सूप बुहारे, तौले, झाड़े
चलनी झर-झर बोले।
साहूकारों में आये तो
चोर बहुत मुंह खोले।
एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।'
ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण।
काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे।
चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी निकाल फेंके। चलनी का काम 'सब धान बारह पसेरी' का है। यही देखकर 'बारहबांट' शब्द का अवतार हुआ होगा। बारहबांट करना यानी गुणबत्ता की जांच किये बगैर सबको खुश करने की राजनीति करना। इसी को 'सब धान बारह पसेरी' भी कहते है।
पसेरी यानी पांच सेर (किलो का पूर्वज) का मापक पात्र। दूबराज भी एक रुपये का बारह पसेरी तो लुचई भी एक की बारह पसेरी, {ले. एक की बारह पसेरी गणित समझाने के लिए है। अभी के हिसाब से एक किलो दूबराज 75 या 80 का आएगा (अगर अस्तित्व में है तो) इस हिसाब से पांच किलो के 375-400 रुपये और लुचई भी लुप्त न हुई हो तो वह 30-35 रुपये किलो में मिल जाएगी। पांच किलो 150-175 में आयेगी।) है न मूल्यों का अंतर ? अब दोनों को एक ही मूल्य में बेच दो तो? हालांकि ये भेद या अंतर न सूप कर सकता है, न चलनी। भेदभाव और अंतर करने का काम आदमी ने अपने हाथ मे ले लिया और कुशल व्यापारी बन गया।}
सूप, सूपा यानी शूर्प की ध्वनि और चलनी की ध्वनि में इसीलिये अंतर है। छिद्रिल और अछिद्रिल का अंतर। ऊपर की कविता ध्वनि-शास्त्रीय-मूल्य भी रखती है। झाड़-बुहार बोलने-सुनने में और झर-झर बोलने और सुनने में श्रवण-यंत्र अंतर कर लेता है। शब्द-निर्माण में ध्वनि का बड़ा महत्व है। ध्वनि को शब्द रूप में ढालने वाले अनपढ़ों ने ऐसे ही तो अभिव्यक्त किया था-- "नदी कल-कल बह रही थी" और "नदी धाड़-धाड़ बह रही थी" कहने से ही लोग समझ जाते हैं कि नदी कौन से वाक्य में किस हाल में थी।
ऊपर की कविता में एक जगह झाड़-बुहार में ही ध्वनि-संकेत है। शब्दों में एक विशिष्ट ध्वनि होती है। दूसरे पद में झर-झर द्वित शब्दों में श्लेष संश्लिष्ट है। झर-झर क्रिया भी है और क्रिया-ध्वनि भी। सबसे विशिष्ट बात यह कि इन शब्दों और क्रियाओं से चरित्र की ध्वनि भी आ रही है।
लेकिन 'चोर का दृष्टांत' किसलिए? दोनों का अंतर-सम्बन्ध भी समझिए। काम होगा तो ध्वनि होगी ही। कार्य-ध्वनि का संज्ञा में रूपांतरण पर दृष्टि डालें। सूप-सूप यानी सूपा या सूपड़ा, खड़-खड़ यानी खड़ेटा, झड़-झड़ यानी झाड़ू, चल-चल या छल-छल यानी चलनी या छलनी। झारने के कारण झर-झर की ध्वनि होती है इसलिए चलनी या छलनी, झरनी या झारा भी कहलाती है। थोड़ा सा क्रिया-भेद है। उबलती हुई चीजों को माध्यम-द्रव्य से वस्तु को निकालते हुए द्रव्य को वहीं झार देते हो। यह झारना है और इस झारने तथा पल्ला झारने में अंतर है। अंतर तो झरने के झरते हुए निर्लिप्त पानी में भी है जो झरकर झरना बनता है। सारतः यह पहचान या परिचय हुआ। अब परिणाम से दोनों के चरित्र को समझ लें। सूप, खड़ेटा और झाड़ू ने कचरा हटा कर एक तरफ कर दिया और मूल्य बचा लिए। कौन से मूल्य? हमारा लक्ष्य, हमारा सार, हमारी आवश्यकता।
सामान्य मनुष्यों को सूपड़ा से कचरा और अन्न को अलग करते देखकर साधु कबीर ने नीति बना ली...
