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Showing posts from 2011

नयी सुबह का गीत

दुनिया भर के तमाम दोस्तों, जाने और अनजाने साथियों को नये वर्ष हार्दिक शुभकामनाएं। नये साल में आप सारे इरादे पूरे कर डालें। धुंध हटाकर सोने जैसी सुबह सिरहाने आयी। अलस भोर के सपने सच होते, बतलाने आयी।। अधभिंच आंखें याद कर रहीं, बीते कल की बातें। भागमभाग भरे दिन को ले उड़ी नशीली रातें। तन्य तनावों में भी कसकर पकड़ीं कुछ सौगातें। जो पल मुट्ठी से फिसले थे, उन्हें उठाने आयी। सपने क्या देखे मैंने, केवल अभाव फोड़े थे। उनके अंदर स्वर्णबीज थे, वे भी फिर तोड़े थे। गरियां कुछ उपलब्ध हुईं या तुष्ट भाव थोड़े थे। इन मेवों का आतिथेय आभार चबाने आयी। भले, भेदभावों का दलदल, गहरे होते जाता। भले द्वेष, पथ पर दुविधा क,े सौ सौ रोड़े लाता। जिसको बहुत दूर जाना है, वह तो दौड़े जाता। कमर कटीली कसकर कितने काम कराने आयी। अस्त-व्यस्त पीड़ाएं झाड़ीं, स्वच्छ चादरें डालीं। धूप धुले शुभ संकल्पों वाली, आंगन में फैला ली, नव रोपण के लिए बना ली, क्यारी नयी निराली। नव उमंग की टोली भी उत्साह बढ़ाने आयी धुंध हटाकर सोने जैसी सुबह सिरहाने आयी। 29.12.11 डाॅ.आर.रामकुमार, विवेकानंद नगर, बालाघाट -

फिसलनेवाले फर्स में एक शाम

पोली मेगामार्ट की वह शाम अभी भी आंखों में बसी हुई है। हम उस शाम मार्बल सिटी में थे और मेगामार्ट के बारे में उत्साह से जानकारी देनेवाली हमारी बच्ची ही थी जो मां को मल्टीपल किचन-वेयर उपलब्ध कराना चाहती थी। ऊमस भरी दोपहरी थकी हुई नींद से जागकर अभी अभी शाम में ढली थी। शाम का सदुपयोग हमारे तीन लक्ष्यों पर आधारित था : पहला पोली मेगामार्ट की सैर और खरीददारी, दूसरा मॉल की तफ़रीह , तीसरा चैपाटी ,सोनाली या रूपाली में किसी एक के ‘सौजन्य’ पर भोजन। पहला नाम चौपाटी, जग जाहिर है कि चैपाटी नाम के स्थान , बम्बई उर्फ मुम्बई की तर्ज पर बड़े बड़े शहरों में लगनेवाले चटोरी चाट के शौकीन इलाके हैं। बाकी के दो नाम ; सोनाली और रूपाली हाई-स्टेडर्ड के भोजनालय हैं। हम पहले लक्ष्य की ओर बढ़े। लक्ष्य के लिए बहुत दूर नहीं जाना पड़ा। पास ही था। बच्चियों का फ्लेट पॉज़ इलाके में था जो केन्द्रीय बाजार के मध्य में ही था। मेगा मार्ट में आज काफी चहल पहल थी। आज कुछ चीज़ों पर 40 प्रतिशत का डिस्काउंट ऑफर था और चांवल के पांच किलो के एक पैक के साथ एक पैक फ्री था। किसी भी मध्यम वर्गीय परिवार को यह लुभानेवाला खेल था। हम भी इससे आ

हरी मिर्ची

सुबह सुबह जूते की अंतिम गांठ बांधकर मैं पूरी तरह तैयार होकर घूमने के लिए सीधा खड़ा हो गया। सुबह की हवा स्वास्थ्य के लिए उपयोगी है। उपयोगितावाद का यह मंत्र मैंने ऐन बचपन में ही शहद के साथ चाटा है। जब तब इसकी मिठास मेरे मस्तिष्क पर लिपट जाती है। मैं जब माथे पर हाथ फेरते हुए होंठों पर जबान फिराता हूं ,तो इसका मतलब यही होता है कि अतीत अपनी सुन्दरता के साथ मुझे याद आ रहा है। ‘‘लौटते हुए हरी धनिया और हरी मिर्च तो नहीं लानी है?’’ निकलने के पहले मैंने अंदर की तरफ़ मुंह करके आवाज़ लगाई। अब तक पत्नी जान चुकी है कि नर्मदा नगर और मोती तालाब के बीच का जो अध -उधड़ा रास्ता है, उसमें करीब आधा दर्जन सब्ज़ियों की घरेलू दूकानें हैं जो सुबह सुबह ही खुल जाया करती है। मकानों के अहातों की सफाई और छिड़काव के बाद ,सब्ज़ियों के तख़्तों का सजना ऐसा ही है जैसे आंगन में किसी ने हरी, लाल, भूरी, बैंगनी, गुलाबी, प्याजी-आलुई रंगोलियां डाल दी हों। ‘आंखों के लिए हरापन और हरियाली देखना अच्छा होता है।‘ हरी मिर्च और हरी धनिया की चटनी की तरह यह बात मां ने बचपन में कई बार मेरे अलसाए हुए सबेरों को चटाई है। मैं अक्सर धुले हुए

