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Showing posts from 2014

खुशसुखन हम बांटते हैं।

  मुख्यपृष्ठों! सोचना मत हासिये हैं। हम कसीदे बुननेवाले क्रोशिये हैं। पाट देते हैं दिलों की दूरियां हम, खुशसुखन हम बांटते हैं, डाकिये हैं। समन्दर हैं आंख की सीपी में सातों, इसलिये ये अश्क सारे मोतिये है। भ्रम न फैलाते न कोई जाल रचते, हम खुली वादी में जीभरकर जिये हैं। जन्में हैं हम पत्थरों में, शिलाजित हैं, गुलमुहर से रिश्ते तो बस शौकिये हैं। आंधियों इतराओ मत झौंकों पै अपने, वक़्त जिसकी लौ है खुद, हम वो दिये हैं। नाव से निस्बत रखें न हम नदी से, साहिलों तक तैरकर आया किये हैं। बस्तियों में रात हो जाये तो ठहरें, मन है बैरागी तो चौले जोगिये हैं। कब किसी अनुबंध में बंधते हैं ‘ज़ाहिद’ जिस तरफ़ भी दिल किया हम चल दिये हैं। वीक्षकीय, 30.12.14 सुगढ़ और सुधि सुमति-समृद्ध समर्थ नेतृत्व के अभाव में वाणिज्यिक विज्ञापनी-प्रबंधन दुरभिसंधि से भरकर एक लहर और हवा की तरह सरसरा रहा है। इससे बहुत सी आत्ममुग्ध यथास्थितिवादी स्थापक शक्तियां अपनी बांबियां रचने लगी हैं। इन दीमकों की सुगमुगाहट से अकुलाकर कुछ शेर खुदबखुद उतर आये। इनका तहेदिल से इस्तकबाल है। तसलीम। 0 डा. रा.

चिड़िया-घर में खड़ी विलुप्तप्राय हिन्दी

   आज हिन्दी दिवस है। सुबह आंख खुलते ही मेरे दिमाग में अलार्म की तरह यह धुन बजने लगी कि आज हिन्दी दिवस है। इसका श्रेय मैं उन तथाकथित हिन्दी-सेवकों को देना चाहता हूं जिन्होंने पत्र लिखकर या फोन करके मुझे बार-बार याद दिलाया था कि आगामी फोरटीन सितम्बर हिन्दी दिवस है। मैं हिन्दी का प्राध्यापक हूं, इस नाते प्रमुख वक्तव्य देना मेरा कत्र्तव्य है। वे मुझे आमंत्रित नहीं कर रहे थे, बल्कि मेरे हिन्दी के प्रति बाई-डिफाल्ट कत्र्तव्य की याद दिला रहे थे। उनके अनुसार, यह मेरी नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि मैं इस कार्यक्रम में भाग लेने के लिये अवश्य टाइम निकालूं। मैं समझ गया कि न वे ऐसे छोड़नेवाले हैं, न मैं। हिन्दी दिवस पर क्या बोलूंगा, यह मैं समझ नहीं पा रहा था। लोगों का रुझान दिवस मनाने में ही रहता है। एक कार्यक्रम हो गया, जिन्होंने मनाने के लिये कहा है, उन्हें रिपोर्ट कर दी, बस। यही आयोजकीय है। हिन्दी क्या, क्यों, कहां, कैसी, कितनी आदि का ना तो उन्हें पता है, ना वे पता करना चाहते। उन्हें या तो सब आता है, जैसा कि उन्हें मुगालता है, या हिन्दी में क्या रखा है, जैसा कि हर व्यक्ति सोचता है। हि

सांसों के विविध व्यंजन और कामचोरी की रचना धर्मिता

कामचोरी ने इस देश को ही नहीं, पूरी दुनिया को ऊंचे-ऊंचे विचार दिये हैं। कामचोरी से विचार प्रक्रिया तीव्र होती है। जितने भी नव्याचार प्रशासन द्वारा मातहतों पर थोपे जाते हैं वे सब कामचोरी की ही गाजरघास हैं, जो बड़ी तेजी से कागजी कार्यवाही के रूप में फैलती हैं और पूरे शासन तंत्र को कामचोरी के नये-नये गुर सिखाती हुई फूलने फलने लगती है। यह उत्तम विचार भी मुझे कामचोरी के कारण आया। आज मैं गर्व से अपने पूर्वज-द्वय के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर सकता हूं। कामचोरी को सबसे पहले परखनेवाले मेरे ये पुरोधा हैं मध्यकालीन श्री मलूकदास जी, जिन्होंने ‘अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे न काम। दास मलूका कह गये सबके दाता राम’ का पांचजन्य फूंककर आलसियों का मनोबल बढ़ाया। दूसरे मेरे पुरखे है श्री हरिशंकर परसाई जिन्होंने ‘निठल्ले की डायरी’ लिखकर इस परम्परा को आगे बढ़ाया। मैं यह बताकर बेकार का काम नहीं करना चाहता कि तीसरा मैं हूं। मैं दावा कर सकता हूं कि खाली रहो तो सर्वश्रेष्ठ विचार आते हैं। इसमें कोई मतभेद हो ही नहीं सकता। ‘खाली दिमाग में खुराफात और खाली घर में शैतान रहता है’ कहनेवाले लोग ‘केवल विरोध के लिये व

