उप-कुलपति महोदय ने बुलाया था। कहा- "आप आ जाएं, डील फाइनल कर लेते हैं। दिल तो मिल ही गए हैं, कुछ मुद्रा विषयक बीजगणित हल कर लेते हैं। असल में मैं आपको कुलपति जी से मिलवाना चाहता हूं।"
शहर से शिक्षानगर लगभग दसेक किलोमीटर पर है। बहुचर्चित कायदाये इस्लाम मुस्लिम मदरसा दायीं ओर है। बायीं ओर सारे स्कूल कॉलेज, बिज़नेस ले आउट और बिज़नेस प्लॉट्स हैं। चंद्रा का माउंट लिट्रेसी और विश्वपटल तकनीकी महाविद्यालय समूह एक बड़े क्षेत्र में खड़ी भव्य भवन श्रृंखलाओं में स्थित है। इसी के प्रबंधन में एक अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय का सपना अंकुरित हो रहा है। स्वयं एक स्वप्नदृष्टा अभियंता दिव्यंकर इस सपने को अपने भीतर पालने की सफलतम चेष्टा कर रहे हैं। सफलतम सपनों को साकार करने की उनकी पिछले दस वर्षों की कोशिशों ने कई गुल खिलाया हैं। एक तकनीकी और सम्पूर्ण विश्वविद्यालय को साकार करने की उनकी इस कोशिश में एक और उद्भट स्वप्न दृष्टा अर्थशास्त्री डॉ. रणधीर सेन भी उनसे जुड़ गए हैं। यह कंचन-माणिक्य संयोग कैसे बना नहीं मालूम मगर सुना है, तभी से धरती हेम-प्रसवा हो गयी है और सोने से सुगंध आने लगी है।
गर्मी में दिन अपनी किशोरावस्था के शीर्ष पर हैं। चटखारे मारने लगे हैं। एक उम्र खाये व्यक्ति के लिए उनको मुंह लगाना यानी यम को द्वंद्व के लिए ललकारना है। इसलिए मैं वाहन के बारे में सोचने लगा। तीन विकल्प थे मेरे पास। एक : विश्वपटल विद्यापीठ के व्यवस्थापक मयंक सिन्हा से कहूं कि एकाध उपेक्षित कर भेज दे। दूसरा : मेरे अनुजवत समाजसेवी की सेवा का आव्हान करूं । तीसरे : पत्नी के पुत्रवत व्यापारी युवा का सौजन्य आमंत्रित करूं।
किन्तु इन सभी विकल्पों की आवश्यकता नहीं पड़ी। इस समस्या के निदान की व्यवस्था हमेशा की तरह प्रारब्ध ने अयाचित रूपेण पूरी कर दी।
मेरा छोटा बेटा रात में ही घर आया हुआ था। वह प्रायः अपनी कम्पनी-कार्य के सप्ताहान्त में अपनी बीमार मां को देखने-भालने, छोटी बहन और दो वर्ष के भांजे के साथ लड़ने-खेलने, चला आता है। मैंने उसी के साथ जाना तय किया।
पुरानी पहाड़ी-डोंगरी, दूर तक सागौन का पतझरी कंकाली जंगल, कटौती की हरियाली, और अभी-अभी चुनावी चुनौती में केंद्र सरकार के मायावी कौशल का नमूना राष्ट्रीय राजमार्ग ही प्रभावित कर रहे थे।
जिस जगह हम जा रहे थे, वहां के लिए रास्ता ठेठ गिट्टी का था और मेरे जीवन की तरह उधड़ा तथा खुरदुरा भी था।
लक्ष्यित-स्थल का गेट भव्य था। किसी गोपनीय राजकोष या सुरक्षा मंत्रालय की तरह सुरक्षित ... विश्वविद्यालयों और प्रशासनिक अकादेमी में मेरा आना जाना लगा रहता है... वहां भव्यता तो है पर इतनी भयावह चौकसी नहीं है। आई आई एम की तरह अभेद्य किले की तर्ज़ पर हमारा परीक्षण और अनुमोदन हुआ। सुरक्षा एजेंसी के ग्रे-ड्रेस्ड कर्मियों को जैसे निर्देश थे, वे वातावरण को सम्पूर्ण रूप से संदिग्ध, दुर्गम, अपमान-जनक और रोमांचक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। यह विद्यालय कम और मराठी का शिक्षालय ज्यादा लग रहा था। मराठी में शिक्षा का अर्थ सीख या दंड होता है।
रिसेप्शन में भी गरिमामय प्रविष्टि की पुख्ता व्यवस्था थी। क़वार्टर साइज़ के बढ़िया छपे हुए पेपर पर नाम, काम, किससे काम तथा मिलनेवाले का मोबाइल नंबर लिख कर वह चिट, चौकीदारों ने अंदर पंहुचाने के लिए ले ली। जी, जी हां....चौकीदार शब्द तो अब मज़ाक बन गया है.... इसकी जगह हम ससतर्कता-कर्मी कहकर अपने मन को राहत पंहुचाएँगे और इन वेतनभोगी कर्मचारियों का सम्मान करेंगे जो कम से कम किसी प्रजातंत्र के प्रधानमंत्री की तरह तो नहीं है जो जनता की गाढ़ी कमाई से इनकम टैक्स मुक्त दस लाख मासिक वेतन, मुफ्त के कपड़े, खाना, वाहन, टेलीफोन, यात्रा आदि-अनादि सुविधाएं लेकर काम जनता का नहीं, किसी अज्ञात मालिकों के करता है। ये सतर्कता कर्मी किसी एजेंसी के माध्यम से आये हैं, लेकिन जिससे वेतन ले रहे हैं, उसी का काम कर रहे हैं। बार-बार मेरी जांच कर मेरी हैसियत की छीछालेदर करनेवाले इन सुरक्षा कर्मियों की मुस्तैदी को मैंने नमन किया और अनुशासित शिक्षार्थी की भांति उनकी आज्ञाओं का पालन करता रहा। मेरे अहम को समझ में आ गया कि जिनसे मैं मिलने जा रहा हूं वे कितने महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने मुझे सौफे पर बैठकर प्रतीक्षा करने को कहा।
बैठूं या न बैठूं ये मेरी स्वतंत्रता थी। मेरा तार्किक मन कह रहा था,"क्या मैं यहां भरी दुपहरी बैठने आया हूँ? मिलने और मिलवाने बुलवाया गया हूँ, तो मेरे हिस्सा में प्रतीक्षा क्यों है?"
