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Showing posts from 2025

पांडुलिपि चर्चा/समीक्षा

 विहंगम्य (पांडुलिपि चर्चा/समीक्षा ) ' तृण पुष्पों का संचय': डॉ. रवींद्र सोनवाने डॉ. रवींद्र सोनवाने मेरे महावियालीन साथी रहे हैं। गणित के प्राध्यापक होने के साथ साथ वे साहित्य, इतिहास, समाजविज्ञान के भी गम्भीर अध्येता हैं। सामाजिक सरोकार के क्षेत्र में भी उनका पर्याप्त योगदान है। लगातार उनसे विचार विमर्श होते रहता है। कुछ दिन पूर्व ही उन्होंने बताया कि उनका तीसरा स्वतंत्र काव्य संकलन प्रकाशनाधीन है। वे चाहते हैं कि कोई टिप्पणी, भूमिका या समीक्षा उस पर लिख दूँ, ताकि रचना का एक दृष्टि से मूल्यांकन हो जाये।  मैं द्विविधा में पड़ गया।  घनिष्ठ रचनाकार के लेखन पर लिखित रूप से कुछ व्यक्त करने की अपनी सुविधाएं भी हैं और दुविधाएं भी। सुविधा यह कि रचना कर्म की सूक्ष्मतर जानकारी आपको उपलब्ध रहती है और दुरूहता या अस्पष्टता की स्थिति में चर्चा कर हल निकाला जा सकता है।  दुविधा मतभेद की स्थिति में होती है। चिंतन, विचारधारा, परिस्थियों के प्रति अपने अपने दृष्टिकोण, मान्यताएं, आग्रह दुराग्रह आदि स्वाभाविक मानवीय द्वंद्व हैं। लेखन में इससे ऊपर और हटकर भी मतभेद स्वाभाविक है। भाषा, बिम्...

शानी का पूरा नाम

 शानी का पूरा नाम ...  'नाम में क्या रखा है।' यह बड़ा लोकप्रिय कथन है और अंग्रेजी लैटिन के जानकार बताते हैं कि विलियम शेक्सपीअर के किसी नाटक में कोई पात्र यह कथन करता है। लेकिन सच्चाई यही है कि अधिकांश लोग धन, जन, काम और नाम के लिये ही जीते हैं। उसे ही पुरुषार्थ मानते हैं।  पर देखा यह जाता है व्यक्ति के काम के पीछे उसका नाम गौण होकर, काम की पीठ पर सवार होकर चलता रहता है। पैरासाइट की तरह , पिस्सू या अमरबेल की तरह। आज भी कालिदास का मूल नाम किसी को नहीं मालूम। तुलसीदास  का नाम रामबोला भी अनुमान या कथा ही है। राहुल सांकृत्यायन, नागार्जुन, धूमिल आदि के नाम जानने के लिए हड़प्पा की वापी खोदनी पड़ती है।  मैं भी कुछ क्षण के लिए इस चक्कर में पड़ गया। मैं उन लोगों में से नहीं हूं जिनका भरोसा ज्ञान के मामले में भी कट्टर 'मैं' को अंगद की तरह एक स्थान पर जमाये रखते हैं। आस्था के मामले में एक ही बात को आंख मूंदकर पकड़े रखना भक्ति की सार्थकता हो सकती है। तर्क के हाथपांव बांधकर पत्थर के साथ कसकर समुद्र में फेंक देना सच्चा अनुगमन हो सकता है,  मगर ज्ञान के रास्ते में निरंतर तार्कि...

