(भारत, २१ मई २०१९)
गर्मी के दिनों में फ्रीज़ से बड़ा कोई भी देश और संविधान नहीं हो सकता। उसी फ्रीज़ रूपी देश के भीतर चुनाव के लिए भिंडी-टिंडा से लेकर मलाई, बटर और ठंडे पानी की बोतलें साधारण परिस्थितियों में पड़ी ही होती हैं। आइसक्रीम और दूसरी चीजों के लिए शाम को अपनी ए-सी-कार में बैठकर रेस्तरां रेस्तरां घूमकर आप अपनी तैसी कराकर इत्मीनान से वापस आ सकते है। चुनाव आपका है।
फ्रीज़ के पास जाने पहले मैं अपने कन्फ़रटेबल क्षेत्रीय-कार्यालय यानी सौफे पर बैठा आज का घोषणापत्र तैयार कर रहा था। अपने पर्सनल देश में खाने लायक क्या-क्या है, इस पर विचार कर रहा था। वैसे भी इस खाना प्रधान देश में रोज़ सुबह उठकर 99 प्रतिशत घरों में सिर्फ खाने की ही चिंता होती है। उधर एकमात्र प्रधानमंत्री है जो कहते हैं कि न खाऊंगा, न खाने दूंगा। क्योंकि देश की हालत प्रधानमंत्री जानते हैं। गरीबी-प्रधान देश है। सभी को खाने की आज़ादी नहीं दी जा सकती। कुछ विशेष जाति, विशेष वर्ग, विशेष संगठनों को ही यह सुविधा संभव है। कुछ *निराला* के अनुसार *योग्यतम* सिद्ध हो जाएं और नौ हजार करोड़ या अन्य घपले कर विदेश भाग जाएं, वह उनकी कामयाबी है, मगर सरकार सबको खाने का खुला निमंत्रण नहीं दे सकती। सरकार सिर्फ अपना घोषणापत्र प्रकाशित कर सकती है कि हमारी आज की ओपननिंग ये है। आप अपनी क्लोजिंग देख लो।
ओपन-क्लोज से याद आया मुझे फ्रीज़ ओपन करके अपनी पसंद का चुनाव करना है। उसी का घोषणापत्र में तैयार कर रहा था जो लगभग हो गया है। पहला प्रस्ताव ये आया कि भाप में पकाए हुए कुछ मोमोज दो प्रकार की चटनियों के साथ रखे हैं। लाल दोनों हैं पर एक कम तीखी है और एक ज्यादा। दीदी और बहिनजी की तरह।
"नहीं, नहीं...देखिए ये सवाल मत कीजिये कि कौन कम और कौन ज्यादा। चटनी का तो ऐसा है कि जिसका स्वाद जिसको भा जाये। मुझे चटनियाँ कम पसन्द हैं।
जी, अब क्या बताऊं क्या पसन्द है। एक तो है जी, रसमलाई। वो फ्रीज़ में है नहीं, बनारस में खुली मिलती है। अब उसको छोड़िए। जो प्राप्त नहीं हो सकता उसको लेकर दुखी होने से बेहतर है, जो प्राप्त है, उसपर ध्यान केंद्रित रखा जाए।
फ्रीज़ में मोमोज़ के अलावे आसानी से उपलब्ध हैं दो किस्म की ब्रेड, तथा एक ही प्रकार के दूध से अलग-अलग दिन निकाली गयी मलाई। दूधवालों की कृपा से यही बड़ी बात है कि थोड़ी-थोड़ी कर के कटोरी भर मलाई कई दिनों में आप निकाल पाते हैं। कई दिन की मलाई कहने से बासी रूढ़ीवादी मलाई का बोध होता है इसलिए अलग-अलग दिन कहकर आधुनिक-गठबंधन का मान बढ़ाये रखना चाहता हूं।
इसके अलावे फ्रीज़ में दो अलग-अलग गंजियों में थोड़ा-थोड़ा करके कोई आधा लीटर दूध धरा पड़ा है। इसकी भी एक अलग आइडिओलोजी है। हम संग्रह विरोधी हैं और चाहते हैं कि घर में जितने भी पात्र हैं सबको कुछ न कुछ मिलना चाहिए। एक ही में सब रखकर पूंजीवाद या वंशवाद का लांछन कौन सहे।
