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स्वांतः सुखाय



उन दिनों की #वस्तुगत_स्मृतियों को समर्पित  ---विरह-गीत :
मेरे सरस व्यतीत
***
अन्तर्मन में टीस उठे तो गाऊं!!
मेरे सरस व्यतीत तुझे मैं,
आठों पहर बुलाऊं!!
*
सुनते हैं फागुन है वन में फिर बसन्त छाया है!
मेरे मुरझे मधुमासों पर पतझर का साया है!
दुनिया भर के संतापों के कद बौने निकले हैं,
मेरे *मूल दुखों के पीछे नाम तेरा आया है!
आ मेरे अपराधी तुझको,
उमर-क़ैद करवाऊं !!
*
वे पत्थर सब टूट चुके हैं, जिन पर नाम तुम्हारा।
वे लहरें अब कुंठित जिनमें तुमने रूप निखारा!
उन पेड़ों को कहां तलाशूं जिनसे रस टपका था,
उन घाटों से प्यास बुझे क्या, जिनका खुश्क किनारा।
अब किससे कल का दुख बांटूं
किसको कष्ट सुनाऊं!!
*
गांवों से गोधन, गोधूली, गोरस, गम्मत गायब।
अमराई, अपनापन, झूले, पनघट, पंगत गायब।
बाड़ी की बरबटियाँ, भुट्टे, ककड़ी, कद्दू, लौकी,
किसकी नज़र लगी नजरों से नेकी, नीयत गायब।
अब किससे लूं राम-भलाई, किसको गले लगाऊं?
*
आ जाओ मेरे बिछड़े पल, आती-पाती खेलें!
स्मृतियों ने लगा रखे हैं, सूने मन में मेले!
छुपा-छुपौअल की कितनी ही, छुअन छुपा रक्खी हैं,
जिन दांडों को भुगत चुके हैं, आ फिर उनको झेलें!
आ तेरे बदले मैं हारूं,
आ फिर तुझे जिताऊं!!
मेरे सरस व्यतीत तुझे मैं,
आठों प्रहर बुलाऊं!!
अन्तर-मन में टीस उठे तो गाऊं!!
*
@डॉ. कुमार, 29.11.2017, २९.०२.२०२०, (२८ की अर्द्ध रात्रि ०१.०४ बजे)

Comments

Unknown said…
बहुत ही मनभावन पंक्तियां आदरणीय !
Dr.R.Ramkumar said…
बहुत बधाई unknown ji! वर्षो बाद आपकी उपस्थिति से अच्छा लगा।
पंक्तियों में बहुत गहराई और वास्तविकता है जो दिल को छू गई ।
Dr.R.Ramkumar said…
बहुत बहुत आभार दिग्दर्शिका जी!💐

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