गुलशेर खां शानी : शालवनों का द्वीप

  गुलशेर खां शानी: शालवनों का द्वीप गुलशेर खां शानी             ज़िद आख़िर ज़िद होती है। कुछ मिले न मिले, बात लग जाये तो फिर पहाड़ खोद कर रास्ते निकालना मुश्किल नहीं होता। अब चाहे फरहाद हो या दशरथ मांझी, या मुझे भी इस फेहरिस्त में शामिल होने में कोई शर्म या झिझक नहीं।            बड़ी निराशा, व्यथा और पीड़ा की बात है कि बहुत ही ज़रूरी और महत्व की मूल्यवान पुस्तकें अब न दुकानों में मिलती न ऑन लाइन विक्रेताओं के पास। पीडीएफ तक नहीं। कहाँ गयी किताबें? कैसी साजिशों और किसकी साजिशों का शिकार हो गईं ये?              पिछले दशकों में, शायद नब्बे के दशक से बस्तर, नक्सल, सलवा जुडूम, एस पी ओ, आदि बहुत चर्चित हुए हैं। जंगल सत्याग्रह, जल, जंगल और ज़मीन, आदिवासी विमर्श, और बस्तर का असंतोष बड़ी चरचा में हैं। जंगल काटकर उद्योग स्थापित करना या इमारती लकड़ियां स्मगल करना एक परम्परा की तरह अंग्रेजों के समय से चला आ रहा। वनवासियों का शोषण बेगारी, विस्थापन सब आम बात की तरह हर सरकार का अघोषित एजेंडा रहा है। वन कर्मियो...

एक अनमोल पार्सल

एक_मूल्यवान_पार्सल अपने मित्र हिमांशु याज्ञिक ने राजनांदगाँव की चर्चित कवियों और गद्यकारों की वे कृतियां भेजी जो लगभग लुप्तप्राय है। ये हैं ख्यातिलब्ध एवं अनेक सम्मानों से सम्मानित, 'सवेरा संकेत ' के नींव-नियामक( शरद कोठारी के समग्र साथी) # रमेश_याज्ञिक (बाबूजी, हिमांशु के पिताजी), प्रखर और प्रचंड कवि # नन्दूलाल_चोटिया ( शरद कोठारी, मुक्तिबोध और रमेश याज्ञिक के मंडल के मुखर सदस्य), प्रमुख प्रगतिशील कवि # मलय ( शिवकुमार शर्मा 'मलय', मुक्तिबोध के स्थानापन्न, हरिशंकर परसाई के अनुज, प्रगतिलेखक संघ राजनांदगाँव  के संस्थापक महासचिव, मेरे गुरु और सचेतक), प्रगतिशील लेखक संघ राजनांदगाँव के संस्थापक सचिव # प्रो_पुन्नी_सिंह_यादव (प्रमुख प्रगतिशील कथाकार और उपन्यासकार,), # प्रो_शरद_गुप्ता ( हिमांशु और मेरे दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक, मुक्तिबोध के विपात्र के एक पात्र, मेरे हिंदी विभागाध्यक्ष गुरु, प्रख्यात लेखक # डॉ_गणेश_खरे , के सहयोगी और शोधार्थी छात्र)। यथासंभव यथासमय  इन पर ' राजनांदगांव की साहित्यिक विरासत' के अंतर्गत चर्चा करेंगे। 

शहरी और जंगली मदनमस्त

एक चरण और, प्रकृति की ओर.... मदनमस्त की भोर                                                      एक एक कवि की विवशता और लाचारी देखिए, लिखता है- लिपटकर उसके आंचल में न आंचल को समझ पाया। पड़े रहकर भी पांवों में न पायल को समझ पाया। वो दिल थी और धड़कन थी मेरी रग-रग में बहती थी, सदी थी मां  मैं' ही उसके न इक पल को समझ पाया।                                  (10.08.25, रविवार, भाद्र प्रतिपदा) यही हम सबका क़िस्सा हैं। हम जिसके जितने निकट होते हैं उसे उतना ही नहीं समझ पाते। मां की आंखें, मां की थपकी, मां का लाड़, प्यार, दुलार, उसका माथा सहलाना, पीठ थपथपाना, उससे लिपट जाना, कितनी नज़दीकी है मां से, पर हम उसके हाथ की रेखाएं भी कभी नहीं देख पाते। उसकी आंखों में ही कितना झांक पाते है? हमने उसकी उंगलियों की गठाने और उसके पांव के छाले कहां देखें है। उसकी हंसी में इतना जादू होता है...

