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आषाढ़ का पहला दिन -1

आषाढ़ का पहला दिन -1

जीवन की आपाधापी, रोज़मर्रा की भागदौड़ और सुविधाओं की बाधादौड़ में मनुष्य तिथियों-तारीख़ों को याद करने के लिए भी मोबाइल का स्क्रीन ऑन करता है। गनीमत है कि स्मार्ट फोन के चेहरे पर मुस्कान की तरह तारीख़, समय, दिन आदि ज़रूरत की बातें पुती हुई होती हैं। इस तरह मोबाइल हमारी दैनंदिन जीवन की श्वांस प्रश्वांस बन गया है। किंतु इस पर भी हम भी हम ही हैं। अपनी ट्रस्ट व्यस्तताओं के चलते हम इसी मोबाइल को कहीं रखकर भूल जाते हैं। भूल जाने के उस क्षण में हमारी हालत देखने लायक होती है... बेचैन, बदहवास, लुटे पीते, असहाय, निरुपाय, निराधार, उन्मत्त, आवेशित, आक्रोशित और उद्वेलित यहां से वहां चकराते रहते हैं। हमारी चिड़चिड़ाहट उन पर उतरती है जो हमारे अभिन्न और अधीन सहायक होते हैं। अजब दृश्य होता है कि विस्मृतियों का सारा ठीकरा स्मृतियों पर टूटता है।
क्या वास्तव में हमारी अपनी अस्त-व्यस्त स्मृतियों के लिए दूसरे ही जिम्मेदार हैं? क्या हो गया है हमें? हम दौड़ते-हांफते कहां आ गए हैं? मोबाइल को दुनिया का सच्चा और एकमात्र मार्गदर्शक मानकर हम उसी में सिमटकर रह गए हैं। हम अपनी सारी जानकारियां, सारे रहस्य, सारे राज़, सारी स्मृतियां उसी के हवाले कर चुके हैं। वह गया तो हम गए।
बहरहाल, मेरा लक्ष्य मोबाइल की गुणवत्ता और सत्ता पर चर्चा करने का नहीं है। मेरा लक्ष्य है आषाढ़ ... आषाढ़ का पहला दिन और आखरी दिन। आषाढ़ के दोनों पखवाड़े और तीसों दिन।
मुझे बिल्कुल याद नहीं है कि मैं आषाढ़ को कितने दशक पीछे छोड़ आया था। मानसून आते थे, बारिशें होतीं थीं, शिक्षण सत्र शुरू होते और खत्म होते थे। हम समझते थे जून आया, जुलाई आयी, मई गयी। आषाढ़ हमारे हिसाब-किताब में कभी नही आता था। एकादशी और देवशयनी ग्यारस भी जून की किसी तारीख को आती थी। गुरुपूर्णिमा भी जून या जुलाई की बग्गी पर बैठकर आती थी। चौमासे भी ईसवीं तारीखों के कोष्ठकों में बैठे वर्षावास करते थे। गणेशोत्सव, जन्माष्टमी, तीज त्यौहार भी जून-जुलाई-अगस्त-सितंबर की मुट्ठियों में थे।
अब मैं तब चौंका जब मुझसे आषाढ़ पर कुछ कहने या लिखने का प्रस्ताव आया। मुझ जैसे आराम-तलब आदमी के लिए यह भार ऐसा था जैसे दुबले पर दो आषाढ़।
मैंने हड़भड़ा कर आसपास देखा। अगल-बगल टटोला। अन्य शब्दों में बगलें झांकी। आषाढ़ कोई दिखाई देने वाली वस्तु तो था नहीं, वह बाहर आसपास कहीं नहीं दिखा। अब मैंने अपने अंदर देखा। अतीत की स्मृतियों और विस्मृतियों के भंडार में उसके दस्तावेज़ तलाशने शुरू किए।