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि लहे, थोथा देय उड़ाय।
साधु कबीर ने अवलोकन किया और सार को ग्रहण कर लिया। उन्होंने सूप देखा, तो उसकी सहचरी चलनी भी देखी ही होगी। चलनी और छलनी जिसका नाम हो वह बुर्के या पर्दे में रहने से रही। फिर संत साधु कबीर से कैसा पर्दा।
कबीर आसपास के सामाजिक सरोकार का सूक्ष्म अध्ययन करते थे। चक्की भी देखी। जुलाहा थे तो ताने-बाने भी देखे, डोंगी-भरनी भी देखी। इनसे बननेवाली चादर भी देखी। वही चादर जिसे उन्होंने तो जस की तस धर दी मगर कमाल है कि कबीर के बेटे कमाल और बेटी कमाली को ये हुनर न आया। उनके पैर चादर के बाहर हो जाते थे और बेतरतीबी से ओढ़ने से मैली हो जाती थी। कबीर के अतिरिक्त कोई चादर के महत्व को समझता ही नहीं था। जतन कौन करता। लोई भी कबीर से उनकी नीतियों के कारण व्यथित, कमाल भी खफा, कमाली भी नाराज़। कबीर की तकलीफ यह थी कि कबीर को लोग समझते ही नहीं थे या गलत समझते थे । यह न उनका कसूर था न लोगो का। उलटबासियों में बात करनेवाले को लोग उल्टा ही समझेंगे। बहुत मिसअनडरस्टैंडिंग थी समाज में कबीर को लेकर, गलतफहमियों के बीच जिये कबीर । तभी उन्होंने कहा था -
संतों देखा जग बौराना,
सांच कहों तो मरण धावै, झूठे जग पतियाना.
पर लोग समझे नहीं। इसका अर्थ जगवालों ने, लोगों ने दूसरा ले लिया। उनके ही हित की कह रहे थे कबीर। लोग उनके विरोधी हो गए कि ज्यादा ही अक्ल आ गयी जुलाहे को। वे मौके की तलाश में रहने लगे।
मोहल्ले में मौका देखकर छक्का मरनेवाला या वाली कोई न कोई होता या होती ही है। थी पड़ोस में एक छलनी जान। ऐसे लोग पड़ोस में क्या अगल-बगल में ही रहते हैं। कबीर तो और खतरनाक थे। उनका वश चलता तो छलनी जान को आँगन में कुटिया बना कर रख लेते। पर पड़ोस में छलनी जान का बड़ा घर था। ऐसी बड़े घरवाली छलनी जान को लोगों ने कबीर के नाम की सुपारी दे दी। छलनी के पेट में कोई बात पचती ही नहीं थी इसीलिए उसका छलनी जान नाम पड़ गया। उसी छलनी का अब काम था कबीर का पीछा करना।
एक दिन कबीर मंडी में कपड़ा लेकर खड़े थे। खड़े-खड़े बेचते थे तो लोग तंज़ में उनके ठिकाने को 'खड़ी दुकान' कहते थे। कबीर भी कहते पर कबीर दूसरे अर्थ में कहते थे। उनका दाम खरा था। एक बार जो कह दिया, कह दिया, मुनाफे की कोई बात नहीं। दाम ऐसा कि घर भी चल जाये और कोई साधु आये तो वह भी दो निवाले खा कर ही जाये। कोई मोल भाव नहीं। मगर दुनिया ऐसे मानती है क्या। कितना भी वाजिब रखो, दो पैसे कम ही करवाएगी।
मौका तलाश करती आई दुकान पर छलनी जान। दाम पूछकर बोली : 'क्या अंधेरगर्दी है, इतना भी कोई दाम रखता है? तुम तो घर फूंक दो हमारा।'
अपनी सुपारी से बेखबर आदतन बोले कबीर -'छलनी जान!
कबिरा खड़ा बाजार में, लिए लुकटिया हाथ।
जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ।।
प्रत्यक्ष में मुंह बनाती हुई चली गयी छलनी जान। बेखबर कबीर भी पहुंचे खरा सौदा करके घर। आँगन में ही लड़का, लड़की और लोई बेगम खड़ी थी। उनके बगल में खड़ी थी छलनी जान। कबीर समझ गए कि फिर किया इसने कोई तिया-पंजा।
कबीर ने पूछा - क्या बात है लोई बेगम, आज तो गरीबखाने पर भले लोग आए हैं।
लोई - क्या कह रहे थे आप बाजार में?
कमाल - आप बाजार कपड़ा लेकर गए थे, या लुकटिया?
कमाली - और आप किसका घर जलाने की बात कह रहे थे?