आज के मेनू का मैंने चुनाव कर लिया है। जाकर अब दोनों किस्म की ब्रैड अलग-अलग बटर लगाकर सेंकना है और मलाई के साथ खाना है।
मैं उठकर अपने बूथ पर गया। बूथ मतलब फ्रीज़ का वह हिस्सा जहां जाकर मुझे चीजें चुननी है। मैंने पहले स्थानीय कंपनी के ब्रेड उठाये। यह कहीं स्थानीय तीर्थंकर कम्पनी को सपोर्ट न हो जाये, ऐसा सोचकर मेरा निष्पक्ष मन घबराया तो मैंने निरपेक्ष भाव से दूसरा पैकेट भी उठा लिया। मैं कहीं भी अपनी सेक्युलर सोच को गिरने नहीं देना चाहता। दोनों को मौका मिलना चाहिए। जो अपना बेहतर स्वाद प्रस्तुत करे, चुनाव उसका होना चाहिए। यह क्या कि जो चीज ज्यादा लोकप्रिय है, उसी को चुन लिया।
मेरी एक ब्रेड सिंधु घाटी की सभ्यता से बच गयी मानव जाति की तरह थी और दूसरी रणथंबोर के रेगिस्तान से ऊंट पर चढ़कर आयी तीर्थंकर-कम्पनी ने बनाई थी। तीर्थ में जाकर जो प्राकृतिक रूप में नहाते हैं, इस तरह उनके पाप कट जाते हैं। इसीलिए इन प्राकृतिक लोगों को मैं स्नेहवश तीर्थंकर कहता हूं। इस नाम से स्नेह होने से मैं ये ब्रेड ले आया हूँ।
तीर्थंकर-ब्रेड थोड़े कड़े थे, सिंधु घाटी की सभ्यता में नरमी थी। यह दोनों की सोच का अंतर था या दोनों की बनाने की विधि का, बता नहीं सकता। मगर यह तो मानना पड़ेगा कि 'बनाने में' दोनों में कितनी हेल्दी प्रतिस्पर्धा है। 'बनाना प्रधान' हमारी संस्कृति की यह गौरवशाली परम्परा है कि हर समय समयानुकूल बनाने में लगे हुए, हम लोग समय पड़ने पर गधे को भी बाप बना लेते है। इसे यूं समझिए कि एक महान नीतिदृष्टा ने तो कठिन समय में शव को नाव और रस्सी को सांप बना लिया था। कैसे? मत पूछिए, यह ट्रेड-सीक्रेट है।
लीजिए यह तीर्थ से नहाई मलाईदार ब्रेड खाइये या यह लीजिए सिंधु घाटी सभ्यता की रेसीपी से मलाई मारकर सेंकी गई मुलायम स्लाइस लीजिए। यह चुनाव आपके हाथ में हैं।
कुछ चुनाव आपके हाथ में नहीं होते। फ्रीजर में चुन चुनकर आपको चीजें रखने की स्वतंत्रता है। आप मालिक हैं। पर दिल पर रखकर हाथ बताइए तो? सचमुच आप मालिक हैं? माना यह घर आपके श्रम की गाढ़ी कमाई से चलता है। आपने डबल इनकम और डबल सेल्स-टैक्स भरकर व्यापारी को डबल मुनाफा देकर यह फ्रीज़ खरीदा।
जी, ओह, आपने बीच में ही पूछ लिया यह डबल इनकम टैक्स, सेल्स टैक्स और डबल मुनाफे का चक्कर क्या है?
बड़ी सीधी सी बात है। इसे यूं समझिए, इस पागल देश में आपको सुविधा है कि आप क्रेडिट कार्ड से पैसा चुका सकते हैं। व्यापारी की वह आय है। उस आय से बैंक 2% अपने व्यापारी से काटता है। कायदे से ये व्यापारी और बैंक के बीच का सौदा है। क्योंकि सरकार कैश-लेस देन-लेन चाहती है। बैंक कैश नहीं दे रही है। आप कार्ड स्वैप नहीं कर पा रहे हैं। व्यापारी कहता कैश दो नहीं तो बैंक का कमीशन भी आप दो। अब आपका कौन है ---- व्यापारी सरकार का एजेंट और बैंक का भी। बैंक सरकार के और व्यापारी के। सरकार किसकी? कितना अच्छा लगता है आपकी, मगर कहां है आपकी?
