ब्रह्मा नाम है कलाकार का। कलाकार लकड़ी का काम करता है। फर्नीचर-रैक-अल्मीरा.....और दूसरे भी लकड़ी के इन्टीरियल-डेकोरेटिव काम करता है। प्लाईवुड का काम ज्यादा है इन दिनों। वह आसानी से मिलता है और यह काष्ठकर्मी उनसे मनचाहा व्यवहार कर सकता है। मनचाहे रूप दे सकता है। सागौन अब भी उपयोग में आता है, मगर वह नम्बर दो में है; क्योंकि उसका काम नम्बर दो में होता है। सागौन माफिया आपकी चाही हुई मात्रा में रात में चोरी की लकड़ी आपके घरों में बाकायदा चोरी की मर्यादाओं और आचार संहिताओं को पालता हुआ पटक जाएगा। ताकि चोरी का भ्रम बना रहे। दूसरे- तीसरे दिन वनरक्षक या वन विभाग का कोई कर्मी आपसे पूछेगा कि इस तरफ लगभग इतना माल आया है। क्या आप बता सकते हैं किसके यहां आया है ?
दरअसल वनकर्मी को पता रहता है कि कितना माल कब और कहां जाना चाहता है। चोर उनसे पूछकर ही चोरी छिपे का लिहाज रखते हुए काम करते हंै। आपने सुना होगा कि एक चड्डी गिरोह है। वह चोरी के लिए , डाका के लिए घरों में घुसता है। घरस्वामी हुज्जत किए बिना माल दे देना चाहता भी है तो वे धुनाई करते हैं। बाद में माफी मांगते हुए माल लेकर जाते-जाते कहते हैं-‘‘ माफ करना , बिना मेहनत की कमाई हमारे डाकाशास्त्र’ में हराम है।’’ सागौन चोरों के लिए भी चोरी का वातावरण बनाए बिना लकड़ी चुराना हराम है। वनकर्मी ही चोरांे के वास्तविक ठेकेदार होते हैं। अब आप अपनी पोजीशन के हिसाब से बात संभाल लेते हैं। दरअसल बात होती ही इसलिए है कि संभल जाए । काम में रिस्क होती है ,संभलकर चलने की सलाहें दी जाती हैं और बातें जो हैं कि संभलती रहती हंैऔर सारा काम कायदे से चलते रहता है।
मेरा नगर सागौनपुर या सगुणनगर है। सागौन या सागवान जिसे कहा जाता है, मुझे लगता है वह ‘सगुन’ शब्द से बना होगा। सगुण शब्द सागौन की गुणवत्ता की रक्षा करता है और उसके सम्पूर्ण कृतित्व और व्यक्तित्व को उजागर करता है। सागौन गुणवानांे की पहली पसंद है। इसलिए मैं सागौन को सगुण कहता हूं। इस नगर को सगुणनगर कहता हूं। यहां वही इज्जतदार आदमी है जिसके पास सारा फर्नीचर, दरवाजे खिड़कियां नम्बर दो की सागौन का है। आसपास सगुण-सागौन का सैकड़ों मील फैला घना जंगल है। फलस्वरूप ज्यादातर लोग यहां इज्जतदार हंै। लगभग सेंटपरसेंट। एक दो परसेंट वो लोग हैं जो सिद्धांतों की भूलभुलैया में परिस्थितिवश पड़े हुए हैं। जैसे कि गुरुदेव सामरिया। गुरु सामरिया मेरे घर के सामने रहते हैं। मेरी तरह वे भी सिद्धांतों की भूलभुलैया में घिरे हुए हैं। इसलिए सिद्धांतों के कारण जब वे परिस्थियों से पिटते है तो मैं उन्हें सान्त्वना देता हूं और कहता हूं-‘‘ सत्य परेशान तो हो सकता है मगर पराजित नहीं हो सकता।’’ यही बात वे मुझे कहते हंै जब मै परिस्थियों से सिद्धांत नामक आत्मज के कारण पिट जाता हूं। हम दोनों एक दूसरे के राहत केन्द्र हंै। प्रायः रोज ही हमें राहत की जरूरत पड़ती है और रोज ही हम एक दूसरे को वह ‘परेशानी और परास्त’ का सिद्धांत ,सूत्र या काढ़ा पिलाते रहते हैं। लोग समझते हैं कि हम दोनों में जमती है। इसीलिए किसी ने कहा है-‘‘खूब गुजरेगी जो मिल बैठेंगे दीवाने दो।’’