गृह-स्वामिनी ने घर के हिसाब के लिए दीवाल पर कैलेंडर लटका रखा था। उसमें आषाढ़ के हस्ताक्षर थे। अब मैंने याद करने की कोशिश की कि पिछली बार कब-कब आषाढ़ से मिलने का अवसर आया था।
आषाढ़ जून-जुलाई की ऊमस भरी उकतायी हुई सड़क के निहत्थे फुटपाथ पर चल रहा है। हालांकि यह अपरिचित सा, मुंह से पसीना पोंछता हुआ चिढ़चिढ़ा महीना अधिसंख्य भारतियों के तीज-त्यौहारों वाले महीनों का अग्रज भाई है, पुरोहित है। इन भारतीय संवत्सरों की इकाई है। मुहूर्तों और शुभ-कार्यों के पंचांगवाले हिन्दू बारह-मासों का चौथा महीना है। ऋतुओं का पहरुआ और अगुआ है। ग्रीष्म की जला देनेवाली तपिस पर गुलाबजल छिड़कनेवाला पायलेटिंग वाटरमैन है। आस्तिक-नास्तिक त्रि-धर्मों अर्थात सनातनियों, जैनियों और बुद्धों का चातुर्मास और वर्षा-वास का श्रीगणेश है। जब हम पढ़े-लिखे और कदाचित अपढ़ लोग अंग्रेजी कैलेंडर में जून की तारीख़ों में फड़फड़ाते चक्रव्यूह में उलझे रहते हैं, तब जिम्मेदार आषाढ़ हमारी उन्नत कृषि के लिए नदियों, जलाशयों और खेतों को निरंतर उर्वर बनाने में लगा रहता है। यह अनजाना आषाढ़ ही किसानों का मितान है। धरती को धन-धान्य से परिपूर्ण करने के लिए पीले चांवल हमारे द्वार पर डालनेवाला न्यौतिया खवास भी यही है।
लोकजीवन में ही नहीं हमारे साहित्य में भी आषाढ़ को बहुत मान दिया गया है।
मैं अकस्मात साहित्य की तरफ लौट आया हूं। यही होना भी था। वो कहते हैं न, मुल्ले की दौड़ मस्जिद तक। एक कहावत है भाई साहब, आषाढ़ को किसी मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे-मठ-चौबारे या गिरजे से क्या लेना देना । वह तो मस्तमौला है। सबसे उसका एक सा नाता है।
बात मेरे साहित्य की तरफ लौटने की थी। मुझे सबसे पहले मोहन राकेश का लिखा नए-जमाने का नाटक 'आषाढ़ का एक दिन' याद आ रहा है। यह नाटक उज्जयिनी के संस्कृत कवि-कुल शिरोमणि कालिदास के जीवन पर आधारित है। ये वही कालिदास हैं जिन्होंने सर्वप्रथम 'आषाढ़स्य प्रथम दिवसे' उर्फ 'आषाढ़ के पहले दिन' को अपनी 'पहली विरह के संदेशे-वाली काव्यकृति' 'मेघदूतम्' समर्पित की थी। आषाढ़ का वह पहला दिन था जब कदाचित कालिदास की पहली-दृष्टि, ऋतु के पहले उमड़ते-घुमड़ते बादल पर पड़ी थी। इस अनुभूति को कालिदास ने 'मेघदूतम्' के द्वितीय छंद की तृतीय पंक्ति में ऐसे अभिव्यक्त किया है :
आषाढ़स्यस्य प्रथमदिवसे मेघम् आश्लिष्ट सानुम्
वप्र क्रीड़ा परिणत गज प्रेक्षणीयं ददर्श।
