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Showing posts from 2010

मुरली-चोर !

ब्रजकुमारी एकांतवास कर रहीं थीं। रात दिन राधामोहन के ध्यान में डूबे रहकर उपासना और उलाहना इन दो घनिष्ठ सहेलियों के साथ उनके दिन बीत रहे थे। भक्ति और प्रीति चिरयुवतियां निरन्तर उनकी सेवा में लगी रहती थीं। एक दिन उन्हें ज्वर चढ़ा। यद्यपि ज्वर, पीड़ा, संताप, कष्ट, व्यवधान आदि आये दिन उनके अतिथि रहते थे। उनकी आवभगत में भी वे भक्ति और प्रीति के साथ यथोचित भजन और आरती प्रस्तुत करती थीं। आज भी वे नियमानुसार जाप और कीर्तन करने लगीं।          उनकी आरती और आर्तनाद के स्वर द्वारिकाधीश तक पहुंचे। उनके गुप्तचर अंतर्यामी ‘सर्वत्र’ और अनंतकुमार ‘दिव्यदृष्टि’ उन्हें राधारानी के पलपल के समाचार दिया करते थे।        समाचार प्राप्त होते ही तत्काल वे उनके पास पहुंच गए। भक्ति और प्रीति ने दोनों के लिए एकांत की पृष्ठभूमि बना दी और गोपनीय निज सहायिका समाधि को वहां तैनात कर दिया। उपासना और उलाहना मुख्य अतिथि के स्वागत सत्कार में लग गईं।      ‘‘कैसी हो?’’ आनंदकंद ने चिरपरिचित मुस्कान के साथ पूछा।      ‘‘जैसे तुम नहीं जानते?’’ - माधवप्रिया ने सदैव की तरह तुनककर कहा।       ‘‘पता चला है कि तुम्हें ज्वर है।’’ हंसकर

बुरा न मिल्या कोय

खोजी पत्रकारिता के इस युग में केवल कबीर ही प्रासंगिक हैं। क्योंकि कबीर में भी वही आदत थी जो आज के खोजी पत्रकारों में है। बहुत खोजने के बाद कबीर कहते हैं,‘बुरा जो खोजन मैं गया’। आज के खोजी पत्रकार भी हमारे देश में बुराई को ही खोज रहे हैं। यहां कहां मिलेगी भैया ! बुराई और इस देश में। हमारे देश की एकमात्र अवधारणा है कि बुराई तो केवल विदेश में है। अब इस अवधारणा को तुम बुराई मानते हो तो मानते रहो। पर बुराई यहां कहां? यह तो ऊंची संस्कृति और नैतिकतावाला देश है। आगे जाओ और कोई दूसरा देश देखो। यहां न बुराई थी , न है , न रहेगी। तुम्हें क्या पता नहीं कि तुम्हारी तरह पहले एक कबीर आए। खूब इधर उधर खोजते रहे। पर बुराई उन्हें भी कहां मिली ? हार कर उन्होंने कहना पड़ा -‘‘ बुरा जो देखन मैं गया , बुरा न मिल्या कोय।’’ नई मिलता न, क्या करोगे ? हमारे देश की यही बुराई है कि यहां खोजने पर भी कोई बुरा नहीं मिलता। खोजनेवाला बुरा हो सकता है, मिलनेवाला बुरा हो ही नहीं पाता। वह ले देकर अच्छा ही होता है। हमारे देश में बुरा कोई है ही नहीं । सब अच्छे हैं। वैसे सारी दुनिया में एक हमारा ही तो देश अच्छा है। हमारे देश क