राजनीतिज्ञों के वेतन, पेंशन, खाना, घूमना, चुनाव सबके लिए आप पैसे देते हो. उधर विकास और सरकार चलाने का खर्च भी आप देते हो। इधर व्यापारी क्या देता है? राजनीतिज्ञों को चंदा? कहाँ से आया? उसकी जेब से कुछ नहीं गया, आपकी जेब से गया। कैसे? उसका सेल टैक्स किसने भरा, आपने? चीजें मंहगी किसने की? सरकार से मिलकर व्यापारी ने। खरीदा किसने? आपने। सरकार रक्षा किसकी कर रही है? व्यापारी की? नौकर किसकी है? आपकी। सेवाएं किसको दे रही है? व्यापारी को? उसकी तरफ से इनकम टैक्स भरें आप, अपना इनकम टैक्स भी भरें आप और उसका इनकम टैक्स भी व्यापारी निकाल ले आपसे। और हद तो ये है कि आप मालिक हैं, पूरा पार्लियामेंट आपके नौकरों और नुमाइंदों से भरा है, कोई मुख्य सेवक है, कोई प्रधान सेवक है, फिर भी बैंक में जमा पैसा आप अपनी मर्ज़ी से नहीं निकाल पाते। लोग आपकी हंसी उड़ाते हैं -" ये लो, ये चले देश के मालिक, खाली हाथ। कुछ दिन में अच्छे दिन आये तो कटोरा लेकर भी घूमेंगे।"
कुलमिलाकर हम अपनी मर्जी का चुनने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं।
जिस सरकारी लुटेरे की हम चरचा हम कर रहे हैं, उस व्यापारी के घर और दूकान में आपके पैसे से एसी-वेसी जाने क्या-क्या लग गए, बिल्डिंगें तन गईं और इधर आपका बैलेंस गड़बड़ा गया। मगर साहब फ्रीज़ में चीजें रखने के मामले में उसकी भी नहीं चलती और अगर पत्नी को पसंद न हों तो लहसुन-प्याज वांले समोसे भी नहीं रख सकता कोई मालिक फ्रीज़ में।
इधर चुनाव-आयोग, सरकार का भोंपू और जमूरा कहता है, चुनाव आपकी मर्जी का खेल है। सॉरी सॉरी, मेरा मतलब छूछा फ्रीज़ कहता है चुन लीजिए, जो भी आपको पसंद है।
रखा ही क्या है जो चुन लें। मजबूरी है जो तुम रख दोगे, उसी को चुनने की रस्म हम पूरी कर देंगे। बेवकूफी से भरे किन्तु ज़रूरी सामानों से भरे फ्रीज़ के सामने मैं हक्का-बक्का खड़ा हूँ।
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डॉ. रा. रामकुमार,
आज सुबह की दैनंदिनी,
21.05.2019,
मंगलवार, 8.30 प्रातः
गर्मी के दिनों में फ्रीज़ से बड़ा कोई भी देश और संविधान नहीं हो सकता। उसी फ्रीज़ रूपी देश के भीतर चुनाव के लिए भिंडी-टिंडा से लेकर मलाई, बटर और ठंडे पानी की बोतलें साधारण परिस्थितियों में पड़ी ही होती हैं। आइसक्रीम और दूसरी चीजों के लिए शाम को अपनी ए-सी-कार में बैठकर रेस्तरां रेस्तरां घूमकर आप अपनी तैसी कराकर इत्मीनान से वापस आ सकते है। चुनाव आपका है।
फ्रीज़ के पास जाने पहले मैं अपने कन्फ़रटेबल क्षेत्रीय-कार्यालय यानी सौफे पर बैठा आज का घोषणापत्र तैयार कर रहा था। अपने पर्सनल देश में खाने लायक क्या-क्या है, इस पर विचार कर रहा था। वैसे भी इस खाना प्रधान देश में रोज़ सुबह उठकर 99 प्रतिशत घरों में सिर्फ खाने की ही चिंता होती है। उधर एकमात्र प्रधानमंत्री है जो कहते हैं कि न खाऊंगा, न खाने दूंगा। क्योंकि देश की हालत प्रधानमंत्री जानते हैं। गरीबी-प्रधान देश है। सभी को खाने की आज़ादी नहीं दी जा सकती। कुछ विशेष जाति, विशेष वर्ग, विशेष संगठनों को ही यह सुविधा संभव है। कुछ *निराला* के अनुसार *योग्यतम* सिद्ध हो जाएं और नौ हजार करोड़ या अन्य घपले कर विदेश भाग जाएं, वह उनकी कामयाबी है, मगर सरकार सबको खाने का खुला निमंत्रण नहीं दे सकती। सरकार सिर्फ अपना घोषणापत्र प्रकाशित कर सकती है कि हमारी आज की ओपननिंग ये है। आप अपनी क्लोजिंग देख लो।
ओपन-क्लोज से याद आया मुझे फ्रीज़ ओपन करके अपनी पसंद का चुनाव करना है। उसी का घोषणापत्र में तैयार कर रहा था जो लगभग हो गया है। पहला प्रस्ताव ये आया कि भाप में पकाए हुए कुछ मोमोज दो प्रकार की चटनियों के साथ रखे हैं। लाल दोनों हैं पर एक कम तीखी है और एक ज्यादा। दीदी और बहिनजी की तरह।
