Skip to main content

शक्ति का सशक्तिकरण

शक्ति का सशक्तिकरण


‘बिहारी सप्त-शती’ (सतसई,सतसैया) के ‘कवि’ ने ‘मंगलाचरण’ में ही अपना ‘श्लिष्ट’ दोहा प्रस्तुत  करते हुए कहा है-
मेरी भव बाधा हरो, राधा-नागरि सोय!
जा तन की झाईं परै, श्याम ‘हरित-द्युति’ होय!!
- राधा नागरिका से भव-बाधा से मुक्ति की कामना करनेवाला कवि उन्हें जीवन की समस्त ‘हरितिमा’ के, जीवन के समस्त हरे-भरेपन के, सारी खुशहाल हरियाली के प्रतीक के रूप में स्वीकार करता प्रतीत होता है।
इसी प्रकार दुर्गा सप्तशती का कवि तो सृष्टि का आरंभ ही ‘आदि-शक्ति’ से मानता है। आदि शक्ति से ही सर्वप्रथम महाकाली, महासरस्वती और महालक्ष्मी आविर्भूत होती है। दुर्गासप्तशती सभी दृष्टि से शक्ति के समस्त विकल्पों का आराधन है। कवि ने एक एक कर मातृ रूपेण, लक्ष्मी रूपेण, विद्या रूपेण, क्षांति रूपेण आदि ‘शक्ति’ रूपेण महाशक्तियों की स्तुतियों में एक अध्याय ही समर्पित कर दिया है।
इसी परम्परा के अनुपालन में संस्कृत में एक श्लोक उपलब्ध है-
यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवताः,
यत्रै तास्तु न पूज्यंते तत्रे सर्वाफलाः क्रियाः!!
महाराज मनु ने स्पष्ट आदेश किया है कि जहां नारियों को पूज्य भाव से देखा जायेगा, देवतागण वहीं निवास करेंगे और (स्मरण रहे कि) जहां उनको पूज्य भाव से नहीं देखा जायेगा, वहां सारे किये गये कार्य निष्फल हो जायेंगे। भारतीय मनुष्यों में अपने आदि पुरुष के आदेश की फिर कहां (यत्र तत्र सर्वत्र) अवहेलना हुई और क्यों हुई कि आज ‘शक्ति’ (नाारी) के सशक्तिकरण’ का अभियान चलाना पड़ा।
बहुत सुदूर इतिहास में नारियों की स्थिति ‘पुरुषानुगामिनी’ होती चली आई। पुरुष-संस्था के गृहस्थी-जन्य अर्थशास्त्र का बहुत सुलभ विकल्प और साधन स्त्री रही है। आज के युग में भोजन, पानी, कपड़ा-लत्ता, बच्चों का धायत्व, साफ-सफाई, प्रबंधन आदि के लिये हिसाब लगाया जा सकता है कि कितना आर्थिक बोझ गृहस्थ पर पड़ता है। कड़वी और शायद अस्वीकार्य सचाई यही है कि नारी सिर्फ मातृत्व और स्त्री-सुलभ-प्रेम के ‘ईनाम’ या प्रलोभन में यह सब निशुल्ककर आर्थिक सहयोग का सबसे बड़ा उपक्रम बन जाती है। इसी प्रशंसा के विनिमय में सतयुग, त्रेता और द्वापर तक वह केवल उपकरण मात्र ही रही है।
इस स्थिति को स्पष्ट करती एक कविता (मुक्तक) प्राप्त हुई है जिसमें स्त्री के इसी योगदान पर प्रकाश डाला गया है।
घर, आंगन, चैके, चूल्हे से, पनघट तक, अमराई तक!
खेतों, मेड़ों, बक्खर, हल से,    जोताई, बोआई तक!
महुआ,बेर,अचार, मसाले,पापड़,सेंवइ,गुड़,दलहन,
नारी रीढ़ है गांव, घरों की, मक्खन और मलाई तक!!

