Skip to main content

कुछ सोते, कुछ जागते

देश को एक कश्चित योगदान..


१५.५.१९,१०.३५.रात्रि
👇

दिलों से तो गुजरता हूं कहीं रहता नहीं हूं।
सभी को चाहता तो हूं मगर कहता नहीं हूं।

नदी होता अगर, बंजर बियाबां में बदलते?
समंदर हूं , उबलता हूं, मगर बहता नहीं हूं।

किनारों पर कई रस्मोरवायत बांध लेतीं,
कहूं कैसे कि क्या-क्या मार मैं सहता नहीं हूं।


१६.५.१९

बादलों को चूमती ये वादियां अच्छी लगीं।
कुदरती तहज़ीब की उरयानियां अच्छी लगीं।

हम नहीं डरते कि हम जांबाज़ हैं, दिलदार हैं,
इसलिये इस दौर की ये आंधियां अच्छी लगीं।

उस सदी से इस सदी तक, बोले' बिन पढ़ती रहीं,
ये मुझे इस शहर की खामोशियां अच्छी लगीं।

मालकिन है हर लहर की, जलजले की जान है,
यार! तूफ़ां की हवा से यारियां अच्छी लगीं।

एक मुफ़लिस के लिए फ़ाक़ा ओ रोज़ा एक है,
दर्दो ग़म लानत भरी, इफ़तारियां अच्छी लगीं।

आसतीं में सांप हैं या हैं बग़ल में छूरियां,
ये नज़र मोटी, पढ़े बारीकियां अच्छी लगीं।

ये इधर टूटी क़यामत, वो उधर बरपा कहर,
साजिशों की लापता सरगोशियां अच्छी लगीं।

सांप ने डसना न छोड़ा, दूध देना आपने,
आप दोनों की मुझे खुद्दारियां अच्छी लगीं।

लड़ रहीं ख़ुदबीं अकेली झूठ से तकदीर के,
इसलिए हर गाम पै दुश्वारियां अच्छी लगीं।

00 मुक्तक / क़ता 16.5.19

मुश्किलें हैं, गफलतें हैं, पर चढ़ाई चढ़ रहा।
मैं हिमालय से बहुत ऊंचे तसव्वुर गढ़ रहा।
हां कि खिदमतगार हूं, सच्ची इबादतगाह का,
जिसको सजदे कर रहा, उसकी नमाज़े पढ़ रहा।

××××××
मुक्तक /लम्बी बह्र

हवा कड़वी है,'मीठी खुशबु है फूलों में', ये कैसी सदी है!
मुझे लगता है, बच्चे सोचते हैं, ये जहां गुड़ की नदी है।

सलाखेंदार आंखें, बंद दरवाज़े पै दिल के, सख्त पहरे,
ठिठकना देखकर डरना, अजब रिश्ता है, कितना सरहदी है।

जुबां पर कुछ, नज़र में कुछ, है दिल में कुछ, सियासतदान दुनिया,
सजी दुल्हन पै शक होता है शायद वो, मिसाइल से लदी है।

इबादत में, हुज़ूरे खास में देखा - यही शौक़ ए सियासत,
कतारों में बहुत पीछे है' नेकी, सामने बैठी बदी है।

अंगूठाछाप इतिहासों के गर्जन और तर्जन की बिना पर,
नवांकुर पीढ़ियों की गूढ़ हत्या है, यही तो त्रासदी है।

डॉ. रा. रामकुमार,
१६.५.१९



Comments

Popular posts from this blog

तोता उड़ गया

और आखिर अपनी आदत के मुताबिक मेरे पड़ौसी का तोता उड़ गया। उसके उड़ जाने की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। वह दिन भर खुले हुए दरवाजों के भीतर एक चाौखट पर बैठा रहता था। दोनों तरफ खुले हुए दरवाजे के बाहर जाने की उसने कभी कोशिश नहीं की। एक बार हाथों से जरूर उड़ा था। पड़ौसी की लड़की के हाथों में उसके नाखून गड़ गए थे। वह घबराई तो घबराहट में तोते ने उड़ान भर ली। वह उड़ान अनभ्यस्त थी। थोडी दूर पर ही खत्म हो गई। तोता स्वेच्छा से पकड़ में आ गया। तोते या पक्षी की उड़ान या तो घबराने पर होती है या बहुत खुश होने पर। जानवरों के पास दौड़ पड़ने का हुनर होता है , पक्षियों के पास उड़ने का। पशुओं के पिल्ले या शावक खुशियों में कुलांचे भरते हैं। आनंद में जोर से चीखते हैं और भारी दुख पड़ने पर भी चीखते हैं। पक्षी भी कूकते हैं या उड़ते हैं। इस बार भी तोता किसी बात से घबराया होगा। पड़ौसी की पत्नी शासकीय प्रवास पर है। एक कारण यह भी हो सकता है। हो सकता है घर में सबसे ज्यादा वह उन्हें ही चाहता रहा हो। जैसा कि प्रायः होता है कि स्त्री ही घरेलू मामलों में चाहत और लगाव का प्रतीक होती है। दूसरा बड़ा जगजाहिर कारण यह है कि लाख पिजरों के सुख के ब

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।

सूप बोले तो बोले छलनी भी..

सूप बुहारे, तौले, झाड़े चलनी झर-झर बोले। साहूकारों में आये तो चोर बहुत मुंह खोले। एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।' ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण। काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे। चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी नि