कभी-कभी किसी-किसी दिन,

(गीतों की पैथालाजी मे प्यार का इ.एस.आर,) कभी-कभी किसी-किसी दिन, सुबह रोज़ की तरह नहीं होती, सूरज आसमान से नहीं निकलता, किरणें दरवाजों से नहीं आतीं, रोशनी बाहर नहीं फैलती, गीत होठों से नहीं झरते, संगीत कानों से नहीं सुना जाता। कभी-कभी किसी-किसी दिन, कोई कोई सुबह, बिल्कुल अलग तरह की होती है, सूरज अंधेरे में खड़े, किसी मासूम बच्चे की तरह, अभी अभी जागे हुए सपनों की, आंखें मलता सा लगता है, खुशियों के फूलों को जमाने से छुपाता सा, आसमान उसकी पलकों में, दुबका हुआ लगता है, किरनें उसके होंठों में चमकती हैं, गीत उसके अंदर गूंजते हैं, संगीत उसके दिल में बजता है। कभी कभी किसी किसी दिन। आज कुछ ऐसा ही दिन था, जो रोज की तरह नहीं था। वैसे भी रोज वही दिन कभी नहीं होता। कभी कभी पिछले दिन का कुछ छूटा हुआ रात में कुछ नया जोड़कर सुबह सुबह आ जाता है। कभी उसके पास पिछला कुछ होता ही नहीं, कुछ बिल्कुल नया सा लेकर आ जाता है जो आश्चर्य की तरह अनोखा और जानने लायक होता है। आज सुबह वैसे ही हुआ। टेबल पर चमकता हुआ ‘स्पर्श पटलीय कोशिका चलितभाष’ (टच स्क्रीन सेल फोन) मेरा ध्यान खींचने लगा। उसे क्या हो गया

डर की सोनोग्राफी और प्रेम का आई-टेस्ट

  डर इतना मन में भरा हुआ होता है कि भारी मन से हल्के धंुधलके में भी रस्सी को सांप समझकर लोग सहम जाते हैं, हड़बड़ाकर भागने के कारण लड़खड़ाकर गिर जाते हैं। घबराहट में धड़कनें तेज हो जाती हैं, आंतें सिकुड़ने लगती हैं, पैरों में खिंचाव होने लगता है, शरीर कांपने लगता है। रक्तचाप की जांच की जाये तो वह बढ़ा हुआ मिलेगा, अल्ट्रा साउंड में हार्ट बीट की फ्रिक्वेंसी हाई होगी। सोनोग्राफी आंतों की कराई जाये तो आंतों में भय चिपका हुआ मिलेगा। मुंह सूखेगा, त्वचा जलेगी, पसीना निकलेगा। जैसा कि युद्ध भूमि में अर्जुन के साथ हुआ था। पहले तो बहादुरी के साथ कृष्ण से बोला कि दोनों सेनाओं के बीच ले चलो। फिर सशस्त्र सेना में अपने ही भाई-बंधुओं को देखकर मोह-जनित पीड़ा और क्षोभ से डर गया। डर कर कृष्ण से कहने लगा- ‘‘सीदंति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति। वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।। 29/1 डर, घबराहट, आघात जैसी उपरोक्त परिस्थितियों में सामान्योपचार या घरेलू इलाज यह है कि बड़ा हो तो पीठ थपथपा दो, छोटा बच्चा हो तो उसे सीने से लगा लो। ज्ञानवान हो तो उसे ज्ञान की बातें बताकर जागृत कर लो। कृष्ण ने अर्