इस भाव के विपरीत आधुनिक काल के द्विवेदी-युगीन राष्ट्रकवि ने नारियों की दुर्दशा को रेखांकित करते हुए लिखा -
अबला नारी हाय! तुम्हारी यही कहानी।
आंचल में है दूध और आंखों में पानी।।
इन पंक्तियों को पढ़ने से ऐसा लगता है कि नारी की यही नियति है। उसका कुछ हो नहीं सकता। कुछ लोगों ने इसी परम्परा के मध्यकालीन भक्तिमार्गी कवि तुलसी की एक चौपाई को भी जोर शोर से प्रचारित किया-
ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी।
ये सब ताड़न के अधिकारी।।
तुलसी सामंत-युग के कवि थे और उनकी कोशिश एक पारम्परिक भावभूमि के आधार पर नीतिवादी आदर्श समाज की निदेशना करना था। उनकी अलग समाज दृष्टि थी। अब तुलसी को बचाने लोग सामने आते हैं तो अधिकांश लोग यही कहते हैं कि इसका अर्थ वही नहीं हैं जैसा दिख रहा है। हमारे देश की यही विडम्बना है, हम विडम्बना-मूलक सत्य को स्वीकार नहीं करते और लीपा-पोती करते हुए ढाक के तीन पत्ते गिनते रहते हैं। कवि अपने समय के सत्य को लिखता है और हर कथन शाश्वत नहीं होता यह मानने में हमारी अतार्किक महानता बोधी मानसिकता आहत होती है। इसी कारण हम जहां के तहां धंसे रह जाते हैं।
अतीत-गौरव को ‘बदलते समय’ की कसौटी में कसनेवाले कवि जयशंकर प्रसाद ने नवीन युग के अनुकूल ऐतिहासिकता को परखने का प्रयास किया और ‘ध्रुवस्वामिनी’ जैसा नाटक लिखकर उन्होंने स्त्री की स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया। यह नाटक किसी अयोग्य पति की संपदा होने से स्त्री को स्वतंत्रता दिलाता है और उसे नीति-सम्मत सिद्ध भी करता है। ऐसे आधुनिक-दृष्टि-सम्पन्न प्रसाद ने ‘कामायनी’(लज्जा, भाग 2) में स्त्री को संबोधित करते हुए लिखा है-
नारी! तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास-रजत-नग-पग-तल में।
पीयूष-स्रोत सी बहा करो,
जीवन के सुन्दर समतल में।
नारी सवतंत्रता का उद्घोष करने वाले पुरुषों से मानसिकतागत भूल हो ही जाती है। कामायनी पूरी तरह स्त्री स्वातंत्र्य की गाथा है भी नहीं। वह इन्हीं पंक्तियों की पूर्ववर्ती पंक्तियों से स्पष्ट हो जाता है। मनु श्रद्धा (नारी) को ‘विश्वास रूपी चांदी के पहाड़ की तलहटी में ‘केवल श्रद्धा’ के रूप में स्थापित करते हुए पीयूष स्रोत सी ‘समतल’ पर बहने का आदेश देते हैं, किन्तु फिर एक ‘संधि-पत्र’ भी लिखवाते हैं, वह भी ‘मुस्कुराते हुए लिखने’ की शर्त पर-
आंसू से भींगे अंचल पर
मन का सब कुछ रखना होगा।
तुमको अपनी स्मित रेखा से
यह ‘संधि-पत्र’ लिखना होगा।
प्रसाद ने मनु से कहलवाया कि आंसुओं से भींगे आंचल के पीछे की सारी कहानी तुम्हें बतानी होगी। मुसकुराते हुए यह ‘संधिपत्र’ लिखकर दो। बुंदेली में इसका अनुवाद यह हुआ कि -‘जबरा मारे, रोअन न दे।’
मानसिकता की द्वंद्वात्मकता के चलते प्रसाद की भांति ही अतीत से अपनी ‘गौरव-सम्पदा’ एकत्र करनेवाले निष्क्रिय और निरंध समाज ने अपने अपशिष्ट-वर्तमान को मूल्यवान बनाने के लिए उसको ‘यशकेतु’ के रूप में अतीत का दुरुपयोग किया है। अतीत की गौरवमयी स्थापनाओं का मूल्यांकन, नवोन्मेषी-चिन्तन और कालानुरूप उसका अनुशीलन नहीं किया। यद्यपि अनेक विद्वानों ने पतन-नियामक उपत्यिकाओं के तटों पर खड़े होकर सदैव सावधान किया, किन्तु ‘मनमता पतनशील समाज’ निरन्तर उनकी उपेक्षा करता रहा।