अपना मध्यप्रदेश

मध्यप्रदेश का गीत: 1 नवम्बर को मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ अपने स्थापना दिवस मना रहे है। छत्तीसगढ़ 1 नव. 2000 को अस्तितव में आया जबकि 1 नवम्बर 1956 को मध्यप्रदेष की स्थापना हुई। इस अवसर पर मध्यप्रदेश के नाम यह गीत समर्पित है जो मेरी जन्म भूमि भी है और वर्तमान में कर्मभूमि भी। छ.ग. (पूर्व मध्यप्रदेश) में मैंने उच्च शिक्षा पाई और वहीं अपने कर्मयोग का आरंभ भी किया। अपना मध्यप्रदेश ! विन्ध्याचल ,कैमूर, सतपुड़ा , मैकल शिखर-सुवेश । हरी भरी धरती के सारे सपने हरे हरे हैं। पूर्व और पश्चिम तक रेवा के तट भरे भरे हैं। ताल और सुर-ताल हृदय से निकले तभी खरे हैं। भरे हुए बहुमूल्य ,अनूठे ,अनुपम रत्न विशेष। अपना मध्यप्रदेश ! नम्र निमाड़ी, बन्द्य बुंदेली, बंक बघेली बोली, घुलमिल गोंड़ी भीली के संग करती हंसी ठिठौली। करमा, सैला नाच मनाते सभी दिवाली होली । तानसेन बिस्मिल्ला की धुन में डूबे परिवेश। अपना मध्यप्रदेश ! तेंदू और तेंदुओं वाला हर वन अभ्यारण है। बाघ ,मयूर , हिरण, भालू के यहां तरण-तारण हैं। महुंआ, कांस, पलाश हमारी पूजा में ‘कारण’ हैं। कण-कण न

माटी के पुतले 3

स्थापना और विसर्जन पूरे देश में मूर्तियां स्थापित हो गई हैं। हम उन मूर्तियों को स्थापित होते देख सकते हैं , जिन्हें हममें से कुछ लोग बनाते हंै और बहुत से लोग स्थापित करते हैं। क्यों बनती हैं मूर्तियां , कैसे बनती हैं मूर्तियां और क्यों और किसके लिए स्थापित होती हैं मूर्तियां ? कौन मूर्तियां बनाता है ? किसके इशारे पर बनाता है और कौन स्थापित करता है इन्हें ? इन सवालों के बारे में सोचने की ना तो हमें जरूरत हैं और ना तो कोई सोचता है। मूर्तियां स्थापित हो जाएं , उन्हें प्रतिष्ठित कर दिया जाए, एक लोक आयोजन हो ,नगर और अपने सहज पहुंच में पड़नेवाले स्थानों पर अगर हम जाना चाहें तो जाकर देखकर आनंदित हो लें या श्रद्धावनत होलें। सामाजिक मनुष्य से इतनी ही अपेक्षा की जाती है और इतनी ही उसकी आवश्यकता होती है। स्थापना और प्रतिष्ठा का सुख जिन्हें मिलता है , वे उसका आनंद सप्रयास ले लेते हैं। मैंने मूर्तियों के निर्माण का आनंद लिया। यह आनंद हमारे हाथ में होता हैं। हम ही निश्चित करते हैं कि किस चीज़ का हमें आनंद लेना है। थोपी गई भयंकर और भयानक ‘सुन्दर’ वस्तु का आनंद लेना किसी के वश की बात नहीं हैं।

