प्यार बांटते चलो!
पहले इसका सीधा-सा एक अर्थ था कि सबको प्यार दो। सबको अर्थात सबको। राजनैतिक, साम्प्रदायिक, आर्थिक, धार्मिक, अवर्ण-सवर्ण के भेद के बिना।
किन्तु अब #बाँटने के दो अर्थ हो गये हैँ। एक बाँटना यानी वितरित करना, संग्रह में से ज़रूरतमन्दों को देना। दूसरे बाँटने का अर्थ दो भाग करना, दो हिस्सों या पक्षों में अलग करना।
किन्तु अब #बाँटने के दो अर्थ हो गये हैँ। एक बाँटना यानी वितरित करना, संग्रह में से ज़रूरतमन्दों को देना। दूसरे बाँटने का अर्थ दो भाग करना, दो हिस्सों या पक्षों में अलग करना।
स्वतन्त्रता के बाद हमने तो यही सीखा और जाना कि बिना भेदभाव और पक्षपात के निर्मल और निच्छल मन से सबको अपना समझना है और प्यार बाँटना है। हमारे बचपन में एक गीत बहुत बजता था -"प्यार बांटते चलो, क्या हिन्दू क्या मुसलमान हम सब हैं भाई भाई!!
एक और गीत था जिसमे प्यार की गंगा बहायी जाती थी।
अब हिन्दु, मुस्लिम, ईसाई और दलितों के बीच भाईचारे, सहिष्णुता, धर्म निरपेक्षता की बात करो तो लोग चौंककर पूछते हैँ -" तुम सवर्ण हिन्दू नहीं हो क्या?" हम भी चौंक पड़ते हैं कि क्या सवर्ण होने का अर्थ प्रेम,भाईचारा, सहिष्णुता, धर्म निरपेक्षता आदि से शून्य होना है?
प्यार कब से गैर स्वर्ण हो गया? जिस भारतीय संस्कृति में विश्व-बंधुत्व और समग्र-समन्वय को श्रेष्ठ कहा जाता था, वह अहिंदू, गैर-सवर्ण और अभारतीय कैसे हो गया? सुंदर और वैश्विक भारतीयता की अनमोल छबि को कुचलकर यह कौन महापुरुष संकीर्णता, प्रेम, समन्वय, सहिष्णुता, बंधुत्व को मिटाकर अलगाव और घृणा को भारतीयता बनाने निकला है?
इस घिनौनी आक्रामकता पर अंकुश लगाओ उत्कृष्ट भारतीय भाइयों! क्योंकि हम ही इस बात का दावा करते हैं न?
अयं निजोपरा वेति,
गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु,
वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
(महोपनिषद्, अध्याय ६, श्लोक ७१)
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