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Showing posts from April, 2021

मोर संग चलव रे उर्फ संगच्छध्वम् ...

  मोर संग चलव रे उर्फ संगच्छध्वम् किसी भी शहर की सुंदरता, सुगढ़ता और जीवंतता की रीढ़ उस शहर के मजदूर हुआ करते हैं जो अनेक भेष में हमें मिल जाते हैं। कोई रिक्शा खींच रहा है, कोई हाथ ठेला पर भरे हुए बारदाने ढो रहा है। कोई गड्ढे खोद रहा है, घास खरपतवार उखाड़ रहा है, बगीचे साफ़ कर रहा है। मजदूरों को काम करते हुए देखकर ही लगता था कि शहर के फेफड़े कैसे और किनसे धड़कते हैं। एक तरह से जीवन की धड़कने सुनने मैं उस राह से गुज़रता था जहां मजदूर दिखाई पड़ते थे।  राजनांदगांव में उस समय बंगाल नागपुर कॉटन मिल (कपड़े का कारखाना) हुआ करती थी। इस कारखाने में ही जगत्प्रसिद्ध मच्छरदानियाँ बना करती थीं। शाम को साढ़े पांच - छः के आसपास कारखाने के सामने कतारों में बैठे हुए मजदूर, अपने सामने बैठी हुई अपनी पत्नियों द्वारा लाया हुआ भोजन या कलेवा करते थे। मेरे लिए यह दृश्य दुख, पीड़ा और सुख की द्वंद्वात्मक अनुभूति कराया करते थे।  फिर भी, मैं प्रायः रोज़ उसी रास्ते का उपयोग करता था, जो आगे चलकर रानी सागर के सामने से गुज़रते राष्ट्रीय राजमार्ग 7 उर्फ़ गांधी नेहरू रोड पर खुलता था। उस दिन भी मैं इसी रास्ते गुज़र रहा था। मज़दूर बैठ

झूठा है शांतिपाठ?

झूठा है शांतिपाठ? सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत।।                               ऊँ शांतिः शांतिः शांतिः।। यह मंत्र तैत्तिरीय उपनिषद् से लिया गया है, जो आज भी शांतिपाठ के रूप में प्रचलित है। कुछ लोग इसकी विषयवस्तु के आधार पर मृत्यु के समय पाठ किये जानेवाले गरुण-पुराण से इसे उद्धृत  मानते हैं। इस श्लोक का अर्थ है  कि सभी (प्राणि-मात्र) सुखी हों, सभी रोगमुक्त रहें, सब लोग सभी में भद्रता (सज्जनता) देखें, जिससे कोई दुःख के भागी न बन सके।" मंत्र श्रुति और परम्परा से वेद, उपनिषद और पुराणों का आधार रहे हैं। मंत्र या श्लोक स्मृतियों की वो नींव हैं जिस पर हमारे विचारों और आचरणों के भवन खड़े हैं। आश्चर्य की बात है कि ये समस्त श्लोक, ऋषि-मुनियों द्वारा समाज छोड़कर वनों में जाकर, तपस्या और ध्यान से मस्तिष्क को एकाग्र करके सृजित किये गए हैं। मौखिक-वाचिक परम्परा से इनको शिष्य या जिज्ञासु समुदाय ने सुना (श्रुति) और याद रखा (स्मृति) ताकि इनको, 'मानवीय राग-विराग, द्वेष-ईर्ष्या, अहंकार-उन्माद, आवेश-प्रमाद से संपृक्त समाज' के बीच जाक

सहज, सरल, सहृदय भाई रामेश्वर वैष्णव

सहज_सरल_सहृदय_भाई_रामेश्वर_वैष्णव  राजनांदगांव की स्वर्णमयी यादों में, फुर्सत और लगाव के वो क्षण याद हैं, जब कंपनी विशेष के ट्रांज़िस्टर में विविध-भारती और आकाशवाणी के विविध कार्यक्रम सुनते थे, उनमें भाग लेते थे। कविता, आलेख, परिचर्चा, गीत आदि प्रस्तुत करते थे।  आकाशवाणी भोपाल के लिए भी तब छत्तीगढ़ ( तब मध्यप्रदेश) में निवास करनेवाले रचनाकारों की रेकॉर्डिंग रायपुर में ही हो जाती थी। रायपुर में अपनी पहली कहानी की रिकॉर्डिंग के लिए जब पहली बार रायपुर गया तो सायकल रिक्शावाला मुझे शहर से बाहर ले गया। वहीं भाई मिर्ज़ा मसूद से पहली मुलाकात हुई जो मुझे काली चौक के पास रिकॉर्डिंग स्टूडियो ले आये और रिकॉर्डिंग करवाई। फिर तो बाद के 15-20 साल विविध कार्यक्रमों की रिकॉर्डिंग का सिलसिला वहीं चलता रहा। बहरहाल, उन्हीं दिनों में किसी दिन, एक शाम को, रायपुर आकाशवाणी से प्रसारित एक गीत सुना तो उसकी प्रस्तुति, लय, भाषा, विषय, शिल्प आदि मन को लुभा ले गए। गीतकार का नाम सुनने की जिज्ञासा स्वाभाविक थी। गीत समाप्त होने के बाद गीतकार का नाम उद्घोषित हुआ.. "अभी आप रामेश्वर वैष्णव से उनका गीत सुन रहे थे..&qu