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Showing posts from June, 2022
 एक ग़ज़ल  पिछले किसी फ़साद पे उलझा दिखाई दे बातें वो चौंक चौंक के करता दिखाई दे  हर बात पर उसे सदा खटका दिखाई दे अपनों के बीच में भी वो सहमा दिखाई दे  जंगल की कोई बात उसे चुभ गयी होगी टेसू का पेड़ इसलिए दहका दिखाई दे  ईडी की ऐड़ उसको ही लगती है आजकल राजा जिसे--- हो नंगा तो नंगा दिखाई दे  बन्दर के हाथ उस्तरा मत दीजिए कभी काटे गला तो उसको सफलता दिखाई दे  @कुमार, २९.०६.२०२२, बुधवार, ऐड़ : चाबुक की मार,

एक ग़ज़ल : दुविधाओं की शल्य चिकित्सा

 एक ग़ज़ल : दुविधाओं की शल्य चिकित्सा  मुंसिफ़ बड़ा है शाह से ...सच है कि बतकही लगती है आग आह से ...सच है कि बतकही ईमां का हाथ छोड़ के  ... कुर्सी को थाम के बचते हैं हर गुनाह से ... सच है कि बतकह बिकते उसूल हाट में  ...  मिलते रसूख़ ज़र निकले वो बारगाह से  ... सच है कि बतकही किस पर यक़ीन किस पे भरोसा किया  लुटे बैठे हैं अब तबाह से ... सच है कि बतकही तख़्तापलट के दौर में ... मुर्दार मोहरे उठ आते क़ब्रगाह से ... सच है कि बतकही @कुमार, ३०.०६.२०२२, शब्दार्थ :  मुंसिफ़ : न्याय करनेवाला, न्यायाधीश, रसूख़ : प्रभाव, इज़्ज़त, साख, रुतवा, ज़र    : धन, दौलत,  बारगाह : दरबार, सदन, खेमा, डेरा, घर, मुर्दार : मरा हुआ, मृत-पशु, डरा हुआ, अयोग्य व्यक्ति ,