धनतेरस

दुनिया भर के तमाम मित्रों को धनतेरस और दीपावली की शुभकामनाएं। आज धनतेरस है। दीपावली के पखवाड़े की त्रयोदशी को ही धनतेरस कहा जाता है। दीपावली लक्ष्मी पूजन की अमावस्या है , धनतेरस खरीद फरोख्त की संध्या है। पर्वों , त्यौहारों और हमारी सामाजिकता के बनने, प्रचलित होने और विकसित होने के बहुविध आयाम हैं। बरसात हमारे रहन सहन और घरगृहस्थी पर जो कीचड़ उछालती है वह हम दुर्गोत्सव के रावणवध तक किसी तरह वैसा ही रहने देते हैं। फिर शुरू होता है साफ़ सफाई का दौर। जो प्रायः तीसरा को और उसके बाद शुद्धिकरण के साथ होता है। फिर जाते हैं गंगा , जहां दशगात्र और द्वादशी आदि तर्पणादि के क्रियाकर्म कार्यक्रम के रूप में क्रमवार निपटाये जाते हैं। फिर होती है तेरहीं जिसे गंगाजली पूजन भी कहते हैं। इस दिन समाज के साथ बैठकर खाना खाया जाता है और मृतक को बताया जाता है कि आज तुम्हारे मरने पर हमें और समाज को विश्वास हो गया और हमारे सारे रिश्ते नाते लेनदेन वाद व्यवहार सब समाप्त। तुम अब कहीं भी सुविधानुसार जन्म ले सकते हो। रावण के परिवार में इन पंद्रह दिनों में यही हुआ होगा। किन्तु दीपावली तो राम के अयोध्या , अपनी राजधानी ल

स्टेचू: अब कुछ नहीं बदलेगा

बच्चा है एक। इसी देश का है। इस देश में करोड़ों बच्चे हैं। ये करोड़ों बच्चे टीवी देखते हैं। टीवी में इन करोड़ों को हम क्या सिखा रहे हैं - स्टेचू ? स्टेचू बच्चों और बचकाने नवयुवकों का एक खेल है। पिछली पीढ़ियों के सैकड़ों बच्चे यही खेल खेलकर बड़े हुए है। खेल बुरा नहीं हैं। इस खेल का आविष्कार सैनिक शिविरों में हुआ होगा। आर्डर हुआ - ‘स्टेचू’ ..तो चलता हुआ सैनिक प्रतिमा की तरह स्थिर हो गया। आर्डर हुआ ‘गो’ तो वह फिर हलचल में आ गया। इससे हमें अपने ऊपर नियंत्रण रखने का अभ्यास कराया जाता है। ओबेडियेन्स या हुक्मउदूली अथवा आज्ञाकारिता सिखायी जाती है। हम सीखने के लिए ही पैदा हुए हैं और बड़ी जल्दी आज्ञाकारिता या हुक्मउदूली अथवा ओबेडियेन्स को हम सीख जाते हैं। अपने अपने दलों में, वर्गों में ,जाति और संप्रदायों में , प्रार्थना समूहों में ,अपनी अपनी संस्कृति की भाषा मे , बस एक ही खेल खेला जा रहा है-अटेन्शन और रिलेक्स...सावधान और विश्राम, दक्षः और आरंभः ... स्टेचू का यह खेल उस दिन मैंने किसी कार्यक्रम के बीच विज्ञापन सेशन में देखा...एक बच्चा अपनी हर मनपसंद चीज़ को स्टेचू करता आ रहा है। मुझे याद तो नहीं हैं किन