पहले ही कथा-सूत्र में कालिदास ने वर्णन किया है कि अलकापुरी का कोई यक्ष अपनी प्रेयसी के प्रेम में मग्न था। उसके स्वामी धनपति (कुबेर?) ने सेवा-उपराम उस यक्ष को दंडित करते हुए एक वर्ष का 'वहिर्वास' दिया। सुदूर दक्षिण में दण्ड-भोग झेलते हुए भीषण ग्रीष्म और प्राणान्तक विरहाग्नि से कृशकाय दुर्बल यक्ष ने आषाढ़ के पहले दिन राम-गिरि के शिखर से खेलते हुए बादलों को देखा। यक्ष को वे बादल ऐसे शक्तिशाली मतवाले हाथी के रूप में दिखाई दिए जो गिरि शिखरों को ढहाने का प्रयास कर रहे हों। 'अश्व-बल' से बड़े इस आकाशीय 'हस्ति-बल' के प्रति उस कृश-काय को बड़ी अन्तःप्रेरणा प्राप्त हुई। वैसे भी तब हस्ति-बल वन और राज्य के लिए बहु-आयामी साधन थे।
यक्ष ने दूरस्थ हिमालय में स्थित अलकापुरी में विरह से झुरती अपनी प्रेयसी को सन्देशा भेजने के लिए इसी शक्तिशाली हाथी जैसे लगनेवाले बादल या मेघ को अपना दूत बनाने का निश्चय किया। इसी निश्चय का परिणाम 'मेघदूतम्' के रूप में पहली अद्भुत प्रेमपाती या प्रेम सन्देश है जो संस्कृत-साहित्य की आज भी अप्रतिम धरोहर है।
'मेघदूतम्' एक स्थान से दूसरे स्थान को भेजे जानेवाला वह मौखिक संदेश है, जिसे कालिदास ने लिपिबद्ध किया, वह एक ही दिन में नियोजित किया गया। यह दिन आषाढ़ का पहला दिन है.. आषाढ़स्य प्रथम दिवसे... यक्ष ने इस सन्देश में मेघ को मार्ग का नक्शा भी दिया और उन स्थानों का भी पता-ठिकाना दिया जहां 'मेघ जैसे को' आनन्द और रस भी उपलब्ध हो। उसे कहां-कहां से जाना है, कैसे-कैसे अनुपम प्राकृतिक दृश्य मिलेंगे, कैसी रमणियाँ मिलेंगी, किससे उसे क्या व्यवहार करना है। मेघ के साथ उसकी सहचरी सौदामिनी, दामिनी, चंचला, विद्युता, तड़िता, बीजुरी अथवा बिजली भी होगी, उसका विशेष ध्यान रखने की सलाह देना यक्ष नहीं भूलता। इससे पता चलता है कि उसके हृदय में यक्षिणी के प्रति कितना कोमल भाव रहा होगा। यही कारण है कि यह 'प्रेम-सन्देश-युक्त पत्रिका' इतनी लोक-हृदय को बांधे रखने में अभी तक सफल है।
अन्यान्य की भांति मोहन राकेश को भी कालिदास द्वारा अनुभूत 'आषाढ़ का यह पहला दिन' इतना भा गया कि कालिदास की अनुभूतियों को ही साक्ष्य बनाकर उन्होंने 'आषाढ़ का एक दिन' शीर्षक से नाटक लिखा।
यहां देखनेवाली बात यह है कि 'पहला दिन एक निश्चित दिन' है। मोहन राकेश ने 'आषाढ़ का एक दिन' कहकर उसकी निश्चयात्मकता समाप्त कर दी। 'आषाढ़ का एक दिन' अर्थात आषाढ़ के तीस दिनों में से कोई भी एक दिन। मोहन राकेश ने गम्भीरता से नहीं सोचा कि 'पहले दिन' जितना रोमांचक कोई 'दूसरा दिन' नहीं हो सकता। यह अपना-अपना दृष्टिकोण नहीं हो सकता। वैशाख और जेठ की अर्थात् मई और जून की गर्मियों ने जिन्हें झुलसाया है, उनसे आषाढ़ के पहले मानसूनी बादल के आने की खुशी पूछकर देखिये।