काष्ठकर्मी ब्रह्मा उनके घर में काट-छांट, ठुकाई-पिटाई कर रहा है। सामरिया गुरु भी अपनी अंटी को संभालते हुए उसके आसपास ही लगे हुए हैं। जैसा कि ऐसे मामलों में होता है ,मुझसे रहा नहीें जाता। मैं जानबूझकर किया गया नमस्कार उनसे करता हूं और सर्वर मिलते ही कहता हूं , ‘‘ गुरुदेव! क्या आप भी नगर की इज्जतदार परम्परा से जुड़े जा रहे हैं।’’
वे सान्त्वनेय होकर कहते हैं ,‘‘नहीं आदरणीय, पलंग ढीला हो गया था, दीवान का प्लाई घुन गया था , वही ठीक करा रहा हूं। यानी वही अपनी सीमाओं की रिपेयरिंग चल रही है। नगर के सभी लोग गणमान्य हो जाएंगे तो भगवान की नैया कौन चलाएगा ?’’मैं जोर से हंस पड़ा और बोला ,‘‘ मैं तो घबरा गया था कि आप भी साथ छोड़कर चले....’’
वे सान्त्वना के मूड में आ गए और बोले ,‘‘ नहीं नहीं कैसी बात करते हैं.... उधर भी साथ ही चलूंगा।’’
मैं आश्वस्त हो गया। यही तो मैं होना चाहता था। उधर , वहां और उस तरफ का ख्याल बना रहता है। हम दोनांे इन शब्दों के मतलब समझते हंै और वेदरक्षा करते हैं।
अचानक दोपहर में जब पढ़ने आए बच्चों को मैं निपटा रहा था तभी गुरुदेव के घर से लगभग झगड़ने जैसी आहट आयी। मैं राहत की थैली सम्हालते हुए दौड़ा। किस्सा-ए-मुख्तसर यह कि कलाकार कुछ कलाकारी करना चाहता था। पाए और प्लाई में कुछ नयी डिजाइनें डालना चाहता था और इसके लिए उसे नये सिरे से सामान चाहिए थे जो उससे जुड़े हुए प्लाई-विक्रेता के यहां ही मिल सकते थे। गुरुजी कला के विरोधी नहीं है और कलाकारों का बहुत सम्मान करते हैं लेकिन उनकी मजबूरी यह है कि कला सिर्फ कला के लिए है और अपने बजट में वे उसे दखलंदाजी की छूट प्रदान नहीं कर सकते। मंदिर की आरती में जाकर वे शामिल हो सकते है ंमगर घर में मुर्ती स्थापित करने के वे पक्ष में नहीं हो सकते। वे भड़क गए थे। मै जब पहुंचा तो वे कह रहे थे -‘‘ भाई ब्रह्मा! तुम बहुत ऊंचे कलाकार हो ,तुम्हारा काम बहुत ऊंचा है, मैं तुम्हारे काम की प्रशंसा करता हूं। मगर तुम समझते क्यों नहीं कि तुम इस नगर के नगरसेठों के यहां काम नहीं कर रहे हो। तुम एक गुरुजी के यहां काम कर रहे हो। तुम उस ऊंचाई में जाकर मुझे क्यों पुकार रहे हो ? मैं नहीं चढ़ पाउंगा भगवन! मुझे माफ करो। और फिर इस पलंग पर मुझे सोना है, मुझे ... मुझे। किसी ऐश्वर्या राय या अमिताभ बच्चन को नहीं। हम आम आदमी की भूमिका नहीं कर रहे हैं , आम आदमी हैं। इसलिए इसे केवल पलंग बनाओ , अजंता और ऐलोरा है हिन्दोस्तान में।’’