रक्षाबंधन का पवित्र पर्व 'राखी'

  रक्षाबंधन का पवित्र पर्व 'राखी' '       पुजारी गण प्रत्येक पुण्य अवसर पर कलाइयों में कलावा बांधते समय जिस मंत्र का पाठ करते हैं, वह प्रसिद्ध  श्लोक यह है-                         येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल:               तेन त्वाम् प्रतिबद्धनामि, रक्षे माचल माचल:। ।            अर्थात जिसने दानव राज राजा बलि को बांध लिया, उसे मैं तुम्हें बांधकर प्रतिबद्ध करती हूं कि अचल रूप से मेरी  रक्षा करने से विचलित न होना।                        इस श्लोक के पीछे एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है कि पराक्रमी राजा बलि से देवताओं की रक्षा के लिए, वामन रूप में विष्णु ने तीन पग भूमि मांगी जो बलि ने प्रमादवश स्वीकार कर ली।                  तुरन्त विराट होकर विष्णु ने पृथ्वी और पाताल ले लिया। तीसरे पग के लिए बलि ने अपना सिर आगे कर दिया...

जंगल जीवेषणा

  बाघ-द्वीप की जंगल जीवेषणा                           सिंहावलोकन             जंगल जीवेषणा का अर्थ है "जंगल में जीने की कला, जीवन यापन का उद्यम,  जंगल के वातावरण के अनुकूल जीवन शैली,  जंगल के हिंसक और आक्रामक पशुओं से निपटने का कौशल, जंगल की दुर्गमताओं और दुरूहताओं का ज्ञान आदि। भोजन, पानी, आश्रय, आवागमन, समूह निर्माण और सहजीविता की रीति नीति।       यह बातें उन पर लागू होती है जो जंगल को ही अपना घर बनाकर उसमें रहते हैं लेकिन जंगल के जीवन के अध्येताओं और पर्यटकों के लिए इनकी जीवन शैली और मानसिकता को पढ़ना और उसके अनुकूल अपनी अध्ययन सामग्री जुटाना या आनंद बटोरना  जंगल जीवेषणा के अतिरिक्त बिंदु हैं।         पर्यटकों के लिए सामान्य तौर पर बनी हुई राजकीय वन विभागीय व्यवस्था के अंतर्गत जंगल के सौंदर्य, वन्य प्राणियों को देखना ही ध्येय है। वन्य प्राणियों के अतिरिक्त वनवासी भी पर्यटन का लक्ष्य होना चाहिए था लेकिन आधुनिक काल में वनवासियों ...

सब कैसे हैं?

 नवगीत : चलकर पूछूं सब कैसे हैं? संकोचों का  क्या उत्पादन, बहुत दिनों से सोच रहा हूं, चलकर पूंछू,  सब कैसे हैं?  आदर्शों की भूलनबेली,  उपवन में मन को छू बैठी, डहरी भूल गए सब सपने। हड़बड़ सुबहें झटपट भागीं,  तपती दो-पहरों से आगे, रात गयी ना लौटे अपने।  अनजाना पथ, लोग अपरिचित,  चित्र विचित्र भविष्य तुम्हारे, तुम्हीं बताओ,  ढब कैसे हैं?  सूरज को देखो तो लगता,  पड़ा घड़ा ख़ाली सिरहाने, जिसमें मुझको पानी भरना।  किस-किस के हिस्से का जीना,  जीवन है बेनामी खाता,  सांसों को बेगारी करना।  'हां' कहकर 'दर-असल' हुए जो,  'जब भी वक़्त मिलेगा तब' के, झूठे वादे,  अब कैसे हैं?  कैसी है पथरीली छाती,  जिस पर दुःख के शीशे टूटे, छल से छलनी दिल कैसा है? सब संतापों के छुपने को, ख़ामोशी की खुदी बावली,  उसका निचला तल कैसा है? भावुकता के क्षीण क्षणों में,  पथ के हर पत्थर को भी जो,  रब कहते थे,  लब कैसे हैं?  @कुमार, ०३.०७.२०२१, मध्य-रात्रि ००.१९  शब्दार्थ : उत्पादन : प्रोडक्ट, परिणाम, उपादान, उपलब...

