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Showing posts from December, 2021

जाता साल : आता साल

  जाता साल : आता साल आज है *आख़री दिन* ... अव्यवस्था, अंशदान चोरी, सामूहिक धन यानी अमानत में हेराफेरी, आरोप-प्रत्यारोप, धौंस, मनमानी, तनातनी, गुटबंदी, माफ़िया को बचाने के लिए छर्रों की लामबंदी, बेमेल वसूली, भेद, मान-अपमान की कलह-नीति की समाप्ति का... 💐💐 कल से होगा *नया शुभारंभ* .... सबका हित, शांति, उखड़ी हुई सड़कों की जगह नई और मज़बूत सड़क, सुव्यवस्थित और पारदर्शी पानी की व्यवस्था, सभी का बराबरी और ईमानदारी से अंशदान, सामूहिक बिजली और सफ़ाई की सुचारू व्यवस्था, फिज़ूलखर्ची का अंत, *जितनी चादर, उतने पैर फैलाने* की परंपरा का .... ☺️☺️ जाते जाते थोड़ा सा मज़ाक़ तो चलता है।  यह जानते हुए भी कि अंधों के आगे रोकर अपनी ही आंखें ख़राब करना है। और यह जानते हुए कि कुछ भी नया नहीं होने वाला  झूठ मुठ का *नया साल मुबारक!* 💐💐 ( *कोहराम नगर* से दुखियादास कबीर ) शब्दार्थ : झूठ-मूठ : वह मूठ जिसके नीचे तलवार नहीं होती, दिखावा, गीदड़ भभकी।

एक ग़ज़ल

बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़ मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईलु फ़ाइलुन 221 2121 1221 212 ० दुश्मन को लामबंद हुआ देख रहा हूँ हर ओर खाइयों के ख़ुदा देख रहा हूँ सच्चाइयों का आफ़ताब फिर है नदारद बादल से आसमां को घिरा देख रहा हूँ कुछ देर के मज़े थे ज़रा देर थीं खुशियां फिर आफ़तों को सर पे खड़ा देख रहा हूँ सब सिर्फ़ एकजुट थे वसूली के वास्ते बस्ती का हाल और बुरा देख रहा हूँ कल तक थी ख़ुदशनास ख़बरदार तबीयत क्यों आज उसका रंग उड़ा देख रहा हूँ मेरी बलाएँ लेके वो क़ातिल को दुआ दे गर्दिश की है शातिर ये अदा देख रहा हूँ सब बोलने वालों का गला घोंटनेवालों कल लेगी तबाही जो मज़ा देख रहा हूँ @कुमार,  २९.१२.२१ , बुधवार, 0 शब्दार्थ : लामबंद : संगठित,  खाइयों के ख़ुदा : खाइयों के बनाने और गहरी करनेवाले नुमाइंदे,   ख़ुदशनास : आत्मविश्वासी, अपने को पहचाननेवाला,   ख़बरदार : पहले से खतरा भांपनेवाला, अलाहिदा علاحدہ भिन्न, अलग क़िस्म का, अन्य,  नाज़िल نازِل नाज़िल  उतरने वाला, नीचे आने वाला, गिरने वाला, पधारने वाला, उतरा हुआ, आया हुआ

ग़ज़ल

 रमल मुसम्मन मख़्बून महज़ूफ़ मक़्तूअ फ़ाइलातुन फ़यइलातुन फ़यलातुन फ़ेलुन/फ़अलुन 2122 1122 1122 22 /112 1.  मेरी आँखों के समंदर पे तो तैरे कोई इस तरह दिल में उतर पाएगा गहरे कोई लेते रहता है फ़लक भर के क्यों फेरे कोई ठौर इतने हैं कहीं पर भी तो ठहरे कोई शक़्ल-- चीज़ें -- न दिखें राह-गुज़र -- चारागर ज़हन में क्यों लिए फिरता है ये कुहरे कोई जिसके होने से बियाबां में बहारां होती एक गुंचा तो खिलाये मेरे डेरे कोई चिलमनों में भी मिले रुख पे हिज़ाब ओढ़े थे  डालकर ख़ुद पे ही रखता है क्या पहरे कोई रंज ग़म जख़्म तलातुम में गिरफ़्तार बशर  इस बुरे तौर से इंसां को न पेरे कोई चैन देते हैं सुकूँ देते शिफ़ा देते हैं  मेरे पहलू से हटाए न अंधेरे कोई @कुमार, ज़ाहिद, हबीब अनवर, १५.१२.२१

एक सामयिक ग़ज़ल :