उत्तर आ गया। चौकीदार उर्फ सतर्कता कर्मी ने बताया कि आपको बुलाया जा रहा है।
बेटा मेरी नाखुशी को समझ रहा था। वह मेरे साथ चला।
हम डॉ. रणधीर सेन उपकुलपति के कक्ष में प्रविष्ट हुये। वे मुझे देखते ही खड़े हो गये। मेरी तपन इससे शांत हुई। देर आयद दुरुस्त आयद, के भाव से मैंने उनका बढ़ा हुआ हाथ थाम लिया। उन्होंने बैठने का आग्रह किया। यह बैठने की उपयुक्त जगह थी इसलिए मन अपने अहं के साथ सहर्ष बैठा।
डॉ. सेन ने बातचीत की शुरुआत करते हुये पहली मुलाकात की बात फिर दोहराई कि वे अब तक बहुत से लक्ष्य वेध आये हैं। अनेक लोगों से मिले हैं। पर मुझसे मिलकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई, जो प्रायः कम होती है। यह बात उन्होंने पहली मुलाकात में बिना किसी औपचारिकता के भी कहीं थी। आज भी दोहरा रहे हैं, मतलब इस बात में सचाई तो है। वे उप-कुलपति हैं। अफसरों जैसा कोई भाव उनका नहीं है। मुझे खुश करने जैसा कोई कारण नहीं है। काम के ठिये-ठिकाने ढेर मिलते हैं। पर कहीं जाकर और खासकर किसी पर जाकर जब आपकी निगाहें ठहर जाती हैं तो निश्चित रूप से इसका यही अर्थ होता है कि यही अनुकूल और उपयुक्त है।
"हम आपको अपने साथ जोड़ने के इच्छुक हैं। आप भी अभी खाली ही हैं। आपके अनुभव और शोध-प्रवृति का लाभ आनेवाली पीढ़ी को मिले यही हमारे साथ होने की सार्थकता है।"
"मैं आपके साथ हूं।" मैंने सहज होकर कहा।
तभी संदेशिये ने आकर बताया कि कुलपति महोदय आ गए हैं।
"चलिये, वह क्षण आ गया। यानी कुलपति महोदय से भेंट का अवसर।" ऐसा कहकर वे अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुए और अगले क्रम में मैने भी यही किया। पुत्र को वहीं बैठने का आग्रह करके वे मुझे कुलपति महोदय के कक्ष की तरफ ले चले।
कुलपति महोदय भी सहज और विनम्र निकले। मुझे देखते ही उन्होंने उठकर अभिवादन किया और मुस्कुराकर बोले :-"सर विराजें, आपके बारे में बहुत सुना था, आज दर्शन हो गए।"
मैं अंदर से प्रसन्न तो हुआ पर मेरा मन इस कार्य-व्यापार के प्रति सावधान था। वो जो बार्गेनिंग और डील शब्द किसी ने मेरे दिमाग में घुसा रखे थे, वह नोकीले कांटों की तरह थे और ज़रा भी इधर-उधर होने से चुभ रहे थे। अभी तक मैंने शासकीय स्तर पर काम किये थे। प्रतिस्पर्धाएं जीती थीं और वरीयता गुणांकों के आधार पर बिना किसी डील और बार्गेनिंग के मेरा चयन हुआ और नियुक्ति हुई थी। किसी निजी संस्थान में अपनी कथित योग्यता के आधार पर मुझे बुलाया जायेगा और मुझे अपने साथ शामिल करने के लिए भूरी-भूरी प्रशंसा भी होगी, इसकी कल्पना स्वप्न में भी करने का कोई आधार नहीं था। संतोष मेरा धन था और किसी भौतिक उपलब्धि की चाह मुझे थी नहीं।
"सर हम आपका आशीर्वाद चाहते हैं। विभागीय अनुसंधान हेतु आपके दीर्घकालीन अनुभव का लाभ हमें मिले, यही निवेदन है।" कुलपति महोदय ने कहा।
"आप मेरे विद्यार्थी के मित्र हैं। इसीलिये आशीर्वाद तो आपका अधिकार है। आपके साथ काम करके मुझे प्रसन्नता होगी।" मेरे गुरु ने पूरी गुरुता और गंभीरता से गुरुत्व को शोभित हो वैसा कह दिया।