छलनी जान- हां, बोलिये, बोलिये, मेरे मुंह पर क्या बोला था आपने।
कबीर ठहाका मारकर हंसे और बोले -
सूप कहे तो ठीक है, बोले छलनी जान।
सेमल में रस देखकर, कबिरा है हैरान।।
तभी से यह कहावत चल पड़ी- सूप बोले तो बोले, छलनी भी बोले जिसमें सौ छेद।
*
@ डॉ. रा. रामकुमार
चलनी झर-झर बोले।
साहूकारों में आये तो
चोर बहुत मुंह खोले।
एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।'
ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण।
काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे।
चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी निकाल फेंके। चलनी का काम 'सब धान बारह पसेरी' का है। यही देखकर 'बारहबांट' शब्द का अवतार हुआ होगा। बारहबांट करना यानी गुणबत्ता की जांच किये बगैर सबको खुश करने की राजनीति करना। इसी को 'सब धान बारह पसेरी' भी कहते है।
पसेरी यानी पांच सेर (किलो का पूर्वज) का मापक पात्र। दूबराज भी एक रुपये का बारह पसेरी तो लुचई भी एक की बारह पसेरी, {ले. एक की बारह पसेरी गणित समझाने के लिए है। अभी के हिसाब से एक किलो दूबराज 75 या 80 का आएगा (अगर अस्तित्व में है तो) इस हिसाब से पांच किलो के 375-400 रुपये और लुचई भी लुप्त न हुई हो तो वह 30-35 रुपये किलो में मिल जाएगी। पांच किलो 150-175 में आयेगी।) है न मूल्यों का अंतर ? अब दोनों को एक ही मूल्य में बेच दो तो? हालांकि ये भेद या अंतर न सूप कर सकता है, न चलनी। भेदभाव और अंतर करने का काम आदमी ने अपने हाथ मे ले लिया और कुशल व्यापारी बन गया।}
सूप, सूपा यानी शूर्प की ध्वनि और चलनी की ध्वनि में इसीलिये अंतर है। छिद्रिल और अछिद्रिल का अंतर। ऊपर की कविता ध्वनि-शास्त्रीय-मूल्य भी रखती है। झाड़-बुहार बोलने-सुनने में और झर-झर बोलने और सुनने में श्रवण-यंत्र अंतर कर लेता है। शब्द-निर्माण में ध्वनि का बड़ा महत्व है। ध्वनि को शब्द रूप में ढालने वाले अनपढ़ों ने ऐसे ही तो अभिव्यक्त किया था-- "नदी कल-कल बह रही थी" और "नदी धाड़-धाड़ बह रही थी" कहने से ही लोग समझ जाते हैं कि नदी कौन से वाक्य में किस हाल में थी।
ऊपर की कविता में एक जगह झाड़-बुहार में ही ध्वनि-संकेत है। शब्दों में एक विशिष्ट ध्वनि होती है। दूसरे पद में झर-झर द्वित शब्दों में श्लेष संश्लिष्ट है। झर-झर क्रिया भी है और क्रिया-ध्वनि भी। सबसे विशिष्ट बात यह कि इन शब्दों और क्रियाओं से चरित्र की ध्वनि भी आ रही है।
लेकिन 'चोर का दृष्टांत' किसलिए? दोनों का अंतर-सम्बन्ध भी समझिए। काम होगा तो ध्वनि होगी ही। कार्य-ध्वनि का संज्ञा में रूपांतरण पर दृष्टि डालें। सूप-सूप यानी सूपा या सूपड़ा, खड़-खड़ यानी खड़ेटा, झड़-झड़ यानी झाड़ू, चल-चल या छल-छल यानी चलनी या छलनी। झारने के कारण झर-झर की ध्वनि होती है इसलिए चलनी या छलनी, झरनी या झारा भी कहलाती है। थोड़ा सा क्रिया-भेद है। उबलती हुई चीजों को माध्यम-द्रव्य से वस्तु को निकालते हुए द्रव्य को वहीं झार देते हो। यह झारना है और इस झारने तथा पल्ला झारने में अंतर है। अंतर तो झरने के झरते हुए निर्लिप्त पानी में भी है जो झरकर झरना बनता है। सारतः यह पहचान या परिचय हुआ। अब परिणाम से दोनों के चरित्र को समझ लें। सूप, खड़ेटा और झाड़ू ने कचरा हटा कर एक तरफ कर दिया और मूल्य बचा लिए। कौन से मूल्य? हमारा लक्ष्य, हमारा सार, हमारी आवश्यकता।
सामान्य मनुष्यों को सूपड़ा से कचरा और अन्न को अलग करते देखकर साधु कबीर ने नीति बना ली...