 एक सामयिक ग़ज़ल : मर गया हर दौर अपने आप  ये तिज़ारतदां हैं सबके बाप जुर्म की लिखतीं इबारत रोज़ मज़लिशें वे नाम जिनका खाप कैंचियां आएंगी उनके हाथ ले रहे हैं जो गले का नाप हैं जहां गड्ढ़े भरे उखड़ाव उस सड़क की दूरियां मत माप उस मुनी की है तपस्या श्रेष्ठ क्रोध में भरकर जो देता श्राप @कुमार,  ०६.१२.२१, ९.४५ प्रा. शब्दार्थ/कव्याशय :  ० दौर : समय, युग, लहर,  तिज़ारतदां : व्यापार बुद्धि लोग, पूंजीपति-उद्योगपति, मुनाफ़ा जीवी, मज़लिशें : सभाएं, पंचायतें,  खाप : खाप मुख्य रुप से एक सामुदायिक संगठन है जो किसी खास जाति या गोत्र से मिलकर बना होता है। इस तरह की खा प पंचायतों का कोई कानूनी आधार नहीं होता और सुप्रीम कोर्ट इन्हे अवैध घोषित कर चुका है।  आमतौर पर खाप में 84 गांव शामिल होते हैं। प्रत्येक गांव में एक चुनी हुई परिषद होती है जिसे पंचायत कहा जाता है। 7 गांवों की यूनिट को थंबा कहा जाता है और 12 थंबा मिलकर एक खाप पंचायत का निर्माण करते हैं। हालांकि अब 12 और 24 गांवों की खाप भी मौजूद है। सभी खापों के ऊपर सर्वखाप होती है जो इन सभी खाप पंचायतों का प्रतिनिधित्व करती है। प्रत्येक खाप अपने एक प्रतिनिधि को सर्व

सूरज की रोशनी में मौजूद हो तुम तुम में मौजूद है सूरज की रोशनी

 कविता : 3 ० सूरज की रोशनी में मौजूद हो तुम तुम में मौजूद है सूरज की रोशनी ० तुम्हारे पास से गुजरते ही मन भर जाता है अनदेखी उजास से ऊर्जा की एक अकथनीय सिहरन से निकलने लगती है अकूत ऊष्मा। दिखाई नहीं देता तुम्हारा हाथ पर कलाइयों में महसूस होता है मज़बूत और ताक़तवर पकड़ का अहसास सांसों में छातियों को फुलाने का साहस  उछाल मारने लगता है। तुम पिता तो नहीं हो  जिसके अभाव में ढूंढता रहा हूँ मैं  पिता जैसा लगनेवाला कोई कद्दावर किरदार किसी सूरत या शक्ल की तरह नहीं अपनेपन के सिंकाव की तरह जो मेरे भाग भागकर थके मन को दे सकता एक स्थायी राहत  नहीं, उस मरे हुए पिता की  अनाथ यादें भी तुम नहीं हो उनमें इतनी ऊर्जा और ऊष्मा कहां? तुम कौन हो जिसकी नज़र पड़ते ही फूलों में ताज़गी भरी मुस्कानें आ गयी खिल उठा ज़मीन का ज़र्रा ज़र्रा नदियों की कलकल जगमगा उठी लहलहा उठी खेतों की असंख्य उम्मीदें जाग उठे झंझावातों से लड़ने के जंगल के सारे मनसूबे तुम्हारी नज़र पड़ते ही  ख़ून में रवानी आ गयी मिठास बढ़ गयी, जवानी आ गयी तुम्हारी नज़र पड़ते ही  पत्ते पत्ते की सांसें लौट आयी उदास, हताश और अवसाद-ग्रस्त लम्हों को मिल गए जी उठने के अपरिभाष

कूट-युद्ध के ढोल

  नवगीत :  * आगे मौन है, पीछे उसके दुनिया भर के झोल। लपझप के  अनगिन झांसों में सांसें फंसी हुई हैं। ज़रूरतों के  जंगल में सब गैलें गंसी हुई हैं।  खरपतवार, मकड़जालों के पथ ने पहने चोल। बाज़ारों में  सजा-सजा रख बिकनेवाली चीज़।  लोगों का दिल लुभा सके जो लकदक, गर्म, लज़ीज़। दो कौड़ी की  बकवासों को कह अद्भुत, अनमोल। टोली, दल, जत्था, समूह हैं गठबन्धन के नाम। हामीवाला- दक्ष, कुशल है; अकुशल वो जो वाम। विश्व समूचा  बजा रहा है कूट-युद्ध के ढोल। @कुमार, १ दिसम्बर २१