इस प्रसंग पर महामना राहुल सांकृत्यायन कृत ‘खून के छींटे इतिहास के पन्नों पर’ नामक ग्रंथ की स्मृति होना स्वाभाविक है, जिसमें उन्होंने बताया है कि कैसे हमारा ‘शक्तिवादी मनुष्य समाज’ पहले मातृ-सत्ताक था और कैसे वह अपने लक्ष्य से भटक गया। उनकी उस विज्ञानवादी कृति ‘वाममार्गी बौद्ध चिन्तन के विरोध की सीमा’ के अंदर आने के कारण उपेक्षित हो गई।
सत्ता के सामंतीकरण, आक्रमण और लूट की आंधी में ‘स्त्री के औदात्त का कीर्ति-स्तम्भ’ सर्वाधिक मर्दित हुआ। यही नहीं आदिम संस्कृति, जिसके मूल में आज भी ‘स्त्री सत्ता’ है और स्वाभिमानी एवं उदारतावादी सत्य-शोधकों का भी दमन और पलायन आततायियों के लिए अपनी भ्रष्ट संस्कृति को फैला सकने में अनुकूल सिद्ध हुआ। यह कहने में कैसा संकोच कि हम जिस समाज में रह रहे हैं, वह ‘वह’ समाज नहीं है, जिसका मिथ्या-यशगान हम किया करते हैं।
इस बिन्दु पर आकर दिशान्तरण करना आवश्यक है। नारी के प्राचीन स्वरूप के ‘गुणगान’से ही उसके वर्तमान का भला नहीं होनेवाला है। स्वतंत्रता आंदोलन की भूमि में नारी के उत्थान और पुनरस्थापान की ज्वालाएं स्वयंभूत हुयी। अपने हिस्से का भोजन पकाने के बाद चूल्हे की राख में दबाई जानेवाली आग की तरह स्त्री की अस्मिता को नये समय ने फिर फूंक मारी और ज्वाला धधक उठी। दृष्टांत और आंकड़े बताए बिना भी आज स्त्रियों के प्रत्येक क्षेत्र में सशक्त योगदान को अनदेखा करना संभव नहीं है।
दयानंद सरस्वती, राजा राममोहन राय से लेकर ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई  फुले तक सभी ने, सभी वर्गों में विविध विडम्बनाओं की बलि-वेदियों में आहुति बनकर ‘स्वाहा’ होनेवाली स्त्री की दशा पर न केवल विचार हुए बल्कि सुधार भी हुए। बाल-विवाह जैसी कुप्रथाओं को तोड़कर ‘विधवा-विवाह’ और ‘स्त्री-शिक्षा’ जैसे आंदोलन और अभियान प्रारंभ हुए। स्त्रियां घर की चौखट पारकर कामकाज की दुनिया में आकर आत्मनिर्भर हुईं। समाज की मुख्यधारा में में आती गईं।
सुदीर्घ दासत्व और सांपत्य के भाव से मुक्त आत्मनिर्भरता की यह यात्रा कहने की तरह सरल और सुगम नहीं थी। विकास के मुख्य-मंच तक आते आते स्त्री को कड़ा संघर्ष करना पड़ा है।
पिछले कुछ वर्षों में समाज में स्त्री के लिंगानुपात को गंभीरता से लिया गया। ‘समाज में स्त्री सुरक्षित नहीं है!’ इस किंकर्तव्यविमूढ़ता के भाव में किये जानेवाले स्त्रीभ्रूण-हत्या के प्रकरणों का लिंगानुपात के आइने में विश्लेषण किया गया। उसकी चिन्ता की गई। किन्तु अभी भी समाज में कुछ तथाकथित संस्कृतिवादी लोग स्त्री की बराबरी और समता को लेकर नकार मुद्रा में हैं। जहां स्त्री विषयक सैकड़ों योजनाएं यथा लाडली लक्ष्मी, गांव की बेटी, प्रतिभा किरण आदि लागू की जा रही हैं, वहीं संसद में वह अपने वर्चस्व के प्रतिशत के लिए संघर्षशील है।
नारी जो कि प्रत्येक ग्रहस्थ की सामाजिकता और अर्थशास्त्र का ‘बीजगणित’ है, अपने श्रम के समीकरण में सबसे ज्यादा (84 प्रतिशत) देकर भी अपनी अस्मिता के प्रतिशत को लेकर संघर्षरत रहे यह विडम्बना नहीं तो क्या है। युद्ध के मैदान से लेकर खलिहानों तक, यातायात के साधनों के संचालन से लेकर अंतरिक्ष अभियान तक। चिकित्सा, विज्ञान, कृषि, शिक्षा, राजनीति आदि क्षेत्र में बड़ी तीव्रता के साथ स्त्री आनेवाले दिन, युग और शताब्दियां अब उसी के पाले में जाएंगी।
एक कवि ने तो उसके यशगान में लिख भी दिया है-
केवल श्रद्धा नहीं, पूज्या, कल्याणी, जीवन-दात्री!
अबला नहीं, सशक्त है नारी, महाशक्ति, जननी, धात्री!!
धरणी सी धृति, कृति, स्मृति, संसृति का श्रंृगार सतत,
आदि न अंत, अनंत, अनश्वर, अंतिम लक्ष्य वो, हम यात्री!!

