ग़ज़ल
काफिया : इये
रदीफ़ : जा रहे हैं।
अरकान : 122 122 122 122
अजब जिल्दसाजी किये जा रहे हैं
किताबों से अब हासिये जा रहे हैं।
दिए जा रहे हैं ज़हर पर ज़हर वो
इधर हम मज़े से पिये जा रहे हैं।
हुए जा रहे हैं वो महरूम हमसे
हमीं हैं तवज्जो दिए जा रहे हैं।
हमारे सभी फैसले कल पे टाले
मगर हम भरोसा किये जा रहे हैं।
न सांसें न धड़कन न मौसम हमारा
मगर हम भी हम हैं जिये जा रहे हैं।
दिए जा रहे हैं वो इल्जाम सौ सौ
बड़े शौक से हम लिए जा रहे हैं।
सदाकत हमारा है ईमान ज़ाहिद
फटे लाख लेकिन सिए जा रहे हैं।
@कुमार ज़ाहिद, 20072020
काफिया : इये
रदीफ़ : जा रहे हैं।
अरकान : 122 122 122 122
अजब जिल्दसाजी किये जा रहे हैं
किताबों से अब हासिये जा रहे हैं।
दिए जा रहे हैं ज़हर पर ज़हर वो
इधर हम मज़े से पिये जा रहे हैं।
हुए जा रहे हैं वो महरूम हमसे
हमीं हैं तवज्जो दिए जा रहे हैं।
हमारे सभी फैसले कल पे टाले
मगर हम भरोसा किये जा रहे हैं।
न सांसें न धड़कन न मौसम हमारा
मगर हम भी हम हैं जिये जा रहे हैं।
दिए जा रहे हैं वो इल्जाम सौ सौ
बड़े शौक से हम लिए जा रहे हैं।
सदाकत हमारा है ईमान ज़ाहिद
फटे लाख लेकिन सिए जा रहे हैं।
@कुमार ज़ाहिद, 20072020
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