विष-रस और मीरां की हंसी

रस काव्य की आत्मा है। छंद उसका शरीर है और अलंकार उसके आभूषण हैं। काव्यांग विश्लेषण और व्याख्यान में इसी दृष्टांत को वर्षों से परोसा जाता रहा है। व्यंजनों के रसास्वादन के लिए। उसे स्वादिष्ट बनाने के लिए। रस आत्मा की भांति दिखाई न देने वाला मनोभाव है। शरीर की भांति छंद के नाटे लम्बे, मोटे दुबले होने का प्रत्यक्ष हो जाता है। कुरूप और सुरूप होने का बोध भी होता है। नई लहर ने कविता आंदोलन के साथ यद्यपि कायाकल्प कर लिया है और बिल्कुल छरहरी होकर लुभाने की मुद्रा में स्थान स्थान पर खड़ी मिल जाती है। अलंकार भी रूप के अनुकूल उसने बदल लिये हैं। बिल्कुल त्यागे नहीं हैं। गद्य तक में भी अलंकरण के आधुनिक स्पर्श दिखाई दे जाते हैं। छंद की तरह अलंकार भी दिखाई देनेवाले स्थूल रूप हैं। दिखाई देने वाले के स्थान पर दिखाए जाने लायक शब्द रख देने से भी उसके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। हमारी प्रगति में बंधन मुक्त होने की लालसा दिखाई देती है। यह और बात है कि बंध हम फिर भी जाते हैं। यहां रूसो का कथन उदाहरण बन सकता है कि हम पैदा तो स्वतंत्र हुए हैं लेकिन सामाजिक होने से सर्वत्र जंजीरों में बंधे

तेरा दिल या मेरा दिल

 पाठकीय किंवा पठनीय                 कुछ मामलों में आचार संहिताएं काम नहीं करती। जैसे मामला ए प्रेम या फिर वारदाते भोगविलास, या फिर माले मुफ्त और दिले बेरहम। सारा कुसूर दिल का है। कवि शैलेन्द्र ने स्पष्टतः कहा है- दिल जो भी कहेगा मानेंगे, दुनिया में हमारा दिल ही तो है। समकालीन युग में प्रेम और श्रृंगार के स्टार-कवि के रूप में आत्म-ख्यात कुमार विश्वास ने भी उनके स्वर में स्वर मिलाकर गया है- कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है। मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है। मैं तुझसे दूर हूं कैसा, तू मुझसे दूर है कैसी- ये मेरा दिल समझता है या तेरा दिल समझता है। ये पेशे से प्रोफेसर हैं। इनकी इन पंक्तियों ने इन्हें रातों रात स्टार कवि बना दिया। मंचीय कवियों के इतिहास में यह एक क्रांतिकारी के रूप में उभरे जिसने मानदेय के सारे रिकार्ड तोड़ दिये। नीरज तक नीरस हो गए। इसके पीछे कारण मात्र दिल का है। लाखों युवाओं के दिल की बात इन्होंने कह दी। अब हंगामा तो होना ही था जैसा बिहार के प्रोफेसर के समय हुआ। उन्होंने ग़ालिब के प्रसिद्ध ‘प्रमेय’  ‘‘इश्क पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ग़ालिब, क

टोपी :

 राजनीति का मुहावरा या मुहावरे की राजनीति? बनारस में भगवा टोपी पहननेवालों से पत्रकार ने ये पूछकर कि क्या ‘आपके’ सबसे प्रबल शत्रु की टोपी की नकल करते हुए अपनी टोपी पहनी है?’ टोपी को पुनः चर्चित कर दिया है।। भगवा कार्यकत्र्ताओं ने जो उत्तर दिया वह बड़ा अटपटा था। उन्होंने अपने वर्तमान शत्रु या प्रतिद्वंद्वी का श्रेय खारिज करते हुए अपने दूसरे ‘ऐतिहासिक शत्रुया प्रतिद्वंद्वी की देन उसे बताया। ‘राष्ट्रपिता’ के रूप में ख्यात गांधी के नाम से ‘एक टोपी’ सत्तर अस्सी के दशक में लोकप्रिय थी, जो  उनके पुरानी विचारधारा वाले प्रायः वयोवृद्ध अनुयायियों ने याद रखा किन्तु नयी लहर के अनुयायियों ने उपेक्षित कर दिया। आप और बाप के बीच का यह द्वंद्व एक को अस्वीकार करने और दूसरे की लोकप्रियता का लाभ लेने का उपक्रम लगता है। मगर यह भी लगता है कि कार्यकर्ताओं को टोपी के इतिहास का पता नहीं है। उनके प्रायोजित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को भी इतिहास का कहां पता है? बिहार में विश्वविद्यापीठ आदि अनेक विषयों में इतिहासविषयक भूलें की हैं, अज्ञानता जाहिर की है। उनके समर्थित दलों और संगठनों में टोपियां ‘दिल्

