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Showing posts from January, 2020

गीत : हर दिशा में हमीं...

 गीत ००० मापनी : (212 ×4) **** हम वहीं के वहीं आसमां के तले, ज़िंदगी भर ज़मीं ढूंढते रह गये। ख्वाब इतने दिखाए गये खामखां, हम बिजूके बने, खेत के रह गये। रात को क्या पता हम ही सूरज थे कल, वो समझती है हम स्वप्न में जी रहे। घूंट भर प्यास की आस में सैंकड़ों, आंख की पीर के आचमन पी रहे। मौसमों में हमें सिर्फ सूखा मिला, सावनों की खबर बांचते रह गए। ख्वाब इतने दिखाए गये खामखां... कंटकों का सफर खत्म होता नहीं, क्या पता बाग क्या, फूल होते हैं क्या? राह में राहजन ही मिले हर कदम, राहबर कौन है, दोस्त होते हैं क्या? कौन रस्ता तके, किसको संदेश दें, लापता का पता पूछते रह गए। ख्वाब इतने दिखाए गये खामखां... खुशबुओं की कनातों के इस पार हम, गुलशनों के तसव्वुर में मशगूल हैं। इंद्रधनुषों को मन में था बोया मगर, ऊगकर हाथ आये तो सब शूल थे। एक माला नहीं चुन सके प्यार की, चाह को चाव से चाहते रह गये। ख्वाब इतने दिखाए गये खामखां... है यहां क्या कोई जो करिश्मा करे, एक जादू मुझे

गीत : क्यों पीढ़ी को दिग्भ्रान्त करें। *

                  (((((*))))) नया गीत : क्यों पीढ़ी को दिग्भ्रान्त करें।                    ** आओ, बैठो, कुछ बात करें। ** हर रोज़ बदलती है दुनिया, दुनिया का दिल हर दिन बदले। हर पल पूरब-पश्चिम बदले, हर क्षण उत्तर-दक्षिण बदले। अक्षर का क्षरण हुआ जारी, शब्दों के अर्थ निरर्थ हुए। कुछ वाक्य तीर-से निकल गए, कुछ लक्ष्य-भ्रष्ट हो व्यर्थ हुए। इस परिवर्तन को क्या मानें? इस समीकरण को क्या समझें? क्या मांग समय की कहती है, कुछ पल ठहरें, विश्राम करें। उद्विग्न मनस को शांत करें। आओ, बैठो, कुछ बात करें। ००. हर नीरव शांत जलाशय पर, कंकर फेंकें, संवाद करें। शायद हलचल हो, हल निकलें, जिनका लहरें अनुवाद करें। कुछ नीलकमल, कुछ श्वेतकमल, कुछ स्वर्णकमल के भाव खुलें। कुछ आंखों के संताप मिटें, कुछ मन के सूखे घाव खुलें। कुछ मिले तटों को फिर आहट, फिर प्यासों को जल-घाट मिलें, जो पंछी चहक समेट गए, वे लौटें, पुनरावास करें। फिर भूली बिसरी बात करें

दो ग़ज़ल

मुल्क * आज फुटपाथ पै परसाद है बटनेवाला। वक़्त के साथ हुआ वक़्त से पिटनेवाला। वाह ओ तालियों के साथ मिलेगी खुरचन, खुद पै हंसता चला घुट-घुट के सुबकनेवाला। मुल्क के तख्त को ईमान से डर लगता है, चाहिये अब उसे हर बात पै बिकनेवाला। दोस्त अखलाक को फिर पोंछ के उजला न करो, दाम बाजार में इसका नहीं मिलनेवाला। अपने अहसास को मुर्गों के मुकाबिल न करो, गोश्त के सामने रोज़ा नहीं टिकने वाला। दिन की तकरीर से या रात के जगराते से, घर किसी का भी दुआ से नहीं चलनेवाला। ऊगते-डूबते लोगों के बढ़ाता साये, रोशनी बांटता सूरज भी है ढलनेवाला। @कुमार ज़ाहिद, 18.01.2020, सनीचर, ---------------------------------००००००००००० चांद * अरबों खरबों ने उसे लाख भर-नज़र देखा। कोई बतलाए किसे चांद ने, अगर देखा। चांद कुछ रात का हल्का सा उजाला भर है, अंधेरी रात की तकलीफ को किधर देखा। चांद पाने की हवस, चांद पै जाने की चुहल, ऐसे चुगदों ने कभी भूख का सफर देखा? कौन से ग्रह में जिंदगी है, हवा-पानी है, ढूंढते हैं वही, जिन लोगों ने सिफर देखा। ज़मीन से जो उठा, दौड़कर विदेश गया, लौट आया तो उसकी बात में असर द

