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एक नकटे की कथा :


पता नहीं क्यों याद आ रही है, #समय_जीमनेवाले_कथा_कहनकारों से बचपन में सुनी एक कथा।
उसके याद आने का यही सही समय है या शायद ऐसा कुछ होनेवाला है जिसके कारण यह कथा याद आ रही है।
मेरे साथ ऐसा कुछ होता है, जैसा उस लेखक के साथ होता था जिसके बारे में सुना है कि वह जो लिख देता था वैसा ही घटित होता था। कमर्शियल सिनेमा वालों और सोप-ओपेरावालों यानी सीरियल-चंदों ने इसी मसाले से कई सपने देखनेवाले पात्र गूंथें जिनके सपने सच हो जाते थे। सच और यथार्थ से भागनेवाले #शतुरमुर्गी_काहिलों का स्वाभाविक परिणाम सपना देखकर सुखी रहना हो जाता है। मनोवैज्ञानिकों ने भी स्वप्न मनोविज्ञान की इस अवचेतनावस्था का अच्छा विश्लेषण किया है। यही अवचेतन मन मुझमें भी बाई डिफॉल्ट आ गया है। मेरी प्रणाली भिन्न है। मुझे स्वप्न नहीं आते, मुझे #लगता है और जो मुझे लगता है, वह हो जाता है।
मुझे लग रहा है कुछ होनेवाला है। क्या पता, जो कहानी मुझे याद आ रही है, वही सच हो जाये।


एक था गांव। गांव का नाम था नाकवाला गांव। गांव के पास थी एक पहाड़ी। उस पहाड़ी पर एक साधु कहीं से आया। उसने पहाड़ी पर एक पेड़ के नीचे एक पत्थर को लाल कर दिया और उस पत्थर-देव के सामने दिन भर बैठने लगा। नीचे नदी थी। वहां वह नहाता और रोटी-ओटी सेंकता और फिर ऊपर चला जाता। ऊपर से पूरा गांव दिखता। उसके इस रहस्यमय व्यवहार से लोग आकर्षित होकर उधर आने लगे। वह नए-नए किस्से बनाता और उन्हें सुनाता। (श्रुतियों और स्मृतियों के देश में कथाकारों ने कथाओं को बड़ा उद्योग बना लिया। ख़ैर इसकी कथा बाद में।)
गांव के लोग, जैसाकि हम सबने बचपन से देखा है, दान दक्षिणा बहुत देते हैं। उनके लिए उसके महात्म्य की कथाओं ने बड़ा मानसिक #बातावरण बनाया है। (वातावरण नहीं। वात और बात में अंतर है। वात से बने तो वातावरण, बातों से बने तो बातावरण।) #बातावरण की यह उपलब्धि रही कि देना लोगों की आदत बन गयी और पाना लोगों का धर्म हो गया।
इस गांव में भी ऐसा ही हुआ।
जहां वह अज्ञात स्थान से आया साधु नहाता था, वहां आश्रम बन गया और जहां #रंगा-पत्थर था, वहां मंदिर बन गया।