किन्नर

बात कोई साल भर पहले की है। मैं शाम की गाड़ी से नैनपुर से बालाघाट लौट रहा हूं। जंगल की रमणीय वादियों का लुत्फ़ लेता हुआ मैं इस कदर खुश हूं जैसे हवाएं अपनी नरम और ठण्डी हथेलियों से मेरा दुलार कर रहीं हों। नगरवाड़ा से नैरोगेज पैसेन्जर आगे बढ़ी। मैंने देखा कि डिब्बे में एक किन्नर चढ़ गया है। उसकी उम्र कोई बीस पच्चीस की होगी। पुता हुआ चेहरा, लिपस्टिक और मुड़े निचुड़े से सलवार कुर्तें में उसने अपने को आकर्षक बनाने का भरपूर प्रयास किया है। स्लिम होने से इस प्रयास में वह काफ़ी हद तक सफल भी है। उसने अपने बाल संवारे और अपने बाएं हाथ की उंगलियों में दस दस कि नोट फंसाकर प्रति व्यक्ति दस के हिसाब से वसूली करने लगा। यहां मुझे गरम हवा का पहला झौंका लगा। अक्सर किन्नर किसी त्यौहार के बाद साल में एक दो बार घर घर उगाही, जिसे सांस्कृतिक तौर पर बिरत कहते हैं, में निकलते हैं। किन्तु पिछले अनेक सालों से ब्राडगेज में पैसों की वसूली का यह जबरिया खेल शुरू हो गया था। हफ्ता वसूली पहले ठेकेदारों के नाम पर हुआ। फिर ठेकेदारों के स्थान पर उनके नुमाइंदे ये काम करने लगे। बाद में उनकी तर्ज पर गुण्डों ने धौंस

मोरारी बापू का अहिंसा आन्दोलन

मोरारी बापू राम कथा के सबसे अधिक सुने और चाहे जानेवाले कथा-गायक हैं। निम्बार्क पंथ से उनका संबंध है और काले टीके के साथ काली कंबली उनकी पहचान है। पर यह काला टीका और काली कंबली उनकी शुभ्रता को कम नहीं करती बल्कि अधिक उजागर कर देती है। उनके परिधान में जो शुभ्रता है, वह उन्हें धार्मिक उन्माद से परे एक सौहार्द्र पूर्ण भक्ति आंदोलन का साधक और प्रवर्तक बना देती है। बापू राम के समन्वयवादी स्वरूप के गायक हैं। यही वह बीज है जिसे महात्मा गांधी ने धर्म की मिट्टी में बोया और उससे अहिंसा की फसल ली। बापू इसी परम्परा को सर्वत्र बिखेरते चलते हैं। यद्यपि उन्होंने रामकथा का गुरुमंत्र अपने दादा से प्राप्त किया किन्तु रामकथा गायन में रामभक्त हनुमान उनके मार्गदर्शक परम गुरु और संरक्षक हैं। हनुमान जयंती के अवसर पर प्रत्येक वर्ष वे अस्मिता पर्व का आयोजन करते हैं और साहित्य, संगीत, नृत्य, गायन, अभिनय आदि विविध कला क्षेत्रों के शीर्ष व्यक्तित्वों को आमंत्रित कर उनकी प्रतिभा का प्रदर्शन करते है और उनका सम्मान करते हैं। इस आयोजन में मोरारी बापू केवल उत्सवधर्मिता नहीं दिखाते बल्कि उनकी वैचारिकता और चिन्तन के
3.पूर्वकथा 2. मृत्युंजय का अर्थ शाब्दिक दृष्टि से मृ्त्यु पर जय प्राप्त करना हो सकता है। केवल महादेव या शिव ने इस असंभव को संभव कर दिखाया था ऐसी आस्थामूलक कहानी हम सुनते आ रहे हैं। वह श्मशान में रहते हैं। ऐसी जगह रहने के कारण उस बस्ती के बाकी नागरिक भूत, पिशाच, प्रेत, जिन्न वगैरह उनके मित्र, सखा, संबंधी आदि हो गए होंगे। इसमें आश्चर्य कैसा? भाई युक्तेश राठौर तो स्वर्गवासी हुए, किन्तु उनके सौजन्य से हम ऐसी ही जगह पहुंच गए हैं। परन्तु कोई हमें मृत्युंजय नहीं कहेगा। हम यहां कोई बसने थोड़े ही आए हैैं। युक्तेश भाई की शेष देह को फूंकने आए हैं। शंकर महाकाल के लिए राख उपलब्ध कराने।  इसे ही कहते है- मृत्युंजय साधना, जो हमने तीन चरणों में पार करनी है। दो हो गए, यह तीसरी और अंतिम है। इसके बाद होगी आनंद-साधना। वहां न दुख है न क्लेश। न भय है घबराहट। बस अखंड मौज है। पर इस तीसरे के बाद। तीसरे चरण के बाद....पहले चरण में भाई जी मरे, शवयात्रा की तैयारी हुई, दूसरे में उनकी अरथी निकली यानी शवयात्रा और उसके संभावित फायदे। तीसरा यह दाहकर्म, यह अग्निसंस्कार, अब जहां वे राख हो जाएंगे... लीजिए, प्रस्तु