मछुआरे का गीत

  मछुआरे का गीत : नवीन गीतल , ० मोह प्राण के सतत बिसारे, तट पर रखकर कूल किनारे।  मन के राजा हैं मछुआरे, उनसे हारे सागर खारे।। यदि मन में विश्वास प्रबल हो, तन का जीवन बढ़ जाता है, अगर विफलता लांघ सको तो, सदा सफलता बाट बुहारे।। मोल नहीं है कुछ सांसों का, दो कौड़ी है जिस्म की' क़ीमत, सपनों के इस मुर्दाघर में, कोई कैसे किसे पुकारे।। जगवाले हैं स्यार रंगीले, आंखों का काजल छल लेंगे, इंद्रजाल के जलसाघर में, मृगतृष्णा से सभी सहारे।।  हैं भविष्य के बाज़ीगर सब, आशा का पासा फेंकेंगे, 'इनको' घर से बेघर करके, 'उनके' होंगे बारे न्यारे।।                                     @ डॉ. रा. रा. कुमार 'वेणु ',  17-18.07.25, गुरु-शुक्र, (आधार छन्द -चौपाई,मात्रा बन्ध-16,16 )
गुरुपूर्णिमा दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं! संस्कृत ग्रंथों में एक श्लोक प्रसिद्ध है-          अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया।             चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥ *शब्दार्थ*: अज्ञान के अंधे-अंधेरे से बंद आंखों (चक्षुओं) को ज्ञान अंजन युक्त शलाका से जो खोलता है, उस गुरु को नमन! भावार्थ : एक परम्परा सिखाती है, शिक्षित और दीक्षित करती है कि आंख मूंदक तथाकथित गुरुओं पर भरोसा कर लो और वही करो जो वह कहता है, वही देखो जो वह दिखाता है। इसका लाभ स्वार्थी और पाखंडी गुरुओं को बहुत होता है।         किंतु एक परम्परा वह भी है जहां व्यक्ति को तार्किक बनाया जाता है, वैज्ञानिक दृष्टि जिसे दी जाती है और जिसे आंख मूंदकर भरोसा करने की न शिक्षा दी जाती, न दीक्षा। इस परंपरा के गुरु आंख खुली रखकर दुनिया का अध्ययन, सत्य का परीक्षण करने के लिए निरन्तर सचेत करते हैं। वास्तव में ऐसे ही आंख खोलकर जीने का ज्ञान और विवेक का अभ्यास कराने वाले मार्गदर्शक अथवा गुरु को ही नमन है। तस्मै श्री गुरुवै नमः का यही अर्थ है- *उ...

एक चतुष्पदी /मुक्तक और ग़ज़ल

 एक चतुष्पदी , (चौपड़, चौसर)...तीसरी पंक्ति के मुक्त होने से- मुक्तक , टुकड़ा या क़ता (क़िता) और पूरी ग़ज़ल ० जहां कोई भी थी न रहगुज़र, मैं वहां वहां भी गुज़र गया। मिले हर  तरफ़ खंढर क़िले, मैं जहां गया, मैं जिधर गया। बड़ा अजनबी ये सफ़र रहा,थी मुसाफ़िरों की ज़ुबां क़लम, रहा देखता, जो गया, गया, गईं बस्तियां, वो शहर गया।                                         @ कुमार, २८-३० मई २५ 0 और ये ग़ज़ल , (छन्द पूर्णिका, निपुणिका,  बहरे कामिल मुसम्मन सालिम, रुक्न- मुतफ़ाइलुन) ० जहां कोई भी थी न रहगुज़र, मैं वहां वहां भी गुज़र गया। मिले हर  तरफ़ खंढर मुझे, मैं जहां गया, मैं जिधर गया। बड़ा अजनबी ये सफ़र रहा, थी मुसाफ़िरों की ज़ुबां क़लम, रहा देखता, जो गया, गया, गईं बस्तियां, वो शहर गया।         जो भी सोचता,जो भी बोलता,कहा ख़ुद से,ख़ुद ने सुना किया, मैं रहा ख़ुदी से ख़ुदा तलब, मेरा हर असर मेरे सर गया।   मेरी आरज़ू थीं मुहब्बतें, मुझे हर क़दम मिली नफ़रतें, मेरी चाहतें हुईं चाक ...

अच्छा लगता है, क्यों लगता है?