"धन्यवाद सर!" मुझे याद तो नहीं है कि ऐसा उन्होंने कहा या नहीं। परन्तु शिष्ट व्यक्ति हैं, ज़रूर कहा होगा। हालांकि वे प्रौद्योगिक शिक्षण संस्थान समूहों के स्वामी हैं और मेरी सेवाएं लेना चाहते हैं तो करोड़पति तो होंगे ही। नहीं इसलिए नहीं कि मेरी सेवा का मूल्य करोड़ों में है। वरन इतनी औद्योगिक संस्थाएं बीएड, नर्सिंग, बीएचएमएस, बी ई, आई टी, आदि व्यावसायिक पाठ्यक्रम। तो इतने सारे धंधे, इंफ्रास्ट्रक्चर, सौ सवा सौ एकड़ में तीन तीन स्थानों में फैली कद्दावर भूमि। विनामत्र्त के पीछे छुपी शातिर बुद्धि। अब राजपत्रित नहीं हैं तो क्या हुआ, गवर्नर के बराबर का पद तो है उनका। तिकड़मी हैं। धन जुटा लेना उनके बाएं हाथ का खेल है। ऐसी स्थिति में मेरे राजपत्रित मान के लिए धनपति होने के अहंकार को कितना संयमित कर सकते हैं भला?
स्पष्ट है कि आशीर्वाद चाहते हुये भी वे ये अपेक्षा तो रखते ही होंगे कि मैं उनको स्वामी या अपने से बड़ा अधिकारी मानूं।
वहां से निकलकर मैं वी सी यानी कुलपति के कमरे में आया। वहां मेरा बेटाइन्तेज़ार कर रहा था। मेरे पीछे कुलपति महोदय भी आ गए। इधर उधर की दो चार के बाद बोले :" देखिए, दिल मिलना ही था, मिल गया, कुछ अर्थ की बात हो जाये। क्या लेंगे? किस तरह लेंगे? किस शर्त में लेंगे?"
मैं मुस्कुराने लगा। मैंने उनकी सारी बातें 'देंगे' कहकर लौट दीं।यानी क्या लेंगे? किस तरह लेंगे? किस शर्त में लेंगे?"
वे मुस्कुराए, बोले :" आप चाहें तो लेक्चर बेस पर ले सकतें हैं। एक पीरियड एक हजार...आप जब आएं जितना आएं आपकी मर्जी। महीने में चार, छः दस.."
में चुप रह कुछ देर। ज़ाहिर है अंकगणित कर रहा था। एक पीरियड बराबर एक हजार तो दस पीरियड के दस हजार। मैंने चुप्पी नहीं तोड़ी। यानी मन ने अभी निर्णय नहीं किया था और लगता था अभी कर भी नहीं पायेगा इसिलए मैंने उनके और अपने समय की कीमत करते हुये इस संक्षिप्त भेंट को और संक्षिप्त करते हुए कहा :"आप देख लीजिए, आप और क्या कर सकते हैं? में भी सोचकर बताता हूं।"
वे दस पन्द्रह हजार का तुच्छ शिक्षा मजदूर चाहते थे और मैं एक अवकाश-प्राप्त राजपत्रित प्रथम श्रेणी अधिकारी इतने सस्ते में अपनी सेवा और गरिमा नहीं देना चाहता था। यह मेरी पहली असफल डील थी।
मैं धनपति के राजभवन से निकल कर कच्ची सड़क पर आ गया था। पीछे छूटती हुई अट्टालिका अट्टहास कर रही थी और मैं लुटे पिटे खेतों को देख रहा था जो अब फसल उगाने की बजाय व्यापारियों के लिये छाती पर कंक्रीट बो रहे थे और सोना उगा रहे थे।
मैं सम्भावना में नही जीता। मैं मांगी हुई वस्तु पर भी भरोसा नहीं करता। अतः मेरी तरफ से वह अध्याय समाप्त था।
गेट से जब बेटे ने गाड़ी बाहर की तो, मैंने देखा ठीक प्रवेश द्वार पर एक नौजवान आम का पेड़ किसी आपदा में पड़कर सूख गया है तथा उसके मासूम अर्धविकसित फल भी सूखकर काले पड़ गए हैं।
डॉ. रा. रामकुमार,
25-28.04.2019,
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