"नहीं, नहीं...देखिए ये सवाल मत कीजिये कि कौन कम और कौन ज्यादा। चटनी का तो ऐसा है कि जिसका स्वाद जिसको भा जाये। मुझे चटनियाँ कम पसन्द हैं।
जी, अब क्या बताऊं क्या पसन्द है। एक तो है जी, रसमलाई। वो फ्रीज़ में है नहीं, बनारस में खुली मिलती है। अब उसको छोड़िए। जो प्राप्त नहीं हो सकता उसको लेकर दुखी होने से बेहतर है, जो प्राप्त है, उसपर ध्यान केंद्रित रखा जाए।
फ्रीज़ में मोमोज़ के अलावे आसानी से उपलब्ध हैं दो किस्म की ब्रेड, तथा एक ही प्रकार के दूध से अलग-अलग दिन निकाली गयी मलाई। दूधवालों की कृपा से यही बड़ी बात है कि थोड़ी-थोड़ी कर के कटोरी भर मलाई कई दिनों में आप निकाल पाते हैं। कई दिन की मलाई कहने से बासी रूढ़ीवादी मलाई का बोध होता है इसलिए अलग-अलग दिन कहकर आधुनिक-गठबंधन का मान बढ़ाये रखना चाहता हूं।
इसके अलावे फ्रीज़ में दो अलग-अलग गंजियों में थोड़ा-थोड़ा करके कोई आधा लीटर दूध धरा पड़ा है। इसकी भी एक अलग आइडिओलोजी है। हम संग्रह विरोधी हैं और चाहते हैं कि घर में जितने भी पात्र हैं सबको कुछ न कुछ मिलना चाहिए। एक ही में सब रखकर पूंजीवाद या वंशवाद का लांछन कौन सहे।
आज के मेनू का मैंने चुनाव कर लिया है। जाकर अब दोनों किस्म की ब्रैड अलग-अलग बटर लगाकर सेंकना है और मलाई के साथ खाना है।
मैं उठकर अपने बूथ पर गया। बूथ मतलब फ्रीज़ का वह हिस्सा जहां जाकर मुझे चीजें चुननी है। मैंने पहले स्थानीय कंपनी के ब्रेड उठाये। यह कहीं स्थानीय तीर्थंकर कम्पनी को सपोर्ट न हो जाये, ऐसा सोचकर मेरा निष्पक्ष मन घबराया तो मैंने निरपेक्ष भाव से दूसरा पैकेट भी उठा लिया। मैं कहीं भी अपनी सेक्युलर सोच को गिरने नहीं देना चाहता। दोनों को मौका मिलना चाहिए। जो अपना बेहतर स्वाद प्रस्तुत करे, चुनाव उसका होना चाहिए। यह क्या कि जो चीज ज्यादा लोकप्रिय है, उसी को चुन लिया।
मेरी एक ब्रेड सिंधु घाटी की सभ्यता से बच गयी मानव जाति की तरह थी और दूसरी रणथंबोर के रेगिस्तान से ऊंट पर चढ़कर आयी तीर्थंकर-कम्पनी ने बनाई थी। तीर्थ में जाकर जो प्राकृतिक रूप में नहाते हैं, इस तरह उनके पाप कट जाते हैं। इसीलिए इन प्राकृतिक लोगों को मैं स्नेहवश तीर्थंकर कहता हूं। इस नाम से स्नेह होने से मैं ये ब्रेड ले आया हूँ।
तीर्थंकर-ब्रेड थोड़े कड़े थे, सिंधु घाटी की सभ्यता में नरमी थी। यह दोनों की सोच का अंतर था या दोनों की बनाने की विधि का, बता नहीं सकता। मगर यह तो मानना पड़ेगा कि 'बनाने में' दोनों में कितनी हेल्दी प्रतिस्पर्धा है। 'बनाना प्रधान' हमारी संस्कृति की यह गौरवशाली परम्परा है कि हर समय समयानुकूल बनाने में लगे हुए, हम लोग समय पड़ने पर गधे को भी बाप बना लेते है। इसे यूं समझिए कि एक महान नीतिदृष्टा ने तो कठिन समय में शव को नाव और रस्सी को सांप बना लिया था। कैसे? मत पूछिए, यह ट्रेड-सीक्रेट है।
लीजिए यह तीर्थ से नहाई मलाईदार ब्रेड खाइये या यह लीजिए सिंधु घाटी सभ्यता की रेसीपी से मलाई मारकर सेंकी गई मुलायम स्लाइस लीजिए। यह चुनाव आपके हाथ में हैं।
कुछ चुनाव आपके हाथ में नहीं होते। फ्रीजर में चुन चुनकर आपको चीजें रखने की स्वतंत्रता है। आप मालिक हैं। पर दिल पर रखकर हाथ बताइए तो? सचमुच आप मालिक हैं? माना यह घर आपके श्रम की गाढ़ी कमाई से चलता है। आपने डबल इनकम और डबल सेल्स-टैक्स भरकर व्यापारी को डबल मुनाफा देकर यह फ्रीज़ खरीदा।
जी, ओह, आपने बीच में ही पूछ लिया यह डबल इनकम टैक्स, सेल्स टैक्स और डबल मुनाफे का चक्कर क्या है?