अच्छा लगता है, क्यों लगता है?        यह सब अच्छा लगता है कि किसी को साहित्य का पुरस्कार मिला। अपने प्रिय गीतकार लेखक साहित्यकार को मिलनेवाले ये पुरस्कार हमें ख़ुशी के सिवाय और क्या देते हैं? वास्तव में हम उनसे चाहते भी क्या हैं? फिर क्यों अच्छा लगता है? हम तो सिर्फ़ एक साधारण पाठक हैं या उस क्षेत्र के प्रति रुचिवान लोग हैं। उसे जानते नहीं, वह हमें नहीं जानता। फिर क्यों होती है यह प्रसन्नता? इसकी क्या सार्थकता है हमारे जीवन में? जिसे मिला है उसके जीवन में इसकी सार्थकता हो सकती है। उसका उसे लाभ होगा, उसकी प्रतिष्ठा होगी। हमारा क्या? बैठे बिठाए की यह निरर्थकता किसलिए? यह इसलिए क्योंकि यह हमारे जीवन के उस रुझान की प्रसन्नता है, जिससे जुड़कर या जुड़े रहकर हमें प्रसन्नता होती है। इसी प्रसन्नता के लिए अथवा इसी प्रसन्नता के भरोसे तो जीवन में गतिशीलता आती है, सक्रियता आती है, जीवन हल्का बना रहता है। यही इस प्रसन्नता की सार्थकता है। एक अदृश्य, अनदेखी, अनाकार, अभौतिक मात्र आत्मिक अस्तित्व रखनेवाली यह प्रसन्नता इसलिए भी सार्थक है क्योंकि जो कुछ भी भौतिक मिलता है उसकी सार्थकता भी...

अंतर्ध्वनि

अंतर्ध्वनि शब्दों का ध्वन्यार्थ-विचलन और सम्वेदनाओं का संश्लेषण शब्दों की अपनी अंतर्ध्वनि होती है। श्रुतियों के गव्हर में उसकी अनुगूंज यथावत भी हो सकती है और तथागत भी। तथागत अर्थात जो ग्राही जैसा है, उसी के अनुरूप। स्मृतियों की रंगभूमि तक आते आते यह अनुगूंज जिस प्रतिध्वनि में बदल जाती है, वह अन्तरानुभूति से विरेचित होकर अपना मूल स्वरूप खो भी सकती है। इसलिए प्रायः अच्छी स्मृति और बुरी स्मृति की चर्चाएं होती रहती हैं। श्रुतियों और स्मृतियों का चरित्र शब्दों की अंतर्ध्वनि में शताब्दियों से विचलन के ही उत्पाद देता रहा है। अंतर्बोध और युगबोध ने शब्दों को श्रुतियों और स्मृतियों के खलबट्टे में कूटकर बड़े उपद्रव किये हैं। जिन्हें श्रुतियों और स्मृतियों का संस्करण कहा जाता है वह वास्तव में अपने मूल का विचलन ही है। एक बहुचर्चित शब्द है- यथार्थ, उसका अपना ही एक अर्थ है। वह वस्तुगत है, अन्य शब्दों में वास्तविक है। साधारण लोक में इसका अर्थ सत्य के पर्यायवाची के रूप में दैनिक और भौतिक हो गया है। अर्थ-साम्य की अवस्था या स्थिति में जब अनुभूतियां गुंजित होती हैं तो शब्द का समर्थन-मूल्य 'यथार्थ ...

असफलताओं के मलबों से फूट पड़ती हैं प्रतिभाएं

 असफलताओं के मलबों से फूट पड़ती हैं प्रतिभाएं   एक आजन्म संघर्षशील होने के नाते मुझे हमेशा किसी सफल व्यक्ति की असफलताओं और संघर्ष की कहानी पढ़ने में रोमांच होता रहा है। ऐसी ही एक कहानी मुझे आज (८.५.२५ ) अचानक मिली। यथावत प्रस्तुत। (यथासंभव सरल अनुवाद के साथ) ० लगभग डेढ़ सौ साल पहले 1864 में कैमिली जन्मी और 1943 में मर गई। दुनिया उसे पागलखाने में ठूंसकर भूल गई थी। क्या थी उसकी कहानी? कैमिली उस समय कला का अध्ययन करने पेरिस आई थी जब पुरुषों के लिए इकोले डेस बिआकस खुला था। वह हतोत्साहित नहीं हुई। वह महिलाओं के कलाघर से जुड़ गई। वहां वह नामवर शिल्पकार ऑगस्टे रोडीन से मिली और उसकी मुरीद हो गई। उनका संबंध बहुत गहरा और प्रगाढ़ था, उन्होंने मिलकर ढेरों कलाकृतियां बनाई। उनकी संयुक्त कृतियां आज भी रोडीन म्यूज़ियम और म्यूजी डी आर्से की शोभा हैं।  लेकिन रोडिन तो लंबे समय से ही किसी अन्य महिला से  संबंध बनाए हुए था, आख़िर वह कैमिली को छोड़कर चला गया। इस घटना के बाद रोडिन की भी प्रतिष्ठा को कलंकित हुई और कैमिली को भी लज्जित होना पड़ा। वह अपमान, बहिष्कार और अवसाद में घिर गई। कला से ...