--0--



डाॅ. रामकुमार रामरिया,
विभागाध्यक्ष,
हिन्दी भाषा एवं साहित्य विभाग,
शासकीय महाविद्यालय, तिरोड़ी.
बालाघाट. म. प्र.
9893993403
     rkramarya@gmail.com




Comments

Popular posts from this blog

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।...

मार्बल सिटी का माडर्न हॉस्पीटल

उर्फ मरना तो है ही एक दिन इन दिनों चिकित्सा से बड़ा मुनाफे़ का उद्योग कोई दूसरा भी हो सकता है, इस समय मैं याद नहीं कर पा रहा हूं। नहीं जानता यह कहना ठीक नहीं। शिक्षा भी आज बहुत बड़ा व्यवसाय है। बिजली, जमीन, शराब, बिग-बाजार आदि भी बड़े व्यवसाय के रूप में स्थापित हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य आदमी की सबसे बड़ी कमजोरियां हैं, इसलिए इनका दोहन भी उतना ही ताकतवर है। हमें जिन्दगी में यह सीखने मिलता है कि बलशाली को दबाने में हम शक्ति या बल का प्रयोग करना निरर्थक समझते हैं, इसलिए नहीं लगाते। दुर्बल को सताने में मज़ा आता है और आत्मबल प्राप्त होता है, इसलिए आत्मतुष्टि के लिए हम पूरी ताकत लगाकर पूरा आनंद प्राप्त करते हैं। मां बाप बच्चों के भविष्य के लिए सबसे मंहगे शैक्षणिक व्यावसायिक केन्द्र में जाते हैं। इसी प्रकार बीमार व्यक्ति को लेकर शुभचिन्तक महंगे चिकित्सालय में जाते हैं ताकि जीवन के मामले में कोई रिस्क न रहे। इसके लिए वे कोई भी कीमत चुकाना चाहते हैं और उनकी इसी कमजोरी को विनम्रता पूर्वक स्वीकार करके चिकित्सा व्यवसायी बड़ी से बड़ी कीमत लेकर उनके लिए चिकित्सा को संतोषजनक बना देते हैं। माडर्न ...

चूहों की प्रयोगशाला

( चींचीं चूहे से रेटसन जैरी तक ) मेरे प्रिय बालसखा , बचपन के दोस्त , चींचीं ! कैसे हो ? तुम तो खैर हमेशा मज़े में रहते हो। तुम्हें मैंने कभी उदास ,हताश और निराश नहीं देखा। जो तुमने ठान लिया वो तुम करके ही दम लेते हो। दम भी कहां लेते हों। एक काम खतम तो दूसरा शुरू कर देते हो। करते ही रहते हो। चाहे दीवार की सेंध हो ,चाहे कपड़ों का कुतरना हो , बाथरूम से साबुन लेकर भागना हो। साबुन चाहे स्त्री की हो या पुरुष की, तुमको चुराने में एक सा मज़ा आता है। सलवार भी तुम उतने ही प्यार से कुतरते हो , जितनी मुहब्बत से पतलून काटते हो। तुम एक सच्चे साम्यवादी हो। साम्यवादी से मेरा मतलब समतावादी है, ममतावादी है। यार, इधर राजनीति ने शब्दों को नई नई टोपियां पहना दी हैं तो ज़रा सावधान रहना पड़ता है। टोपी से याद आया। बचपन में मेरे लिए तीन शर्ट अलग अलग कलर की आई थीं। तब तो तुम कुछ पहनते नहीं थे। इसलिए तुम बिल से मुझे टुकुर टुकुर ताकते रहे। मैं हंस हंस कर अपनी शर्ट पहनकर आइने के सामने आगे पीछे का मुआइना करता रहा। ‘आइने के सामने मुआइना’ , अच्छी तुकबंदी है न! तुम्हें याद है ,तुम्हारी एक तुकबंद कविता किताबों में छप...