काष्टकर्मी ब्रह्मा मुंह बाए गुरुजी का मुंह देख रहा था। पता नहीं वह उनकी बात समझ भी रहा था या नहीं मगर इतना जरूर समझ रहा था कि गुरुजी का बजट बिगड़ रहा है। मैंने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए कहा-‘‘ जैसा कहते हैं वैसा ही बनाओ , कला को कहीं और के लिए सुरक्षित रखो।’’ ब्रह्मा ने थूक निगलकर सिर हिला दिया और ठोंक-पीट करने लगा। मगर उसका उत्साह धीमा पड़ गया था। गुरुजी ने उसके हाथ काट दिए थे। ये वो हाथ थे जो कला को तो आकार देना ही चाहते थे मगर गुरुजी की अंटी को भी क्षतिग्रस्त करना चाहते थे। जानबूझकर नहीं अनजाने में। कलाकार तो अपनी धुन में काम करता है। वह बजट की परवाह नहीं करता। क्यांेकि उसे काम का पैसा समय के हिसाब से मिल रहा है। बजट सामनेवाले का बढ़ रहा है। काष्टकर्मी का बजट बन रहा है। उसकी कला पेट के लिए थी। गुरुजी पेट काटकर काम करा रहे थे। उनका वश चलता तो खुद ही पलंग सुधार लेते। मगर पलंग बिना कारीगर या काष्टकलाकार के सुधरते ही नहीं। मजबूरी में उन्होंने बढ़ई को बुलवाया था।
खैर कला ने बजट के साथ समझौता कर लिया था। गुरुजी ने कहा, ‘‘आपको चाय पिलवाऊं आदरणीय’’ और बिना उत्तर ग्रहण किण् वे अंदर चले गए। उनके अंदर जाते ही कलाकार का दर्द मेरे सामने फूट पड़ा-‘‘ गुरुजी बेकार नाराज हो रहे हैं... ऐसा काम कर के देता कि लोग देखते और पूछते किसने किया.. मगर क्या करूं...मेरे तो हाथ कट गए..’’
मैंने कहा -‘‘ तुमको पता है कि पहले क्या होता था...ताजमहल बनते थे , कलाकार अपनी पूरी कला उसमें उड़ेल देते थे.. उन्हें राजा मुंहमांगा पैसा भी देते थे और ईनाम भी देते थे। मगर उनके हाथ काट लेते थे ताकि वैसी कला वह और कहीं दिखा ना पाए। तुम शुक्र करो कि तुम्हारे हाथ सलामत हैं, तुम्हारी कला बची हुई है। कहीं और उसका इस्तेमाल कर लेना।’’
मगर कलाकार का मन खिला नहीं। वह अब एक आम बढ़ई की तरह ठोंक पीट कर रहा था।
दरअसल वनकर्मी को पता रहता है कि कितना माल कब और कहां जाना चाहता है। चोर उनसे पूछकर ही चोरी छिपे का लिहाज रखते हुए काम करते हंै। आपने सुना होगा कि एक चड्डी गिरोह है। वह चोरी के लिए , डाका के लिए घरों में घुसता है। घरस्वामी हुज्जत किए बिना माल दे देना चाहता भी है तो वे धुनाई करते हैं। बाद में माफी मांगते हुए माल लेकर जाते-जाते कहते हैं-‘‘ माफ करना , बिना मेहनत की कमाई हमारे डाकाशास्त्र’ में हराम है।’’ सागौन चोरों के लिए भी चोरी का वातावरण बनाए बिना लकड़ी चुराना हराम है। वनकर्मी ही चोरांे के वास्तविक ठेकेदार होते हैं। अब आप अपनी पोजीशन के हिसाब से बात संभाल लेते हैं। दरअसल बात होती ही इसलिए है कि संभल जाए । काम में रिस्क होती है ,संभलकर चलने की सलाहें दी जाती हैं और बातें जो हैं कि संभलती रहती हंैऔर सारा काम कायदे से चलते रहता है।