चौराहे का गीत

बड़े शहर का चौराहा है, अब भी खड़ा हुआ। इससे होकर जानेवाला, रस्ता बड़ा हुआ । आबादी बढ़ती है तो रफ्तार भी बढ़ जाती। इसकी टोपी उड़कर उसके सर पर चढ़ जाती। सत्ता अपना दोष प्रजा के माथे मढ़ जाती। हर मुद्रा में झलक रहा है देश का बौनापन, गांधीवाला नोट भी मिल जाता है पड़ा हुआ। कंगाली के अनचाहे बच्चे हैं सड़कों पर। चढ़ी जा रही फुटपाथों की धूल भी कड़कों पर। तली जा रही भारत-माता, ताज के तड़कों पर। आदर्शों के पांच-सितारा होटल में हर शाम, हर इक हाथ में होता प्याला हीरों जड़ा हुआ। उधर पीठ भी कर के देखी जिधर बयार बही। उनका पानी दूध हो गया , मेरा दूध दही। अपनी आप जानिये मैंने अपनी बात कही। कांटों पर चल-चलकर मेरे पांव कुठार हुए, जितनी चोट पड़ी यह सीना उतना कड़ा हुआ ।।

मेरा मुंह

मित्रों ! इन दिनों आपने भी देखा होगा कि जिसके जो मुंह में आ रहा है बोले जा रहा है। जिसको जहां जगह मिल रही है वहां मुंह मार रहा है। किस मुंह से लोग भ्रष्टाचार के विरोध में बोल रहे हैं और किस मुंह से लोग भ्रष्टाचार विरोधियों को पीटकर अपने मुंह से उसे उचित बता रहे हैं , यह समझ में नहीं आ रहा है। कौन सा मुंह लेकर कौन आएगा और आपके मुंह पर किसका मुखौटा चिपका जाएगा ,यह सोचकर ही झुरझुरी आ जाती है। इसी झुरझुरी को मिटाने के लिए मैंने अपने ही मुंह को टटोलकर देखने की कोशिश की है। ‘ये मुंह और मसूर की दाल’ की तरह ‘छोटे मुंह बड़ी बात’ शायद कह रहा हूं और ‘मुंह उठाए’ आपके पास चला आया हूं। मैं आपका ‘मुंह इस उम्मीद में देख रहा हूं’ कि आप ‘मुंह बनाते है’ या मुस्कुराते हैं। मेरा मुंह मेरे पास एक मुंह है। किसी किसी के पास दो होते हैं। किसी के पास तीन होते हैं। चार मुंह वाले भी सुने हैं। पांच मुंह वाले एक मृत्युंजय के बारे में भी सुना है। उन्हीं का एक पुत्र छः मुंह वाला है। बात बढ़ी है तो दस मुंह वाले तक पहुंची है। एक समय ऐसा भी आया कि अलग अलग मुंह लेकर प्रकट होनेवाले एकमुखी ने पिछले सारे पिद्दियों के रिक

अमर घर चल

कहानी आज 'मदर्स डे' है ..यह कहानी शायद 'मां' के सम्मान में कुछ कहने का एक प्रयास हो !!! अमर का बस्ता टूटी हुई बद्धियोंवाला झोला है। कहीं कहीं से फटा भी है। टूटी बद्धी उसने दूसरी साबुत बद्धी से बांध ली है। हाथ में उसे लेते ही वह स्कूल जाने के लिये तैयार हो जाता है। स्कूल जाते समय उसे अपेक्षा रहती है कि एक ताजा रोटी और चाय मिल जाये। उसका मौन आरोप यह है कि सौतेली भाभी ने उसे काली चाय दी है और बासी रोटी दी है। सौतेली भाभी के बच्चों की चाय में दूध भी है और उनकी रोटी से भाप निकल रही है। अमर जानता है कि विधवा मां दिन निकलने के पहले से मवेशियों की सेवा कर रही है। सौतेले बेटे के घर में अपने रहने लायक वातावरण बनाए रखने के लिए और अपने अमर को बासी रोटी के जुगाड़ के लिए उसे जानवरों को संभालना लाभ का सौदा लगता है। अमर ने देखा कि जिस समय उसके हाथ में बासी रोटी और काली चाय आई उस समय भी मां उपले थाप रही है।अमर की इच्छा में कई बार यह ख्याल हमारी मांग है कि तरह यह आया है कि मां सौतेली भाभी के स्थान पर रोटी बनाए ताकि भाप उड़ाती रोटियों और बासी रोटी के बीच कोई भेदभाव और ईष्र्या न रहे। मगर

