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Showing posts from April, 2009

साहित्य में अफ़सरवाद

उद्योग-नगरी के साहित्य क्लब में तब अध्यक्ष कोई बड़ा अधिकारी होता था और सचिव भी एक छोटा अफसर होता था। ये अफसर प्रायः प्रबंधक-वर्गीय होते थे। डाॅक्टर और इंजीनियर कार्यकारिणी में रखे जाते थे। टीचर्स ,इस्टेट और सैफ्टी इंस्पेक्टर वगैरह सदस्य हुआ करते थे। अध्यक्ष और सचिव पद पर बैठे पदाधिकारी अपनी शक्ति लगााकर महाप्रबंक जैसी मूल्यवान हस्तियों को तलुवों से पकड़कर ले आते थे और तालियां बजाकर अपने हाथ साफ कर लेते थे। उन दिनों मैं प्रबंधन में नया था और अफसर नहीं था। मेरे जैसांे की रचनाएं सराही तो जाती थीं मगर ’अधिकारी-सम्मान’ नहीं दिया जाता था। एक दिन मैं प्रशासनिक सेवा के लिए चुन लिया गया। अचानक जैसे सब कुछ बदल गया। मैं अब उपेक्षणीय से सम्माननीय हो गया। मेरी रचनाओं में वज़न आ गया। जबकि राजधानी की प्रशासनिक अकादमी के लिए मुझे उद्योग-नगरी से विदा होना था , तब मेरे सम्मान में साहित्य क्लब में विशेष आयोजन किया गया। अध्यक्ष , सचिव और कार्यकारिधी के पदाधिकारीगण फूलमालाओं की तरह बात बात में गले लगने लगे।विदाई में जो रचनाएं मुझे पढ़नी थीं , उसे रिकार्ड करने का इंतज़ाम स्वयं अध्यक्षरूपी अधिकारी ने की थी। य

आईना मुझे देखकर हैरान सा क्यों है ?

लोंगों की धारणाओं में दर्पण के विषय में एक बात घर कर गई है कि दर्पण कभी झूठ नहीं बोलता। ऐसा कहने के पीछे कोई घटना अवश्य रही होगी। शायद कोई ऐसी घटना जिसमें पहली बार किसी को किसी बात से लाज आई हागी। किसी बात से क्या , किसी सौन्दर्यजीवी ने किसी सुन्दरी से कह दिया होगा ‘‘ तुम्हारा सौन्दर्य अद्वितीय है।‘‘ स्वाभाविक लाज से तरुणी और सुन्दर हो गई होगी। धड़कती हुई बोली होगी:‘‘ धत्..‘‘ सौन्दर्य प्रेमी ने कहा होगा:‘6 विश्वास न हो तो दर्पण देख लो। दर्पण झूठ नहीं बोलता।‘‘ शर्मीली उत्सुकता युवती ने दख लिया होगा और बलखाकर मुंह छुपा लिया होगा कि हाय ! मैं इतनी सुन्दर हूं । पहले मेरा ध्यान क्यों इस तरफ़ क्यांे नहीं गया ?‘‘ इस आभास के बाद वह कैसे कह दे कि दर्पण झूठा है। इसी रसीले सौन्दर्यबोध ने दर्पण को सत्यवादी प्रचारित कर दिया।परन्तु केवल रसीले प्रमाणों तक ही दर्पण की सत्यवादिता ठहरी नहीं है। समाज की सुखद स्थितियां तो मिलन की केवल क्षणिक स्मृतियां है ,स्वप्न है। ‘मिलन स्वप्न है ,विरह जागरण ’ ही समाज का साहित्यिक-सत्य है। समाज जागरण की जगह खड़ा है और घुड़क रहा है:‘‘ तू किसी से मिलकर आ रही है या आ रहा है

अनुभूतियां अभिव्यक्तियां

अनुभूतियां , अभिव्यक्तियां, जीवन की दो ध्रुव शक्तियां, पहला चरण है आचरण, दूजा चरण अनुवृत्तियां ।। रचना का पहला धर्म है, संवेदना जीवित रहे । विचलित न हो जो हार से, साहस से चिरसिंचित रहे । एकाकी होकर भी चले, उसका मनोबल क्या दलें, दूषित स्वजीवी हेकड़ी, बूढ़ी अपाहिज भ्रांतियां ।। अपने लिए सुविधा रखे, दुविधाएं देकर अन्य को । निर्मल सुजन कब पूजते, ऐसे दुमुख सौजन्य को ? उपकार की गणना करे, हर सांस में करुणा भरे, उसकी बनावट टूटती, चलती जो सच की आंधियां ।। अपने को रखकर केन्द्र में, दूजे का मूल्यांकन करे । प्रतिफल की आशा में सदा, आदर्श का पालन करे । अपने लिए जीता मरे, विद्वेष विष पीता फिरे, ऐसे अभागे व्यक्ति की, खुलती कभी न ग्रंथियां ।।