माना कि आषाढ़ के पास भी अपने तीस दिन हैं। मोहन राकेश ने उनमें से किसी एक दिन के रूप में, किस पक्ष या पखवाड़े का कौन-सा दिन पकड़ा वे जानें, मैंने कालीदास का 'पहला दिन' कसकर पकड़ लिया है। यह पहला दिन गीतकार 'भरत व्यास' ने भी पकड़ा। 'कवि कालिदास' नामक फ़िल्म के लिए गीत लिखते हुए उन्होंने गीत का प्रारम्भ कालिदास के इसी 'प्रथम' से उठाया..... 'ओ आषाढ़ के पहले बादल'. इस गीत में भरत व्यास ने पूरे कालिदास के 'मेघदूत' को तीन-चार पदों में उतार दिया। एक और फ़िल्म बनी 'मेघदूत' उसमें फ़ैयाज़ हासमी ने गीत लिखा है। उन्होंने 'आषाढ़' की जगह 'वर्षा' शब्द का प्रयोग किया। उनका मुखड़ा है - 'ओ वर्षा के पहले बादल'.
डॉ. हरिवंशराय बच्चन ने इसे 'ओ पावस के पहले बादल,' कहकर संबोधित किया।
ओहो, आषाढ़ के दिनों की पड़ताल करते करते हमारी तरणिका साहित्य-सरिता में उतर आयी है। यह अकारण नहीं है। यह तो होना ही था। कारण यह है कि 'आषाढ़ का पहला दिन' जिस दिन के बाद आता है, वह है 'जाते हुए जेठ की पूर्णमासी का दिन'। यह दिन प्रखर संत कवि कबीरदास का जन्म-दिन या प्राकट्य-दिवस है। इसका अर्थ यह है कि 'आषाढ़ का यह पहला दिन' कबीर जन्मोत्सव का रस और रसायन लेकर निकला है। स्पष्ट है कि कबीर-चौरे से मतवाले हाथी की तरह ही उसे निकलना था। पहले उमड़ते हुए मेघ को देखकर मतवाले हाथी की कल्पना कालिदास ने यक्ष के ब्याज से ऐसे ही नहीं की थी।
यद्यपि कबीर की भेंट कालिदास और पीड़ित यक्ष से नहीं हुई, यह निश्चित है; किन्तु बादल या बदली से उनका भी सम्बन्ध बन गया था। कबीर-बीजक की रमैनी 15 में वे कहते हैं :
उनइ बदरिया परिगो संझा।
अगुआ भूले बन खन मंझा।
पिय अन्ते अन्ते धनि रहई।
चौपरि कामरि माथे गहई।
फुलवा-भार न लै सके, कहे सखिन सौं रोय।
ज्यों ज्यों भीजे कामरि त्यों त्यों भारी होय।
कबीर कहते हैं कि बदली उठ गई है तो वातावरण में सांझ उतर आई है। बदलियों के कारण अंधकार होने से वनों के बीच में दूसरों को मार्ग दिखानेवाले भी राह भूल गए हैं। ऐसे समय में प्रियतम कहीं (जंगल में) हैं और उनकी गृहणी कहीं (घर में) है। चौपरि की कामरिया (चार पहरों की चौपड़ रूपी कम्बल) माथे पर रखा हुआ है। अर्थात हर प्रहर उसे बाहर वाले प्रिय की चिंता है। विरह की इस स्थिति में फूलों का भी भार सह पाना कठिन है, ऊपर से यह बदली मेरी चिंता रूपी कम्बली को भिगा रही है। कम्बल तो जैसे-जैसे भीगता है, वैसे-वैसे भारी होता है। संत कबीरदास के अनुसार यह बात एक विरहिन अपनी सखी से कह रही है।
(आगे चलकर इस रमैनी के दोहे की यह अर्धाली 'ज्यों ज्यों भीजे कामरी, त्यों त्यों भारी होय' अनुभव-सिद्धि का प्रतिमान बन गयी। ) 