(प्रासंगिक है, इसलिए एक प्रसंग याद आ रहा है। मैं एक समय में अविभाजित मध्यप्रदेश की उड़ीसा बॉर्डर पर बसे एक सराय नामक तहसील में उच्च शिक्षा विभाग में पढ़ाने का कार्य करता था। एक राजस्व निरीक्षक मेरे पड़ोसी मित्र थे। उनकी पहुंच पेशे के कारण तहसील में जगह जगह में थी। संबलपुर सड़क पर हमारे नगर सराय पल्ली से 11-12 किलोमीटर दूर से बड़ा जंगल और घाटी शुरू होती थी। एक दिन वे मुझे संबलपुर घुमाने ले गए। कोई 115 किलोमीटर दूर संबलपुर के रास्ते में एक स्थान पर उन्होंने जीप रोक ली और बोले -"आइए सर! आपको एक मजेदार कहानी दिखाते हैं।"
"दिखाते हैं कि सुनाते हैं।" मेरी हिंदी ने चौकन्ना होकर पूछा।
उनके अनुभवी राजस्व अभिलेख ने कहा: "यह कहानी देखने लायक है, इसलिए दिखाते हैं।"
मैंने देखा, घाटी में एक झरना है, झरने के किनारे एक आश्रम है, आश्रम में एक साधु है, जो साधुओं के प्रचलित ड्रेसकोड में गतिशील है। कुछ लोग उपस्थित हैं, जो कुछ कह सुन रहे हैं। जिस ढंग से ये और वो मिले उससे मैं समझ गया कि ये लोग मिलते रहते हैं।
साधु ने अपने हाथों से धूनी में चाय पकाकर हमें पिलाई। आश्रम में गाय थी। अतः दूध जायकेदार था और चाय लजीज थी।
चाय पीकर हम आश्रम से निकले और आगे चल पड़े। राजस्व अधिकारी ने मुझसे पूछा :"अब बताइए सर, कुछ कहानी समझ में आई?"
" नहीं भाई, अभी तो केवल पात्र ही देखे। कहानी तो कुछ घटी ही नहीं। यह केवल कथांश है।" मैंने कहा।
"सही कहा आपने।" वे हंसने लगे। फिर बोले :" इस आश्रम को लेकर बड़ी-लबड़ी कहानियां हैं। दो प्रदेशों के बॉर्डर है। बॉर्डर में स्मगलिंग होती है। स्मगलिंग की दुकानें नहीं होती, अड्डे होते हैं। आश्रम का बॉर्डर में होना एक बढ़िया अड्डा तो हो ही सकता है।"
वे फिर हंसने लगे।
मैं चौंका :"मतलब यह साधु!"
वे :" असलियत तो पुलिस को पता होगा। लोग कहते हैं कि उत्तर का एक चोर और किसी का कत्ल करके भागा हुआ अपराधी सबलपुर के जंगल में छुपा हुआ है। भजन पूजन में तुम्हारा अतीत और वर्तमान महत्व नहीं रखते। बस भविष्य की मुक्ति ही लक्ष्य होती है।"
"ओ हो हो। कितने संक्षेप में कितना विस्तार भर दिया आपने।" कहानी समझा तो मैं भी हंस पड़ा। मुझे लगा मैं कहानियों के भंडार के पीछे बैठा संबलपुर जा रहा हूं।

हम यहां से फिर पुरानी कहानी से जुड़ते हैं।
जैसा कि सभी जानते हैं एक मंदिर-ट्रस्ट होता है और एक आश्रम -कमेटी होती है। यह टीम कहलाती है। यह टीम नीतियां बनाकर उन पर अमल करती कम और करवाती ज्यादा है। मंदिर और आश्रम के चढ़ावे से मंदिर और आश्रम का विकास होता है। विकास की ज्यादातर छाया समीपस्थ लोगों पर पड़ती है।

एक दिन ऐसा हुआ कि किसी असावधानी की वजह से साधु की नाक कट गई।
साधु ने ऐसा कुछ अपनी टीम से कहा कि एक एक कर सब अंदर गए और अपनी अपनी नाक काटकर बाहर आ गए। फिर आयी #नाकवाले_गांव की बारी। लोग टीम तो ठें नहीं इसलिए उनके सामने मोटो यानी बड़ा उद्देश्य रखना ज़रूरी था। साधु ने भगवान-वादी जनता से कहा : "मिल गया, मिल गया। भगवान को देखने का आसान मार्ग मिल गया। अंदर जाओ नाक कटाओ और देख लो।"

टीम ने अपनी कटी हुई नाक दिखाते हुए अपनी उपलब्धि की नाक लगाई। नकटे साधु और नकटी टीम की बात में पूरा #नाकवाला गांव आ गया।
उसके बाद उस नाकवाले गांव का नाम नकटा गांव हो गया।

विदेशियों को बड़ा शौक रहता है भगवान देखने का। कितने विदेशी नकटे हुए अभी पता नहीं चला है। मेरे मन में भी इच्छा है कि भगवान को देख लूं। बहुत भरा हुआ हूं। बस पता मिल जाये उस नाकवाले गांव का (जो अब नकटागांव हो गया है।)

*
अपनी मां से सुनी इस लोककथा के रचयिता को नमन करता हूं।

जल्दी मिलते हैं एक नई लोककथा लेकर।

निवेदन : अगर आपके पास भी हो कोई ऐसी ही अद्भुत लोककथा तो रिप्लाई वाले कॉलम में पोस्ट करें।

डॉ. रा. रामकुमार, 

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