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि लहे, थोथा देय उड़ाय।
साधु कबीर ने अवलोकन किया और सार को ग्रहण कर लिया। उन्होंने सूप देखा, तो उसकी सहचरी चलनी भी देखी ही होगी। चलनी और छलनी जिसका नाम हो वह बुर्के या पर्दे में रहने से रही। फिर संत साधु कबीर से कैसा पर्दा।
कबीर आसपास के सामाजिक सरोकार का सूक्ष्म अध्ययन करते थे। चक्की भी देखी। जुलाहा थे तो ताने-बाने भी देखे, डोंगी-भरनी भी देखी। इनसे बननेवाली चादर भी देखी। वही चादर जिसे उन्होंने तो जस की तस धर दी मगर कमाल है कि कबीर के बेटे कमाल और बेटी कमाली को ये हुनर न आया। उनके पैर चादर के बाहर हो जाते थे और बेतरतीबी से ओढ़ने से मैली हो जाती थी। कबीर के अतिरिक्त कोई चादर के महत्व को समझता ही नहीं था। जतन कौन करता। लोई भी कबीर से उनकी नीतियों के कारण व्यथित, कमाल भी खफा, कमाली भी नाराज़। कबीर की तकलीफ यह थी कि कबीर को लोग समझते ही नहीं थे या गलत समझते थे । यह न उनका कसूर था न लोगो का। उलटबासियों में बात करनेवाले को लोग उल्टा ही समझेंगे। बहुत मिसअनडरस्टैंडिंग थी समाज में कबीर को लेकर, गलतफहमियों के बीच जिये कबीर । तभी उन्होंने कहा था -
संतों देखा जग बौराना,
सांच कहों तो मरण धावै, झूठे जग पतियाना.
पर लोग समझे नहीं। इसका अर्थ जगवालों ने, लोगों ने दूसरा ले लिया। उनके ही हित की कह रहे थे कबीर। लोग उनके विरोधी हो गए कि ज्यादा ही अक्ल आ गयी जुलाहे को। वे मौके की तलाश में रहने लगे।
मोहल्ले में मौका देखकर छक्का मरनेवाला या वाली कोई न कोई होता या होती ही है। थी पड़ोस में एक छलनी जान। ऐसे लोग पड़ोस में क्या अगल-बगल में ही रहते हैं। कबीर तो और खतरनाक थे। उनका वश चलता तो छलनी जान को आँगन में कुटिया बना कर रख लेते। पर पड़ोस में छलनी जान का बड़ा घर था। ऐसी बड़े घरवाली छलनी जान को लोगों ने कबीर के नाम की सुपारी दे दी। छलनी के पेट में कोई बात पचती ही नहीं थी इसीलिए उसका छलनी जान नाम पड़ गया। उसी छलनी का अब काम था कबीर का पीछा करना।
एक दिन कबीर मंडी में कपड़ा लेकर खड़े थे। खड़े-खड़े बेचते थे तो लोग तंज़ में उनके ठिकाने को 'खड़ी दुकान' कहते थे। कबीर भी कहते पर कबीर दूसरे अर्थ में कहते थे। उनका दाम खरा था। एक बार जो कह दिया, कह दिया, मुनाफे की कोई बात नहीं। दाम ऐसा कि घर भी चल जाये और कोई साधु आये तो वह भी दो निवाले खा कर ही जाये। कोई मोल भाव नहीं। मगर दुनिया ऐसे मानती है क्या। कितना भी वाजिब रखो, दो पैसे कम ही करवाएगी।
मौका तलाश करती आई दुकान पर छलनी जान। दाम पूछकर बोली : 'क्या अंधेरगर्दी है, इतना भी कोई दाम रखता है? तुम तो घर फूंक दो हमारा।'
अपनी सुपारी से बेखबर आदतन बोले कबीर -'छलनी जान!
कबिरा खड़ा बाजार में, लिए लुकटिया हाथ।
जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ।।
प्रत्यक्ष में मुंह बनाती हुई चली गयी छलनी जान। बेखबर कबीर भी पहुंचे खरा सौदा करके घर। आँगन में ही लड़का, लड़की और लोई बेगम खड़ी थी। उनके बगल में खड़ी थी छलनी जान। कबीर समझ गए कि फिर किया इसने कोई तिया-पंजा।
कबीर ने पूछा - क्या बात है लोई बेगम, आज तो गरीबखाने पर भले लोग आए हैं।
लोई - क्या कह रहे थे आप बाजार में?
कमाल - आप बाजार कपड़ा लेकर गए थे, या लुकटिया?
कमाली - और आप किसका घर जलाने की बात कह रहे थे?
छलनी जान- हां, बोलिये, बोलिये, मेरे मुंह पर क्या बोला था आपने।
कबीर ठहाका मारकर हंसे और बोले -
सूप कहे तो ठीक है, बोले छलनी जान।
सेमल में रस देखकर, कबिरा है हैरान।।
तभी से यह कहावत चल पड़ी- सूप बोले तो बोले, छलनी भी बोले जिसमें सौ छेद।
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@ डॉ. रा. रामकुमार
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