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Showing posts from August, 2013

और अंतिम रस है- वात्सल्य-रस:

बाल कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान के विशेष संदर्भ में   - कभी कभी और प्रायः सोचता हूं कि मीठा अंत में क्यों परोसा जाता है? समारोह का अध्यक्ष आख़री में क्यों बोलता है? प्रथम विजेता की घोषणा अंत में ही क्यों की जाती है? सबसे ज्यादा और  प्रभावशाली कवि को बाद में ही क्यों प्रस्तुत किया जाता है? नव-रसों में श्रृंगार को पहला स्थान क्यों दिया गया तथा औचकदन कूद पड़नेवाले वात्सल्य रस को दसवें रस के रूप में क्यों दिया गया? यदि इन सब सवालों से बचकानापन टपक रहा है तो टपक रहा है। इस बचकानेपन को छोड़ पाना या इससे अलग हो पाना संभव होता तो ‘झांसी की रानी’ के गौरव का गान करनेवाली कवयित्री सुभद्राकुमारी चैहान का मातृत्व कभी ‘कदंब के पेड़’, कोयल, खिलौनेवाला और धूप और पानी जैसे कालजयी बाल-गीतों की तरफ़ नहीं मुड़ा होता। मेरा बचपन जिस बालगीत को ‘मां की आरती’ की तरह गाकर तृप्त होता रहा है, वह हर बच्चे की तरह मेरा अपना आत्मीय गीत बनकर दिल में रच-पच गया था। यह बहुत बाद में मुझे पता चला कि वह गीत ‘झांसी की रानी’ गानेवाली तथा ‘वीरों का कैसा हो वसंत’ सिखानेवाली स्वतंत्रता-समर की वीरांगना कवयित्री सुभद

नागपंचमी

नागपंचमी त्यौहार हमारी ‘सांस्कृतिक विरासतों में एक’ प्रतिनिधि-त्यौहार है। विदेशों में भारत ‘संपेरों के देश’ के रूप में जाना जाता है। ऐनाकोंडा और कोब्रा जैसे ख़तरनाक सांपों को विदेशी महत्व का समझा जाता है लेकिन ‘नागलोक’ को भारत का ही पर्याय माना जाता है। मैं कैसे भूल सकता हूं कि हमारी पाठशालाओं में पहला महत्वपूर्ण आयोजन ‘नागपंचमी’ का ही होता था। हम अपनी पत्थर की स्लेटों पर खड़िया की शलाकाओं से ‘नाग-देवता’ यानी ‘ंिकंग-कोबरा’ की आकृति बनाते थे, जिसमें हमारे अभिभावक योगदान करते थे और फिर उसे हम स्कूलों में ले जाते थे। वहां सारे स्लेटी नागों की सामूहिक पूजा होती थी और हमारे पैसों को इकट्ठा करके बुलवाए गए पानीवाले नारियलों की बलि देकर मीठी चिरौंजी के साथ उसका प्रसाद वितरित किया जाता था। मैंने हमेशा सोचा है और हमेशा सोचता रहूंगा कि नागों की पूजा क्यों? इतने बचपन में क्यों? जबकि विद्या की देवी सरस्वती बतायी जाती हंै और महाविद्यालयों में उसे तब मनाया जाता है, जब वैसी विद्या की आवश्यकता नहीं रहती, जैसी बचपन को चाहिए। महाविद्यालयों में सरस्वती पूजा मौज का त्यौहार है, डिस्को म्यूजिक और चंद