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।

माटी के पुतले -2

2. एसराम उइके पेन्टर आदिजन बहुल क्षेत्र के एक सामान्य परिवार से संबद्ध श्री एसराम उइके रेलवे मुलाजिम हैं। यद्यपि यह कलाकार रेलवे में पेन्टर के रूप में 1985 से पदस्थ है ; लेकिन अरविंद आश्रम के अनुयायी एक कांक्रीट कलाकार श्री अनादि अधिकारी के साथ संपर्क होने से कैनवास पेन्टिंग में इनकी प्रतिभा अद्भुत रंग उभारती रही है। भविष्य में इस श्रमजीवी कलाकार की कण कण में निखरी चित्रकला और रंग-रचनाओं के साथ साथ अरविन्द-आश्रम के सिद्धहस्त रंगशिल्पी और मूर्तिकार अनादि अधिकारी के शिल्प का परिचय देने का प्रयास करूंगा। बहरहाल श्री एसराम ने अपनी अक्षर पेन्टिन्ग के साथ साथ इस क्षेत्र की विशिष्ट पहचान बाघ या टााइगर के तैल चित्रों से रेल सूचना पटलों को पूरे संभग में रंगा डाला है और अपन अभीश्ट प्रभाव छोड़ा है। एक और आदिमजन छिंदवाड़ा में पतालकोट का मूर्तिशिल्प रचने और कपड़े के थान के थान को अािदवासी संस्कृति का कैनवास बनाकर प्रस्तुत करने के लाइव प्रदर्शन कर चुके हैं। छिंदवाड़ा में उनके जीवंत मूर्तियों को आदिवासी संग्रहालय में देखा जा सकता है। श्री एसराम ने यद्यपि इस विशाल और वृहद स्तर पर अपने शिल्प को प्रस्

माटी के पुतले 1

पूरे भारत में हिन्दू आस्था और विद्या की प्रतीक गजानन गणपति की मूर्तियों का विसर्जन किया जा चुका है। यह भाद्र मास था। अश्विन-मास के साथ ही पितृ मोक्ष पखवाड़ा प्रारंभ हुआ। पितृमोक्ष अमावस्या के देसरे दिन अष्विन शुक्ल की प्रतिपदा से शक्ति की प्रतीक देवी दुर्गा की प्रतिमाओं की प्राणप्रतिष्ठा और पूजन का होगा। गणेश और दुर्गा की प्रतिमाओं का वृहदस्तर पर निर्माण किया जाता है। जो भी मृदाशिल्प में रुचि रखता है और इसमें पारंगत है वह व्यापारिक दृष्टि से मूर्तियों का निर्माण करता है और मांग के अनुसार उनका व्यापार करता है। रक्षाबंधन और दीपावली में उत्सब के अनुकूल राखियों और पटाखों का निर्माण अधिकांशतः मुस्लिम मतावलंबी करते हैं। मूर्तियों का निर्माण भी अनेक स्थानों में विभिन्न समुदायों के लोग करते हैं ,जिनमें मुस्लिम समुदाय के लोग भी हैं। इन दिनों मंदिर मस्जिद के तथाकथित विवादों और तनावों का चर्चा गर्म है। इसलिए ऐसे समाचार चित्र सहित अखबारों में आते रहते हैं। मेरे शहर में पिछले बीस बाइस सालों से दो विविध कलाकार मूर्तियों का व्यवसाय कर रहें है। व्यावसायिक स्तर पर किये जाने के कारण और उसमें स्वरुचि का

और मेरा आगे निकल जाना

पड़े रह जाना तीन लेखकों का फुटपाथ पर और मेरा आगे निकल जाना तीन लेखक फुटपाथ पर पड़े हैं। सोचता हूं कि उन्हें उठा लूं। मगर मेरी खुद की हालत खस्ता है। लोग देख रहें है कि मैं भी फुटपाथ पर खड़ा हुआ हूं। फुटपाथ के साथ मैं इस कदर तदाकार हो चुका हूं कि उससे मेरा तादात्म्य स्थापित हो चुका है। संतों ने इसे ही पहुंची हुई स्थिति कहा है। मगर मैं संतों को कहां ढूंढूं कि वे मेरी इस स्थिति को देख सकें। फलस्वरूप मैं मनमारे फुटपाथ पर खड़ा बेचैनी से उसका इंतजार कर रहा हूं। मेरे हाव भाव से ही लग रहा है कि मैं जिसका इंतजार कर रहा हूं उसके लिए किसी भी स्थिति से गुजर सकता हूं। उसे देखकर मैं बावरा सा दौड़ सकता हूं ,बिना यह सोचे कि पागलों की तरह दौड़नवाली गाड़ियों के नीचे आ भी सकता हूं। यही आदर्श लगाव और प्रतीक्षा है। मैं जब अपनी बेसब्री नहीं संभाल पाता तो पास खड़े एक अजनबी से पूछता हूं:‘‘ वह कब आएगी।‘‘ अजनबी उपेक्षा से कहता है:‘‘ वह आधा घंटा बाद आएगी। मैं भी उसका इंतजार कर रहा हूं।‘‘ मैं समझ जाता हूं कि एक तो यही प्रतियोगिता में है जिसे पछाड़कर मुझे उस तक पहुंचना है। मैं तनाव में आ जाता हूं। ध्यान बंटाने के लि