मेरा नगर सागौनपुर या सगुणनगर है। सागौन या सागवान जिसे कहा जाता है, मुझे लगता है वह ‘सगुन’ शब्द से बना होगा। सगुण शब्द सागौन की गुणवत्ता की रक्षा करता है और उसके सम्पूर्ण कृतित्व और व्यक्तित्व को उजागर करता है। सागौन गुणवानांे की पहली पसंद है। इसलिए मैं सागौन को सगुण कहता हूं। इस नगर को सगुणनगर कहता हूं। यहां वही इज्जतदार आदमी है जिसके पास सारा फर्नीचर, दरवाजे खिड़कियां नम्बर दो की सागौन का है। आसपास सगुण-सागौन का सैकड़ों मील फैला घना जंगल है। फलस्वरूप ज्यादातर लोग यहां इज्जतदार हंै। लगभग सेंटपरसेंट। एक दो परसेंट वो लोग हैं जो सिद्धांतों की भूलभुलैया में परिस्थितिवश पड़े हुए हैं। जैसे कि गुरुदेव सामरिया। गुरु सामरिया मेरे घर के सामने रहते हैं। मेरी तरह वे भी सिद्धांतों की भूलभुलैया में घिरे हुए हैं। इसलिए सिद्धांतों के कारण जब वे परिस्थियों से पिटते है तो मैं उन्हें सान्त्वना देता हूं और कहता हूं-‘‘ सत्य परेशान तो हो सकता है मगर पराजित नहीं हो सकता।’’ यही बात वे मुझे कहते हंै जब मै परिस्थियों से सिद्धांत नामक आत्मज के कारण पिट जाता हूं। हम दोनों एक दूसरे के राहत केन्द्र हंै। प्रायः रोज ही हमें राहत की जरूरत पड़ती है और रोज ही हम एक दूसरे को वह ‘परेशानी और परास्त’ का सिद्धांत ,सूत्र या काढ़ा पिलाते रहते हैं। लोग समझते हैं कि हम दोनों में जमती है। इसीलिए किसी ने कहा है-‘‘खूब गुजरेगी जो मिल बैठेंगे दीवाने दो।’’
काष्ठकर्मी ब्रह्मा उनके घर में काट-छांट, ठुकाई-पिटाई कर रहा है। सामरिया गुरु भी अपनी अंटी को संभालते हुए उसके आसपास ही लगे हुए हैं। जैसा कि ऐसे मामलों में होता है ,मुझसे रहा नहीें जाता। मैं जानबूझकर किया गया नमस्कार उनसे करता हूं और सर्वर मिलते ही कहता हूं , ‘‘ गुरुदेव! क्या आप भी नगर की इज्जतदार परम्परा से जुड़े जा रहे हैं।’’
वे सान्त्वनेय होकर कहते हैं ,‘‘नहीं आदरणीय, पलंग ढीला हो गया था, दीवान का प्लाई घुन गया था , वही ठीक करा रहा हूं। यानी वही अपनी सीमाओं की रिपेयरिंग चल रही है। नगर के सभी लोग गणमान्य हो जाएंगे तो भगवान की नैया कौन चलाएगा ?’’मैं जोर से हंस पड़ा और बोला ,‘‘ मैं तो घबरा गया था कि आप भी साथ छोड़कर चले....’’
वे सान्त्वना के मूड में आ गए और बोले ,‘‘ नहीं नहीं कैसी बात करते हैं.... उधर भी साथ ही चलूंगा।’’
मैं आश्वस्त हो गया। यही तो मैं होना चाहता था। उधर , वहां और उस तरफ का ख्याल बना रहता है। हम दोनांे इन शब्दों के मतलब समझते हंै और वेदरक्षा करते हैं।
अचानक दोपहर में जब पढ़ने आए बच्चों को मैं निपटा रहा था तभी गुरुदेव के घर से लगभग झगड़ने जैसी आहट आयी। मैं राहत की थैली सम्हालते हुए दौड़ा। किस्सा-ए-मुख्तसर यह कि कलाकार कुछ कलाकारी करना चाहता था। पाए और प्लाई में कुछ नयी डिजाइनें डालना चाहता था और इसके लिए उसे नये सिरे से सामान चाहिए थे जो उससे जुड़े हुए प्लाई-विक्रेता के यहां ही मिल सकते थे। गुरुजी कला के विरोधी नहीं है और कलाकारों का बहुत सम्मान करते हैं लेकिन उनकी मजबूरी यह है कि कला सिर्फ कला के लिए है और अपने बजट में वे उसे दखलंदाजी की छूट प्रदान नहीं कर सकते। मंदिर की आरती में जाकर वे शामिल हो सकते है ंमगर घर में मुर्ती स्थापित करने के वे पक्ष में नहीं हो सकते। वे भड़क गए थे। मै जब पहुंचा तो वे कह रहे थे -‘‘ भाई ब्रह्मा! तुम