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Showing posts from May, 2018

ढाई अक्षर

"ढाई अक्षर" : 28 मात्रायें (16-12 पर यति) ** आंख मूंद कर दिल से सुनना मैं इक गीत सुनाऊं!! शब्द, अर्थ के बिना मौन के ढाई अक्षर गाऊं!! *** संस्कृत, हिन्दी, अवधी, मगधी, प्राची, प्राकृत, पाली!! अंग्रेजी, उर्दू, गुजराती, मलयालम, बंगाली!! सब भाषायें बेशक मेरा मान बढ़ातीं लेकिन, मुझको केवल ढाई अक्षर, रखते गौरवशाली!! इसके बल पर ही दुनिया में मैं पहचान बनाऊं!! *** हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध, इसाई, सिख या वनवासी हों!! राजे रजवाड़े वाले हों, चाहे मीरासी हों!! राजभवन, ग्रन्थालय, कारा, उनको जकड़ न पायें, ढाई अक्षर जो पढ़ पाएं, जन-गण-मन-वासी हों!! उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम, सबको मीत बनाऊं!! *** यायावर मैं पूरी दुनिया, मेरा घर आंगन है!! पर्वत पुत्र, नदी का बेटा, मेरा मन दर्पन है!! सबके लिये खुला है मेरे मन का रैन बसेरा, सबको बाटूं ढाई अक्षर, यह ही अक्षुण धन है!! देश, धर्म, भाषा से ऊपर, उठकर प्रीत निभाऊं !! *** @कुमार, 25.5.18 शुक्रवार, 17.53

*मां तुझे प्रणाम!!*

शुभ प्रभातम *मां तुझे प्रणाम!!* * देह तुम्हारी, सांस तुम्हारी, जीवन दान तुम्हारा!! सब कुछ है आशीष तुम्हारा, मन अनुदान तुम्हारा!! वो जो नाम दिया है तुमने, दुनिया उसे पुकारे, मेरा केवल यह प्रयास, रख पाऊं मान तुम्हारा!! @ कुमार, विश्व-मातृ दिवस, 13 मई 18, रविवार, 7.20 प्रातः ** सब तहरीरें पढ़कर देखीं, उसके खत सा स्वाद नहीं!! हर आनंद अधूरा जिसमें उसकी कोई याद नहीं!! लाख मिले सम्मान, हजारों तोहफ़े मैंने पाये पर, वे अभिनन्दन झूठे जिनमें, मां का आशीर्वाद नहीं! *@कुमार,* 9.5.18, बुधवार, प्रातः 10.55, जबलपुर

मानवता के अन्तिम दिन का गीत

मानवता भाड़ में जा चुकी है। उसकी पुण्य-तिथि पर टूटे-फूटे शब्दों में एक श्रद्धांजलि :  * मानवता के अन्तिम दिन का गीत : * मन बैरागी  किसी ठौर पर  कब ठहरा है!! * सूकर-सोच, सुलभ-साधन, सम्मोहक-सपना!! भाता नहीं, भुलावों के, भट्टों का तपना!! नहीं चाहता छद्म, छलों के तमगे लेकर, कानी दुनिया की कैंड़ी आंखों में बसना!! कैसा परिचय, लिपा-पुता ही, जब चहरा है!! * प्रेम-घृणा की सबकी अपनी-अपनी सिगड़ी!! तिया-पांच में शान्ति-ध्वजा ही होती थिगड़ी!! बात बनाकर बना रहे हम लाख बहाने, बननेवाली इससे हर इक बात ही बिगड़ी!! हर बातूनी, जब सुनना हो, तब बहरा है!! * टेढ़े-मेढ़े रस्तों के हर मोड़ अनोखे!! जो पर्वत झरने छलकाये, पानी सोखे!! ऋतु-चक्रों के सब चरित्र बदले बदले हैं, अब बसन्त या मानसून हैं केवल धोखे!! मरूद्यान भी  मृगतृष्णा है,  सब सहरा है!! * जागो! भोर-गढों के भोलों, आंखें खोलो!! यही आखिरी सुबह बची, इसकी जय बोलो!! इससे पहले काल-पात्र मिट्टी का टूटे, शुभ संकल्प शेष जितने हों, इसमें घोलो!! संकट का  छोटा गड्ढा भी अब गहरा है!! * @कुमार, 5.5.18, शनिवार,