बड़ी सीधी सी बात है। इसे यूं समझिए, इस पागल देश में आपको सुविधा है कि आप क्रेडिट कार्ड से पैसा चुका सकते हैं। व्यापारी की वह आय है। उस आय से बैंक 2% अपने व्यापारी से काटता है। कायदे से ये व्यापारी और बैंक के बीच का सौदा है। क्योंकि सरकार कैश-लेस देन-लेन चाहती है। बैंक कैश नहीं दे रही है। आप कार्ड स्वैप नहीं कर पा रहे हैं। व्यापारी कहता कैश दो नहीं तो बैंक का कमीशन भी आप दो। अब आपका कौन है ---- व्यापारी सरकार का एजेंट और बैंक का भी। बैंक सरकार के और व्यापारी के। सरकार किसकी? कितना अच्छा लगता है आपकी, मगर कहां है आपकी?
राजनीतिज्ञों के वेतन, पेंशन, खाना, घूमना, चुनाव सबके लिए आप पैसे देते हो. उधर विकास और सरकार चलाने का खर्च भी आप देते हो। इधर व्यापारी क्या देता है? राजनीतिज्ञों को चंदा? कहाँ से आया? उसकी जेब से कुछ नहीं गया, आपकी जेब से गया। कैसे? उसका सेल टैक्स किसने भरा, आपने? चीजें मंहगी किसने की? सरकार से मिलकर व्यापारी ने। खरीदा किसने? आपने। सरकार रक्षा किसकी कर रही है? व्यापारी की? नौकर किसकी है? आपकी। सेवाएं किसको दे रही है? व्यापारी को? उसकी तरफ से इनकम टैक्स भरें आप, अपना इनकम टैक्स भी भरें आप और उसका इनकम टैक्स भी व्यापारी निकाल ले आपसे। और हद तो ये है कि आप मालिक हैं, पूरा पार्लियामेंट आपके नौकरों और नुमाइंदों से भरा है, कोई मुख्य सेवक है, कोई प्रधान सेवक है, फिर भी बैंक में जमा पैसा आप अपनी मर्ज़ी से नहीं निकाल पाते। लोग आपकी हंसी उड़ाते हैं -" ये लो, ये चले देश के मालिक, खाली हाथ। कुछ दिन में अच्छे दिन आये तो कटोरा लेकर भी घूमेंगे।"
कुलमिलाकर हम अपनी मर्जी का चुनने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं।
जिस सरकारी लुटेरे की हम चरचा हम कर रहे हैं, उस व्यापारी के घर और दूकान में आपके पैसे से एसी-वेसी जाने क्या-क्या लग गए, बिल्डिंगें तन गईं और इधर आपका बैलेंस गड़बड़ा गया। मगर साहब फ्रीज़ में चीजें रखने के मामले में उसकी भी नहीं चलती और अगर पत्नी को पसंद न हों तो लहसुन-प्याज वांले समोसे भी नहीं रख सकता कोई मालिक फ्रीज़ में।
इधर चुनाव-आयोग, सरकार का भोंपू और जमूरा कहता है, चुनाव आपकी मर्जी का खेल है। सॉरी सॉरी, मेरा मतलब छूछा फ्रीज़ कहता है चुन लीजिए, जो भी आपको पसंद है।
रखा ही क्या है जो चुन लें। मजबूरी है जो तुम रख दोगे, उसी को चुनने की रस्म हम पूरी कर देंगे। बेवकूफी से भरे किन्तु ज़रूरी सामानों से भरे फ्रीज़ के सामने मैं हक्का-बक्का खड़ा हूँ।
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डॉ. रा. रामकुमार,
आज सुबह की दैनंदिनी,
21.05.2019,
मंगलवार, 8.30 प्रातः
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