्रीन ऑन करता है। गनीमत है कि स्मार्ट फोन के चेहरे पर मुस्कान की तरह तारीख़, समय, दिन आदि ज़रूरत की बातें पुती हुई होती हैं। इस तरह मोबाइल हमारी दैनंदिन जीवन की श्वांस प्रश्वांस बन गया है। किंतु इस पर भी हम भी हम ही हैं। अपनी ट्रस्ट व्यस्तताओं के चलते हम इसी मोबाइल को कहीं रखकर भूल जाते हैं। भूल जाने के उस क्षण में हमारी हालत देखने लायक होती है... बेचैन, बदहवास, लुटे पीते, असहाय, निरुपाय, निराधार, उन्मत्त, आवेशित, आक्रोशित और उद्वेलित यहां से वहां चकराते रहते हैं। हमारी चिड़चिड़ाहट उन पर उतरती है जो हमारे अभिन्न और अधीन सहायक होते हैं। अजब दृश्य होता है कि विस्मृतियों का सारा ठीकरा स्मृतियों पर टूटता है। क्या वास्तव में हमारी अपनी अस्त-व्यस्त स्मृतियों के लिए दूसरे ही जिम्मेदार हैं? क्या हो गया है हमें? हम दौड़ते-हांफते कहां आ गए हैं? मोबाइल को दुनिया का सच्चा और एकमात्र मार्गदर्शक मानकर हम उसी में सिमटकर रह गए हैं। हम अपनी सारी जानकारियां, सारे रहस

चौदह_बरस_में

मेरा_पहला_आहत_हाइकु : चौदह_बरस_में (14 अगस्त 2004) ०० धनजंय चटर्जी वह राक्षस था जिसे 14 अगस्‍त 2004 में रेप और हत्‍या के केस में फांसी पर लटकाया गया था। चटर्जी एक सोसाइटी में गॉर्ड (रखवाला) था। उसने  5 मार्च 1990 को सोसाइटी की स्‍कूल जाने वाली 14 साल की बच्‍ची हेतल पारीख का पहले रेप किया और फिर उसकी हत्‍या कर दी थी। 14 साल तक जेल की सजा काटने के बाद उसे फांसी पर लटकाया गया। अलीपुर सेंट्रल जेल में 14 अगस्त 2004 में धनंजय चटर्जी को फांसी दी गई थी। कितनी अद्भुत बात है कि जिस धनंजय चटर्जी को 14 अगस्त 2004 को फांसी हुई उसका जन्म भी 14 अगस्त 1965 को हुआ था। उसने 14 वर्ष की नाबालिग लड़की से ब्लात्कार किया, 14 साल मुकदमा चला और अंततः उसे 14 तारीख को ही फांसी हुई।  इस 14 के आंकड़ों को,  14 अगस्त 2004 को ही, एक विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में पुनश्चर्या कार्यक्रम के दौरान समाचार सुनने के बाद मैने निम्नलिखित हाइकू में बांधने का प्रयास किया, देखिये... हाइकू : #चौदह_बरस 5 7 5 मार डालेगी चौदह बरस में मरी लड़की १४.०७.२०२० किन्तु धनंजय की फांसी के बाद भी नाबालिग कन्याओं के साथ बलात