Skip to main content

Posts

Showing posts from October, 2009

फूल हरसिंगार के

फूल हरसिंगार के राचौ ऋषिकेश और हरिद्वार से लौट आए हैं। वहां की हवा तो शायद नहीं न ला पाए मगर वहां के फूलों और वनस्पतियों के बीज जरूर ले आए हैं। जी हां, हरिद्वार और ऋषिकेश का अर्थ अब केवल धार्मिक कर्मकाण्ड और साधना नहीं रह गया है। पर्यटन तो था वह पहले से; अभी कुछ वर्ष पहले राजनैतिक समीकरण और बंटवारे का भी वह प्रतीक बन गया है। योग के शारीरिक-संस्थान और आयुर्वेद के विश्व-बाजारवाद की हवा भी इन पर्वतीय नगरों को लग गई है। शुक्र है मेरे मित्र राजनीति और योग का बाजारवाद लेकर नहीं आए। वे कश्मीरी तुलसी, दार्जिलिंग की मिर्ची और हिमाचल के फूूलों के बीज लेकर आए हैं। पहले उन्हें गमलों में अंकुरित किया और एक के बाद एक उन्हें मेरे बागीचे में रोपते गए। पहले उन्होंने कश्मीरी तुलसी लगाई और कई बार आकर उसकी पत्तियों की इल्लियां निकालते और गमले की मिट्टी संवारते रहे। मेरे उपवन में उन्हें इतनी रुचि क्यों? दो कारण हैं.. एक वे और दूसरे हम। हम अपने बगीचे को चाहनेवालों की चाहतों से दूर नहीं करते। चाहे फूल हों, चाहे सब्जियां हों या चाहे अमरूद और आम के फल हों। जो मांग सकते हैं, वे मांग ले जाते हैं। ज्यादा हो तो

कलाकार के हाथ

ब्रह्मा नाम है कलाकार का। कलाकार लकड़ी का काम करता है। फर्नीचर-रैक-अल्मीरा.....और दूसरे भी लकड़ी के इन्टीरियल-डेकोरेटिव काम करता है। प्लाईवुड का काम ज्यादा है इन दिनों। वह आसानी से मिलता है और यह काष्ठकर्मी उनसे मनचाहा व्यवहार कर सकता है। मनचाहे रूप दे सकता है। सागौन अब भी उपयोग में आता है, मगर वह नम्बर दो में है; क्योंकि उसका काम नम्बर दो में होता है। सागौन माफिया आपकी चाही हुई मात्रा में रात में चोरी की लकड़ी आपके घरों में बाकायदा चोरी की मर्यादाओं और आचार संहिताओं को पालता हुआ पटक जाएगा। ताकि चोरी का भ्रम बना रहे। दूसरे- तीसरे दिन वनरक्षक या वन विभाग का कोई कर्मी आपसे पूछेगा कि इस तरफ लगभग इतना माल आया है। क्या आप बता सकते हैं किसके यहां आया है ? दरअसल वनकर्मी को पता रहता है कि कितना माल कब और कहां जाना चाहता है। चोर उनसे पूछकर ही चोरी छिपे का लिहाज रखते हुए काम करते हंै। आपने सुना होगा कि एक चड्डी गिरोह है। वह चोरी के लिए , डाका के लिए घरों में घुसता है। घरस्वामी हुज्जत किए बिना माल दे देना चाहता भी है तो वे धुनाई करते हैं। बाद में माफी मांगते हुए माल लेकर जाते-जाते कहते हैं-‘‘ माफ क

प्रेम के माइम और दुख की मिमिक्री

दो धाराएं हैं जिनमें समाज बह रहा है। एक प्रेम है और दूसरा दुख। दुख होता है तो दिखाई देता है। प्रेम भी छुपता नहीं। दुख दिखाई देता है तो पर्याप्त समय-प्राप्त लोगों को सहानुभूति होती है । करुणा और सान्त्वना आदि प्रदर्शित करने के प्रयासों की घटनाएं भी हो सकती हैं। दुख बहुत गंभीर हुआ तो भीड़ करुणा में इकट्ठी हो सकती है। प्रेम दिखाई देता है तो चर्चा होती है। घृणात्मक आक्रोश होता है। हंगामा भी हो सकता है। लोगों की भीड़ इकट्ठी हो सकती है। तमाशा देखने या आलोचना के पत्थर फेंकने। मजे लेने या थू थू करने....थू थू यानी अपने अंदर की गंदगी को बाहर उलीचने। दोनों स्थितियों में भीड़ इकट्ठी हो रही है। भीड़वादी लोग इसका लाभ उठाने का वर्षोें से प्रयास करते रहे हैं। दुख के कारण और प्रेम के कारण गौण हो सकते हैं किन्तु भीड़ का लक्ष्य ऐसे लोगों के लिए गौण नही होता। यहां से प्रेम और दुख की अभिनय-यात्रा शुरू होती है। प्रेम और दुख के अभिनय देखकर लोग प्रभावित होते हैं और उसका जन-संचार करते हैं। दुबारा उसे देखने की कोशिश भी करते हैं। प्रेम और दुख के व्यावसायिक संगठन और संस्थान विभिन्न नामों से कार्यरत हैं। राजनैतिक,

उम्मीद के चेहरे

सारे शहर में उसने तबाही सी बाल दी अपना पियाला भरके सुराही उछाल दी हमने उड़ाए इंतजार के हवा में पल वो देर से आए ओ कहा जां निकाल दी मां को पता था भूख में बेहाल हैं बच्चे दिल की दबाई आग में ममता उबाल दी जिस आंख में उम्मीद के चेहरे जवां हुए बाज़ार की मंदी ने वो आंखें निकाल दी नंगी हुई हैं चाहतें ,राहत हैं दोगली ‘ज़ाहिद’ किसी ने अंधों को जलती मशाल दी 021009/शुक्रवार