गर्मी के पांच मुक्तक
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तपने लगी हवाएं मौसम भी गरमाया है।किसने कान भरे इसके, किसने भड़काया है?
अभी पलाशों ने अपना बिस्तर भी नहीं समेटा,
पतझर ने सूखापन चारों ओर बिछाया है। १
अभी फाग की आग चैत के हाथों आई है।
अभी बसंती बाला ने बस पीठ दिखाई है।
जली नहीं उजयाले पखवाड़े की ज्योति अभी,
यह झुलसाने वाली झंझा क्यों पगलाई है? २
लगता है इस बार तपेंगे ख़ूब जेठ वैशाख।
लू की लपट लुटेरी लूटेगी जंगल की साख।
मान रखेंगी मन का, महुए की मादक महकारें,
तन तो दिनभर जलते दिन की मला करेगा राख। ३
फिर घरघुसे दिनों से रातें, गपियाती जागेंगी।
फिर सुबहें देरी से उठकर छाछ, पना मांगेंगी।
दुपहरियों की भांय-भांय में अमराई की सांएं,
गदराई अमियों के रस में कुछ सुख दुख पागेंगी। ४
अलसाए मौसम में खाना पीना भी बेस्वादी।
गर्वीला सर, मान भरा हर सीना भी बेस्वादी।
बुझे हुए मन को सब मन की बातें बुरी लगेंगी,
सचमुच हो जायेगा आगे, जीना भी बेस्वादी। ५
@डॉ.रा.रामकुमार, ४.४.२४,
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