जुलाहा को याद करो तो कबीर याद आते हैं। विश्वभारती विश्वविद्यालय के संस्थापक कविगुरु रवींद्र, विश्वभारती के आचार्य क्षितिमोहन सेन और विश्वभारती के ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'कबीर' को याद करते हुए कितने ही मानदंड स्थापित किये।
'कबीर ' का अर्थ अद्भुत, आला और महान सिर्फ शब्दों तक सीमित नहीं है। 'कबीर' ने उसे सार्थक भी किया है। आलोचना के शिखर-पुरुष नामवर सिंह के गुरु हजारी प्रसाद की कृति 'कबीर' पढ़ने से पता चलता है कि कबीर की व्युत्पत्ति के मूल में *कवि:* भी बैठा हुआ है। संस्कृतविद 'कवि:' से कबीर तक की यात्रा सरलता से कर सकेंगे।
कुलमिलाकर, *कवि-समूह* को यह नवगीत सौंप रहा हूं, जुलाहा की जगह अपने को रखकर पढ़ें। और हां, यह सिर्फ *छूने भर की चेष्टा* है, *असल गहराई तक जाना* तो मैं ही निश्चित रूप से नहीं कर पाया।
*जुलाहा*
धागा-धागा बुने जुलाहा
ताना, बाना, भरणी।
रेशा-रेशा कुल कपास का
आपस में मिलजुलकर।
गाढ़ा गढ़े गूढ़ गुंथन में
गठ-बंधन, शुभ, हितकर।
परिमित कूलों के भीतर ही
अगम अपरिमित धारा,
अनगढ़ ऊबड़-खाबड़ गड्ढे
ढांप रही सरि हंसकर।
शोभनीय परिधान शिल्प पर
शब्द-शब्द आभरणी।
धागा-धागा बुने जुलाहा
ताना, बाना, भरणी।
धरती से अम्बर तक फैलीं
भिन्न-भिन्न उपमाएं।
वन, उपवन, घर, गांव, गली में,
सुभग सुमन ललनाएं।
किरण, कपोल कल्पनाओं के
काले मुंह धोती मां,
अनुभव-पितृ साधकर रचते
रुचिकर रवि-रचनाएं।
काल वही, कारक में वह है,
वह समास, व्याकरणी।
धागा-धागा बुने जुलाहा
ताना, बाना, भरणी।
जल में, थल पर, नभ तक जाए,
सब में घुल-मिल जाये।
व्यास ढाई अक्षर का है पर,
पूरी परिधि बनाये।
न्यून-अधिक कोणों के आयत
रेच बनाया करते,
गणित विहीन सरलता सबकी
मुंहबोली कहलाये।
खुलकर तभी कबीर बेचते
चादर बहु-आवरणी।
धागा-धागा बुने जुलाहा
ताना, बाना, भरणी।
@ कुमार,
२२.०६.२०१९,
संध्या ८.४५.
'कबीर ' का अर्थ अद्भुत, आला और महान सिर्फ शब्दों तक सीमित नहीं है। 'कबीर' ने उसे सार्थक भी किया है। आलोचना के शिखर-पुरुष नामवर सिंह के गुरु हजारी प्रसाद की कृति 'कबीर' पढ़ने से पता चलता है कि कबीर की व्युत्पत्ति के मूल में *कवि:* भी बैठा हुआ है। संस्कृतविद 'कवि:' से कबीर तक की यात्रा सरलता से कर सकेंगे।
कुलमिलाकर, *कवि-समूह* को यह नवगीत सौंप रहा हूं, जुलाहा की जगह अपने को रखकर पढ़ें। और हां, यह सिर्फ *छूने भर की चेष्टा* है, *असल गहराई तक जाना* तो मैं ही निश्चित रूप से नहीं कर पाया।
*जुलाहा*
धागा-धागा बुने जुलाहा
ताना, बाना, भरणी।
रेशा-रेशा कुल कपास का
आपस में मिलजुलकर।
गाढ़ा गढ़े गूढ़ गुंथन में
गठ-बंधन, शुभ, हितकर।
परिमित कूलों के भीतर ही
अगम अपरिमित धारा,
अनगढ़ ऊबड़-खाबड़ गड्ढे
ढांप रही सरि हंसकर।
शोभनीय परिधान शिल्प पर
शब्द-शब्द आभरणी।
धागा-धागा बुने जुलाहा
ताना, बाना, भरणी।
धरती से अम्बर तक फैलीं
भिन्न-भिन्न उपमाएं।
वन, उपवन, घर, गांव, गली में,
सुभग सुमन ललनाएं।
किरण, कपोल कल्पनाओं के
काले मुंह धोती मां,
अनुभव-पितृ साधकर रचते
रुचिकर रवि-रचनाएं।
काल वही, कारक में वह है,
वह समास, व्याकरणी।
धागा-धागा बुने जुलाहा
ताना, बाना, भरणी।
जल में, थल पर, नभ तक जाए,
सब में घुल-मिल जाये।
व्यास ढाई अक्षर का है पर,
पूरी परिधि बनाये।
न्यून-अधिक कोणों के आयत
रेच बनाया करते,
गणित विहीन सरलता सबकी
मुंहबोली कहलाये।
खुलकर तभी कबीर बेचते
चादर बहु-आवरणी।
धागा-धागा बुने जुलाहा
ताना, बाना, भरणी।
@ कुमार,
२२.०६.२०१९,
संध्या ८.४५.
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