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Showing posts from March, 2020

कब कहां हादसा नहीं होता।

बह्र 2122 1212 22 मेरी कोशिशें.. कब कहां हादसा नहीं होता। बस हमें ही पता नहीं होता। उम्र रहबर है' साथ में उसके, क्या तज्रिबः हुआ नहीं होता। वक़्त की हैं इबारतें हम सब, कोई' अच्छा बुरा नहीं होता। नुक्स वो ही निकालते जिनके, हाथ में आइना नहीं होता। तल्खियां शीरियां मिलें जो भी अब किसी से गिला नहीं होता। अब तो कुछ इस तरह का आलम है, मैं किसी से ख़फ़ा नहीं होता। क्यों दवा, क्यों दुआ करे ज़ाहिद, जब कोई फायदा नहीं होता। @कुमार ज़ाहिद, १७.०३.२०२०

*अपने अपने महाभारत*

*अपने अपने महाभारत* दोनों ओर की सेनाएं युद्ध क्षेत्र में आमने सामने खड़ी हैं। सेनाएं भी किनकी? जिनमें कभी आपस में प्रेम-व्यवहार था, मिठास थी। फिर जैसा कि होता है, लोभ आ गया, शासन करने की भूख आ गयी, प्रभुत्व और अधिकारी बनकर हुक्म चलाने का अहंकार आ गया, भूमि, धन और उपभोग पर कुंडली मारकर बैठने का लालच आ गया। कुलमिलाकर नीयत बिगड़ गयी। बांट कर खाने और मिलकर रहने के स्थान पर साजिश, षड्यंत्र और चक्रव्यूह रचने यानी चालें चलने की तथाकथित बुद्धिमानी आ गई। तब उठी हक़ की बात। अपने हिस्से के सुख को पाने की बात। अपने लिए जीवन की सुविधओं को मांगने की बात। तब मुट्ठी भर पांडवों ने अपना नीति-निर्देशक चुना यदुकुल नरेश कृष्ण को और भारी संख्यावाले या भारी बहुमत वाले *अंधे-सम्राट धृतराष्ट्र* के पीछे खड़े कौरवों ने चुना गांधार युवराज शकुनि को अपना सलाहकार। एक पुरानी कहावत है कि जब दो लड़ते हैं तब फायदा तीसरे को होता है। महाभारत में वह तीसरा तो नहीं था पर कलयुग में ऐसे बहुत हैं। भारत और पाकिस्तान को लड़ाकर किसे फायदा है, दोनों को अपने हथियार बेचकर कौन अकूत धन कूट रहा है? कौन दुर्योधन के घर भी छप्पन भोग उड़ा

स्वांतः सुखाय

उन दिनों की #वस्तुगत_स्मृतियों को समर्पित  ---विरह-गीत : मेरे सरस व्यतीत *** अन्तर्मन में टीस उठे तो गाऊं!! मेरे सरस व्यतीत तुझे मैं, आठों पहर बुलाऊं!! * सुनते हैं फागुन है वन में फिर बसन्त छाया है! मेरे मुरझे मधुमासों पर पतझर का साया है! दुनिया भर के संतापों के कद बौने निकले हैं, मेरे *मूल दुखों के पीछे नाम तेरा आया है! आ मेरे अपराधी तुझको, उमर-क़ैद करवाऊं !! * वे पत्थर सब टूट चुके हैं, जिन पर नाम तुम्हारा। वे लहरें अब कुंठित जिनमें तुमने रूप निखारा! उन पेड़ों को कहां तलाशूं जिनसे रस टपका था, उन घाटों से प्यास बुझे क्या, जिनका खुश्क किनारा। अब किससे कल का दुख बांटूं किसको कष्ट सुनाऊं!! * गांवों से गोधन, गोधूली, गोरस, गम्मत गायब। अमराई, अपनापन, झूले, पनघट, पंगत गायब। बाड़ी की बरबटियाँ, भुट्टे, ककड़ी, कद्दू, लौकी, किसकी नज़र लगी नजरों से नेकी, नीयत गायब। अब किससे लूं राम-भलाई, किसको गले लगाऊं? * आ जाओ मेरे बिछड़े पल, आती-पाती खेलें! स्मृतियों ने लगा रखे हैं, सूने मन में मेले! छुपा-छुपौअल की कितनी ही, छुअन छुपा रक्खी हैं, जिन दांडों को भुगत चुके हैं, आ फिर उनको