बांझ आम इस बार बहुत बौराया ।।

कुदरत ने दिल खोल प्यार छलकाया बांझ आम इस बार बहुत बौराया ।। देख रहा हूं नीबू में कलियां ही कलियां । फूलों से भर गई नगर की उजड़ी गलियां। निकले करते गुनगुन भौंरे काले छलिया। उधर दबंग पलाशों ने भी अपना रंग दिखाया।। बांझ आम इस बार बहुत बौराया ।। खुसुर फुसुर में छुपे हुए फागुन के चरचे। नमक तेल के साथ जुड़े रंगों के खरचे। मौसम ने खोले रहस्य के सारे परचे। कठिन परीक्षा है फिर भी उत्साह समाया । बांझ आम इस बार बहुत बौराया ।। लहरायी बाली गेहूं की चने खिले हैं। मिटे मनों के मैल खेत फिर गले मिले हैं। बंधे जुओं के बैल चैन से खुले ढिले हैं। गीत हवा ने लिखे झकोरों ने हिलमिलकर गाया। बांझ आम इस बार बहुत बौराया ।। 17.02.11 गुरुवार

लोभ की सृजन-धर्मिता

लोभ सृजन का मूल तत्व है। ‘एको अहं बहुस्यामि’ महावाक्य में एक से बहुत होने का लोभ छुपा हुआ है। लीपापोती करनेवाले औदात्त्य-लोभी इस ब्रह्म-सत्य को झुठला नहीं सकते। लोभ में गहन आकर्षण का ‘सेब’ होता है जो न्यूटन जैसों के सामने ही पेड़ से टपकता है। ‘सत्य क्या है’ इस जिज्ञासा का लोभ उसे गुरुत्वाकर्षण की क्रेन्द्र-भूमि तक ले जाता है। मेरी लार जिस सुन्दर वस्तु को देखकर टपकती है , उसे पाने के लिए मैं उतावला हो पड़ता हूं ,टूट पड़ता हूं। गिरता भी हूं और जिसे हम किस्मत कहते हैं उस ‘असफलता की राजकुमारी’ ने हमारी तरफ़ यदि ध्यान नहीं दिया तो पड़ा भी रह जाता हूं। मानलें कि यह एक से दो होने का प्राथमिक-लोभ अगर फलीभूत हो गया तो दूसरा लोभ सताने लगता है , जिससे तीन होने का लोभ जागृत होता है। कभी-कभी दो और दो चार हो जाने के गणित से दो से चार हो जाते हैं। यही सृजन-धर्मिता है। इससे संगठन बनते हैं। अनुयायी 'बंधते' हैं और 'उन्माद की बंधुआगिरी' में लिप्त हो जाते हैं। संन्यासी लोग प्रतिक्रियावादी हैं जो प्रकृति की सृजन-शक्ति को अपनी उदासीनता से नष्ट कर रहें हैं, ऐसा कहना सत्य को एक तरफ से जानना है।

तीन मुक्तक

जिन्हें मोती ही भाते हैं , हन्स वोही कहाते हैं। जहां गहरा मिले पानी , वहीं हाथी नहाते हैं। जो उथले कीचड़ों में कूदकर फैलाते हैं दहशत , वो इकदिन अपने ही दलदल में गहरे डूब जाते हैं। 08.44 प्रातः ,13.1.11 कहीं ताना , कहीं निन्दा ,कहीं अलगाव फैलाते। अगर बढ़ता है आगे कोई तो ये बौखला जाते । जो देता साथ कोई सच्चे दिल से ,सच्चे इन्सां का , ये उसको भी बुरा कहते ,स्वयं को ज्ञानी बतलाते । 10.45 प्रातः ,13.1.11 कोई अमरीका जाता है ,किसी को रूस भाता है। किसी को तेल अरबी तो किसी को चीन भाता है। कोई जापान, स्विटजरलैंड,या आशिक है इटली का, किसे है देश प्यारा ? किसको अपना देश भाता है ? 08.47 सायं 13.01.11

नववर्ष की शुभकामनाएं

01. 01. 2011 , शनिवार* एक एक दो भी , ग्यारह भी , यही बताने आया , नये साल संबंधों पर हो , इसी गणित की माया । नयी घटाएं लेकर मौसम दुनिया भर में छाया आज नहीं , अब कल सोचेंगे-क्या खोया क्या पाया ? *2011 का अंतिम दिन 31.12.2011 भी शनिवार है शनीवार आरंभ है , शनीवार ही अंत आते जाते एक हो , वही कहाता संत एक नजर हो, एक हो बोली , भले अलग हो भाषा एक हृदय की नेक भावना , फूले फले अनंत । 0 डॉ. रामार्य