बहुत ऊंचे कलाकार हो ,तुम्हारा काम बहुत ऊंचा है, मैं तुम्हारे काम की प्रशंसा करता हूं। मगर तुम समझते क्यों नहीं कि तुम इस नगर के नगरसेठों के यहां काम नहीं कर रहे हो। तुम एक गुरुजी के यहां काम कर रहे हो। तुम उस ऊंचाई में जाकर मुझे क्यों पुकार रहे हो ? मैं नहीं चढ़ पाउंगा भगवन! मुझे माफ करो। और फिर इस पलंग पर मुझे सोना है, मुझे ... मुझे। किसी ऐश्वर्या राय या अमिताभ बच्चन को नहीं। हम आम आदमी की भूमिका नहीं कर रहे हैं , आम आदमी हैं। इसलिए इसे केवल पलंग बनाओ , अजंता और ऐलोरा है हिन्दोस्तान में।’’
काष्टकर्मी ब्रह्मा मुंह बाए गुरुजी का मुंह देख रहा था। पता नहीं वह उनकी बात समझ भी रहा था या नहीं मगर इतना जरूर समझ रहा था कि गुरुजी का बजट बिगड़ रहा है। मैंने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए कहा-‘‘ जैसा कहते हैं वैसा ही बनाओ , कला को कहीं और के लिए सुरक्षित रखो।’’ ब्रह्मा ने थूक निगलकर सिर हिला दिया और ठोंक-पीट करने लगा। मगर उसका उत्साह धीमा पड़ गया था। गुरुजी ने उसके हाथ काट दिए थे। ये वो हाथ थे जो कला को तो आकार देना ही चाहते थे मगर गुरुजी की अंटी को भी क्षतिग्रस्त करना चाहते थे। जानबूझकर नहीं अनजाने में। कलाकार तो अपनी धुन में काम करता है। वह बजट की परवाह नहीं करता। क्यांेकि उसे काम का पैसा समय के हिसाब से मिल रहा है। बजट सामनेवाले का बढ़ रहा है। काष्टकर्मी का बजट बन रहा है। उसकी कला पेट के लिए थी। गुरुजी पेट काटकर काम करा रहे थे। उनका वश चलता तो खुद ही पलंग सुधार लेते। मगर पलंग बिना कारीगर या काष्टकलाकार के सुधरते ही नहीं। मजबूरी में उन्होंने बढ़ई को बुलवाया था।
खैर कला ने बजट के साथ समझौता कर लिया था। गुरुजी ने कहा, ‘‘आपको चाय पिलवाऊं आदरणीय’’ और बिना उत्तर ग्रहण किण् वे अंदर चले गए। उनके अंदर जाते ही कलाकार का दर्द मेरे सामने फूट पड़ा-‘‘ गुरुजी बेकार नाराज हो रहे हैं... ऐसा काम कर के देता कि लोग देखते और पूछते किसने किया.. मगर क्या करूं...मेरे तो हाथ कट गए..’’
मैंने कहा -‘‘ तुमको पता है कि पहले क्या होता था...ताजमहल बनते थे , कलाकार अपनी पूरी कला उसमें उड़ेल देते थे.. उन्हें राजा मुंहमांगा पैसा भी देते थे और ईनाम भी देते थे। मगर उनके हाथ काट लेते थे ताकि वैसी कला वह और कहीं दिखा ना पाए। तुम शुक्र करो कि तुम्हारे हाथ सलामत हैं, तुम्हारी कला बची हुई है। कहीं और उसका इस्तेमाल कर लेना।’’
मगर कलाकार का मन खिला नहीं। वह अब एक आम बढ़ई की तरह ठोंक पीट कर रहा था।
Comments
अभिनन्दन !
आपको और आपके परिवारजन को
दीपोत्सव की हार्दिक बधाइयां
एवं मंगल कामनायें.......
बहुत बहुत धन्यवाद और स्वागत आपका । बेहद गंभीरता से आपने आलेख को पढ़ा और गंभीर प्रतिक्रिया दी। इसी तरह विचारविमर्श के द्वार खंलं रखें।
अलबेला जी कहां खो गए थे आप। चलिए स्वदेश आप लौटे। आप अब सूनापन देर करेगे।
दीपावली की आप दोनों को असंख्य शुभकामनाएं।