१२ जनवरी २०२० : युवा दिवस

उत्तिष्ठ जागृत -वेद सूक्ति * विवेकानंद ने कहा था.. १. नये उपवन में फिर नव-पुष्प नव-मकरन्द छाएंगे!! विचारों के भ्रमर नव-रस, नया आनन्द पायेंगे!! अंधेरों की अभी कुछ और उलझी सी पहेली हैं, इन्हें सुलझाने नव-युग के विवेकानन्द आयेंगे! २. "मिला अनमोल जीवन, जीत का इतिहास रचना है। सफलता के लिए प्रण-प्राण से संघर्ष करना है। विवेकानंद कहते हैं- "उठो, जागो, बढ़ो आगे- तुम्हें अनथक, बिना ठहरे, ठिकाने तक पहुंचना है।" * @कुमार, १२ जनवरी २०२०, युवा दिवस

गीत-गुरु पद्म भूषण नीरज जी को समर्पित नीरज गीत

गीत-गुरु  पद्म भूषण नीरज जी को श्रद्धांजली :  *गीत-नीरज* : जीत के न हार के, गीत लिखूं प्यार के। जिंदगी खिला सके उसी युवा बहार के। शब्द शब्द जी सकूँ, कि छंद-छंद गा सकूं, मैं मधुर मिठास के लिए खटास पी रहा। मौसमों की आंख में बसन्त के सपन बुनूं। कंटकों की भीड़ से मैं फूल रेशमी चुनूं। पंखुड़ी को सौंपकर तपन तड़प की, प्यास की। मैं हवा में घोल दूं सुगंध मुक्त-हास की। सांस-सांस में घुलूं, उदासियों को छल सकूं, मैं अंधेरी रात में जीकर उजास पी रहा। चोट चाहतों की चादरों में चांपकर रखूं। जख्म जिस्म के न दिख सकें यूँ ढाँपकर रखूं। नफ़रतें मिलें तो उनको दिल से दूर-दूर कर। खुद को मैं रखूं खुशी की खुश्बुओं से तरबतर। आंगनों खिली-खिली, गली-गली घुली-मिली, बाग-बाग जो फिरे मैं वो बतास पी रहा। संगठित हुए हैं जो किसी के सर्वनाश को। मुट्ठियों में बांधना वो चाहते प्रकाश को। मैं कभी पुरवा, कभी पछवा हवा होकर बहूं। क्यों किसी के डर से अपने मन को मारकर रहूं। जंगलों की आग है, जो दहकता फाग है, मैं पुलकते उस पलास का हुलास पी रहा। ¥ @कुमार, 6.1.2020, 202, दूसरा तल्ला, किंग्स कैसल रेसीडेंसी, ऑ

नववर्ष 1.1.2020

नववर्ष 2020 : कुछ मुक्तक, एक गीतल ठगों से, कपटियों से, वंचकों से बच के आये हैं। वधिक हमलावरों से, कंटकों से बच के आये हैं। दिया है जन्म जंगल ने मगर रक्षा न कर पाया, हमीं हिम्मत हुनर से हिंसकों से बच के आये हैं।                                            (हिरण के बहाने) ★ सही है, जिंदगी सांसों की बस आवन है, जावन है। मगर खुशियों से गुज़री हर घड़ी पावन, सुहावन है। समंदर और रेगिस्तान तो सुख-दुख के किस्से हैं, हमारे दिल की हालत ही कभी सूखा है, सावन है। ** हुनर है भाग्य लिखने का जिन्हें रंगीं उजालों का। उन्हीं के पास है उत्तर सभी उलझे सवालों का। कहां गड्ढे, कहां समतल, कहां गुल हैं, कहां कांटे, कहां मधुबन, कहां खुशियां, कहां मातम मलालों का। * कभी मायूस होता हूं, कभी मैं मुस्कुराता हूं। कोई सपना हसीं टूटे तो पलकों से उठाता हूं। न जाने कौन मुझको गीत गज़लों में दिखाई दे, घड़ी रोने की आती है तो मैं बस गुनगुनाता हूं। * ∆∆∆∆∆  °°°°° गीतल : 'नया एक साल' * वक़्त के अंधेरों से, फिर निकाल लाया हूं। कुछ मुड़े तुड़े मिले मुझे, वो सवाल लाया हूं। काग़ज़ी जहाजों में, कितनी दूर