नवगीत : हवा .... चल रही है! इधर चल रही है, उधर चल रही है। हवा को तो पढ़िए किधर चल रही है। इसे चुभ रही है, उसे डस रही है। कहीं फाड़ मुंह बे-हया हंस रही है। कहीं है धमाका, कहीं झुनझुना है। करेला इसे है, उसे अमपना है। बढ़ाती कहीं स्वाद, लेकिन कहीं पर- निवालों में भरकर ज़हर चल रही है। सवालों के कितने पड़ावों से बचकर। बहुत झूठ बोली, कहीं पर उतरकर। बहानों से देकर कभी सच को फांसी। ठहाके लगाती है, पर है रुहांसी। चली मालगाड़ी सजाकर बजारन, हवा उसकी बन हमसफ़र चल रही है। ये तोते गगन में जो छाए हुए हैं। ये जनता के हाथों उड़ाए गए हैं। ये टेंटें, ये तोतारटन्ती, ये भाषण। ये दिल्ली के सबसे बड़े हैं प्रदूषण। ...