अप्रैल फूल दिवस है एक मूर्ख बनाओ दिवस

  1अप्रैल 2025, मंगलवार अप्रैल फूल दिवस है एक मूर्ख बनाओ दिवस मि. अल्वर्ड विकी ने बड़ी शालीन भाषा में इस दिवस, अप्रैल फूल, मूर्ख दिवस,सकल मूर्ख दिवस को महिमामण्डित करते हुए लिखा है :' अप्रैल फूल दिवस ' पश्चिमी देशों में प्रत्येक वर्ष पहली अप्रैल को मनाया जाता है। कभी-कभी इसे ऑल फ़ूल्स डे (सकल मूर्ख दिवस)के नाम से भी जाना जाता हैं।  अप्रैल आधिकारिक छुट्टी का दिन नहीं है परन्तु इसे व्यापक रूप से एक ऐसे दिन के रूप में जाना और मनाया जाता है जब एक दूसरे के साथ व्यावाहारिक परिहास और सामान्य तौर पर मूर्खतापूर्ण हरकतें की जाती हैं। इस दिन मित्रों, परिजनों, शिक्षकों, पड़ोसियों, सहकर्मियों आदि के साथ अनेक प्रकार की नटखट हरकतें और अन्य व्यावहारिक परिहास किए जाते हैं, जिनका उद्देश्य होता है, बेवकूफ और अनाड़ी लोगों को शर्मिंदा करना।" वैसे देखा जाए तो आज जिसको प्रैंक कहते हैं वह बहुत पुराना खेल है। कुछ ऐसा कहना, करना या दिखाना जिसे  सामनेवाला व्यक्ति सच मन जाए। इसका उद्देश्य धोखा देकर नुकसान पहुंचाना नहीं है, बस लोकरंजन है, मज़े लेना है।  परम्परा बन गई है कि एक अप्रैल को लोग मूर...

नांदगांव उर्फ़ राजनांदगांव : विनोदकुमार शुक्ल की दृष्टि से

नांदगांव उर्फ़ राजनांदगांव : विनोदकुमार शुक्ल की दृष्टि से फेसबुक के अपने पेज पर, मैंने आ. विनोदकुमार शुक्ल पर दो आलेखों की लिंक भी शामिल की थी, इस टिप्पणी के साथ...             यह स्मरण-पत्र विनोदकुमार शुक्ल भाई के जन्मदिन पर तैयार किया था। लगभग तीन महीने बाद जब उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला और वे पुनः एक बार फिर बेहद चर्चित हुए। उन्हें कनक तिवारी जी (राजनांदगांव, दुर्ग), अशोक वाजपेई (दुर्ग, दिल्ली), राधावल्लभ त्रिपाठी (भोपाल), रवीशकुमार (दिल्ली), अशोककुमार पांडे (दिल्ली) आदि ने याद किया तो मैंने भी अपने लुप्तप्राय प्रयास को हवा में उछाल दिया। देखें कितनों के हाथ आए। ० इस प्रस्तुति पर मित्र हेमंत व्यास ने अहमदाबाद से टिप्पणी की -  "नौकर की कमीज" पुस्तक मैने हिमांशु के यहा पढी थी, उसमें राजनांदगांव की कुछ जगहों का जिक्र किया है। ० उनकी इस टिप्पणी के उत्तर में मैंने विनोदकुमार शुक्ल की नांदगांव उर्फ़ राजनांदगांव पर लिखी यह कविता भेजी, इस टिप्पणी के साथ -  'राजनांदगांव जिसे नांदगांव कहना, नन्दूलाल जी भी सही मानते थे, विनोद कुमार जी को भी...