* घूम रहे हैं लिए सुपारी, गर्मी खाकर दिन! - फिर गरमाए दिन! * खुली खिड़कियां बंद हो रहीं कैद हुईं बतकहियां! सूखी आँगन की फुलवारी मंद हुयीं चहचहियां! आस पड़ोस विदेश लग रहे अलसाये पलछिन! - फिर गरमाए दिन! * अलगावों के, भेदभाव के, खुलकर खुले अखाड़े! सब दबंग परकोटों में हैं सब दब्बू पिछवाड़े! हवा हुई अपहृत या खा गई उसे धूप बाघिन! - फिर गरमाए दिन! * लपट झपटकर सिंहासन पर, लू लपटें आ बैठीं! कुचल कुचलकर हंसी खुशी को, फिरतीं ऐंठी ऐंठी! जैसे सुख खा बैठे उनके परदादा का रिन! - फिर गरमाए दिन! * आतंकी से लगते हैं सब छुरी कटारीवाले! सुबह शाम रात दिन भी हैं पहुने भारीवाले! जैसे तैसे काट रहे हैं युग साँसों के बिन! - फिर गरमाए दिन! * आओ सब खटास घोलें अब, पना बने खटमिट्ठा! रस के धारावाहिक खोलें, सुखद समय का चिट्ठा! राग-रंग में क्यों घोले विष, कलुष बुद्धि नागिन! - ठंडक पाएं दिन! @ कुमार, 27.3.17,11.43 am सोमवार, .......