चुहिया बनाम छछूंदर

डायरी 24.7.10 कल रात एक मोटे चूहे का एनकाउंटर किया। मारा नहीं ,बदहवास करके बाहर का रास्ता खोल दिया ताकि वह सुरक्षित जा सके। हमारी यही परम्परा है। हम मानवीयता की दृष्टि से दुश्मनों को या अपराधियों को लानत मलामत करके बाहर जाने का सुरक्षित रास्ता दिखा देते हैं। बहुत ही शातिर हुआ तो देश निकाला दे देते हैं। आतंकवादियों तक को हम कहते हैं कि जाओ , अब दुबारा मत आना। इस तरह की शैली को आजकल ‘समझौता एक्सप्रेस’ कहा जाता है। मैंने चूहे को इसी एक्सप्रेस में बाहर भेज दिया और कहा कि नापाक ! अब दुबारा मेरे घर में मत घुसना। क्या करें , इतनी कठोरता भी हम नहीं बरतते यानी उसे घर से नहीं निकालते अगर वह केवल मटर गस्ती करता और हमारा मनोरंजन करता रहता। अगर वह सब्जियों के उतारे हुए छिलके कुतरता या उसके लिए डाले गए रोटी के टुकड़े खाकर संतुष्ट हो जाता। मगर वह तो कपड़े तक कुतरने लगा था जिसमें कोई स्वाद नहीं होता ना ही कोई विटामिन या प्रोटीन ही होता। अब ये तो कोई शराफत नहीं थी! जिस घर में रह रहे हो उसी में छेद कर रहे हो!? आखि़र तुम चूहे हो ,कोई आदमी थोड़े ही हो। चूहे को ऐसा करना शोभा नहीं देता। हालांकि शुरू शुरू

मार्बल सिटी का माडर्न हॉस्पीटल

उर्फ मरना तो है ही एक दिन इन दिनों चिकित्सा से बड़ा मुनाफे़ का उद्योग कोई दूसरा भी हो सकता है, इस समय मैं याद नहीं कर पा रहा हूं। नहीं जानता यह कहना ठीक नहीं। शिक्षा भी आज बहुत बड़ा व्यवसाय है। बिजली, जमीन, शराब, बिग-बाजार आदि भी बड़े व्यवसाय के रूप में स्थापित हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य आदमी की सबसे बड़ी कमजोरियां हैं, इसलिए इनका दोहन भी उतना ही ताकतवर है। हमें जिन्दगी में यह सीखने मिलता है कि बलशाली को दबाने में हम शक्ति या बल का प्रयोग करना निरर्थक समझते हैं, इसलिए नहीं लगाते। दुर्बल को सताने में मज़ा आता है और आत्मबल प्राप्त होता है, इसलिए आत्मतुष्टि के लिए हम पूरी ताकत लगाकर पूरा आनंद प्राप्त करते हैं। मां बाप बच्चों के भविष्य के लिए सबसे मंहगे शैक्षणिक व्यावसायिक केन्द्र में जाते हैं। इसी प्रकार बीमार व्यक्ति को लेकर शुभचिन्तक महंगे चिकित्सालय में जाते हैं ताकि जीवन के मामले में कोई रिस्क न रहे। इसके लिए वे कोई भी कीमत चुकाना चाहते हैं और उनकी इसी कमजोरी को विनम्रता पूर्वक स्वीकार करके चिकित्सा व्यवसायी बड़ी से बड़ी कीमत लेकर उनके लिए चिकित्सा को संतोषजनक बना देते हैं। माडर्न

