सम्भवतः बैठा है क्लांत,
वातायन से कब झांकेगा,
चिक-जीवी गौरव संभ्रांत!!
आये गए कई आक्रांता
बीहड़ कर स्वर्णिम उपवन!!
बारहमासी हो हल्ले से
पतझर हुआ मधुर मधुवन!!
मरुथल में पथ ढूंढ रहा है
हर सपना होकर उद्भ्रांत!!
सीढ़ी चढ़ना भूल गयी है,
ऊंच-नीच में कड़ियां हैं!!
हार-जीत के वंश पूछतीं
अब माला की लड़ियां हैं!!
राजनीति में बहुत सुरक्षित
अपराधी, दस्यु, दुर्दांत!!
सबका अपना सत्य दिव्य है,
नापतौल में मूल्य गिरे!!
टूट-टूटकर बिखर रहे कण
खंड-खंड पाखंड घिरे!!
विश्ववाद के राष्ट्रवाद से
अकुलाया मन है आक्रांत!!
प्रहरी, गए प्रहर का डंडा
नई भोर पर पटक रहा!!
जगा रहा है लुटे पलों को
अपना पल्ला झटक रहा!!
अपनी-अपनी सभी सम्हालें
डूब रहा बेड़ा विक्रांत!!
*
डॉ. रा. रामकुमार,
१९.०३.१९,
प्रातः १०.३०,
मंगलवार,
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