यहां कालिदास की विरहिन और कबीर की विरहिन में अंतर है। ज्ञानवादी सन्त कबीर की विरहिन है आत्मा या अस्मिता और पिया है वह जो निरंजन है और उस लोक में रहता है।

जो भी हो ,कबीर भी मेघ, बादल, बदली, घटा को बराबर याद करते हैं।

आचार्य क्षितिमोहन सेन ने कबीर के जिन पदों को संग्रहित किया था, उन्हें कविवर रवींद्रनाथ टैगोर ने अंग्रेजी में अनुवाद कर विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया है। उन्हीं के घराने के आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक 'कबीर' में उन दोनों के चयन को कबीरवाणी के रूप में प्रस्तुत किया।

कबीर बानी के पद 87 (1-71), पृ. 283 में कबीर ने कहा है..
गगन घटा गहरानी, साधौ, गगन घटा गहरानी।
पूरब दिस से उठी बदरिया, रिम झिम बरसे पानी।
इसी प्रकार कबीरवाणी के सौवें पद (1-128, पृ.288) में कबीर कहते हैं-
कोई प्रेम की पेंग झुलाव रे।
++
नैनन बादरि की झरि लावौ, श्याम घटा उर छाव रे।

उपर्युक्त तीनों पदों में कबीर ने 'आषाढ़' का नाम नहीं लिया। किन्तु घटा का उठना, घटा का गहराना, श्याम घटा उर छाव का बीच में आना कोई कम महत्वपूर्ण नहीं है। इससे कबीर का पहला अनुभव आभासित होता है। यानी तपन हरने की अपरिमित संभावना से भरा पहला दिन उन्हें भी बहुत आकर्षित करता था।

उनके पश्चातवर्ती सूरदास ने भी संकेत से ही काम लिया। भ्रमर-गीत में उनके उपालम्भ और उलाहने राधा और गोपिकाओं की पीठ से झांकते हुए कई रूपों में उभरकर आये हैं। जब-जब राग मलार (या मल्हार) महाकवि सूरदास ने गाया, उन्होंने घन, बदराऊ, बदरा, कारी घटा, जलधर, के नाम से बादल या मेघ को याद किया, आषाढ़ के पहले बादल से प्रारम्भ होनेवाली पावस-ऋतु को याद किया है।
0 किंधौ घन गरजत नहिं उन देसनि।(भ्र.गी., पद 280, पृ.127)
0 बरु ये बदराऊ बरसन आये। (भ्र.गी., पद 282, पृ.128)
0 कारी घटा देखि बादर की, नैन नीर भरि आये।(भ्र.गी., पद 295, पृ.139)
0 आई माई पावस ऋतु
परम सुरति करि माधव जू आवै री।
बरन बरन अनेक जलधर अति मनोहर बेष।
यहि समय यह गगन सोभा,सबन तें सुबिसेष। (भ्र.गी., पद 311, पृ.135-136)
0 निसदिन बरसत नैन हमारे।
सदा रहति पावस ऋतु हमपे जब तें स्याम सिधारे।(भ्र.गी., पद 316, पृ.137)
0 नैन घट घटत न एक घरी।
कबहुँ न मिटत सदा पावस ब्रज लागी रहत झरी। भ्र.गी., पद 395, पृ.159)

और तुलसीदास ने भी स्पष्ट रूप से आषाढ़ का वर्णन नहीं किया। किन्तु उनके कथन से अनुमान लगाया जा सकता है कि वर्षा ऋतु के आगमन का अर्थ स्पष्टतः पहले ही मास आषाढ़ के पहले दिन की ही गणना हो रही है।
कह प्रभु सुनु सुग्रीव हरीसा। पुर न जाउँ दस चारि बरीसा।।
गत ग्रीषम, बरषा रितु आई। रहिहउँ निकट सैल पर छाई।।
अंगद सहित करहु तुम्ह राजू। संतत हृदय धरेहु मम काजू।।
जब सुग्रीव भवन फिरि आए। रामु प्रबरषन गिरि पर छाए।।
राम सुग्रीव से कहते हैं कि ग्रीष्म ऋतु बीत चुकी है और वर्षा ऋतु आ गयी है। चूंकि मैं चौदह वर्ष के वनवास पर हूं अतः किसी नगर में नहीं रह सकता। तुम अंगद सहित राज करो। यह सुनकर सुग्रीव अपने भवन में चले गए और राम लक्ष्मण सहित वर्षण गिरि पर छा गए। यहीं राम ने पहला चातुर्मास (आषाढ़, सावन, भाद्र, क्वांर) किया। तुलसी लिखते हैं -
फटिक सिला अति सुभ्र सुहाई। सुख आसीन तहाँ द्वौ भाई।।
कहत अनुज सन कथा अनेका। भगति बिरति नृपनीति बिबेका।।

क्रमशः२

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