प्रेतवाला पीपल

स्कूल ग्राउंड में अंधेरा है। अंधेरे में स्कूल ग्राउंड मे खड़ा प्रेतवाला पीपल का पेड़ और भी भयानक लग रहा है। उसी भयानक पेड़ के नीचे बने ,टूटे फूटे चबूतरे पर संता गुरुजी चैन की नींद सो रहे हैं। संता गुरुजी का मन जब जब खराब होता है , तब तब प्राइमरी स्कूल के खुले ग्राउंड के एक कोने में खड़ा पीपल का पेड़ ही उनको शांति देता है। शांति के लिए तो सभी जीनेवाले बुरी तरह मरते रहते हैं। लोगों का कहना है कि जो लोग बुरी तरह मरते हैं , वे लोग प्रेत बनकर इसी पीपल के पेड़ में रहने लगते हैं। आदमियों के मरने से बननेवाले भूत , प्रेत , बेताल वगैरह प्रायः पेड़ में ही रहते हैं। इसका कोई पौराणिक कारण होगा। गुरुजी उस कारण पर नहीं जाते और परंपरा के अनुसार अन्य लोगों की तरह जब तक सांस है , पेड़ के नीचे रहते हैं। मरने पर पेड़ पर तो रहना ही है। ऐसा विश्वास है कि इस स्कूल ग्राउंड वाले पीपल के पेड़ पर भूत रहते हैं। जब-जब किसी बच्चे की स्कूल में तबीयत खराब हो जाती है , तब-तब पूरे गांव में फुसफुसाहट फैल जाती है कि पीपलवाले प्रेत ने सताया है। बच्चे के परिवारवाले तब छोटी-मोटी पूजा करके पीपल के प्रेत को मनाया करते हैं। उस पूजा

बिल्ली का भाग्य

डर्टी ,डफर ,चीटर कैट ! आई हेट यू! अपने पीले गंदे दांत मत निपोरो । आई रियली हेट यू। मेरे सामने बिल्कुल म्यांऊं मत करो। मैं तुमसे नफ़रत करता हूं और नम्बर एक में नफ़रत करता हूं। नंबर दो में नहीं ..जहां आई हेट यू का मतलब आई लव यू होता है। आजकल युवाओं में प्रेम के मामले में इन्नोवेशन के चलते नये नये संप्रेषण के तरीके निकाले जा रहे है। मुझे कम से कम तुम युवा मत समझना। आज मैं गुस्से में हूं और चाहता हूं कि तुम पक्के तौर पर मुझे खड़ूस समझो। गुस्से में मुझे अपनी इमेज नही दिखाई दे रहीं ;केवल दिखाई दे रहा है वह पतीला जिस में शाम को फ्राई होने के लिए रखा गया भात था और तुमने उसे गिरा दिया । मुझे दिखाई दे रही है दूध से भरी हुई वह पतीली जिसमें मलाईदार दूध अभी भी रखा हुआ है और जिसे तुमने ..अरी चटोरी ,चालू ,चालाक, चोर , भड़ियाई बिल्ली ! लपलप सड़पसड़पकर जूठा कर दिया। तुम्हें पता है कि अब वह किसी इंसान के काम का नहीं रहा ? तुम्हें क्या पता ! तुम्हें तो मुंह डालने के पहले यह भी पता नहीं था कि इतना एक लीटर दूध तुम पी भी पाओगी या नहीं। बस मुंह डाल दिया। इसके पहले तो तुम ऐसी नहीं थी। तुम सिर्फ चूहों के पीछे भा